राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की स्थापना 1935 में हुई थी और तीन साल बाद इसके 100 वर्ष पूरे हो जाएंगे। कुछ लोगों का मानना है, खासतौर से 2019 के बाद से, कि 2025 में भारत को हिंदू राष्ट्र में पूरी तरह परिवर्तित कर दिया जाएगा। मैंने अपनी पिछली किताब में इस बात का जिक्र किया है कि इसका क्या अर्थ होगा। इसी संदर्भ में मैं इसके कुछ पहलू यहां लिख रहा हूं।
कोई राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष हो सकता है, हिंदू राष्ट्र हो सकता है, इस्लामी राष्ट्र या फिर कानून पर आधारित किसी और विषयवस्तु पर आधारित हो सकता है। दरअसल कानून ही किसी भी देश की स्थिति और प्रकृति को परिभाषित करते हैं। आज की तारीख में भारत एक संविधान के अनुरूप शासित होता है जिसे स्वतंत्रता के बाद से हमने अंगीकृत किया है और कुछ आपराधिक कानून बनाए हैं जो 19वीं शताब्दी में स्थापित किए गए थे। इनमें भारतीय दंड संहिता भी है जो 1860 में आई थीं और मोटे तौर पर पूरे दक्षिण एशिया में आज भी उसी तरह से है। इसे समझने के लिए कि हिंदू राष्ट्र होने से क्या बदलेगा, इसे जानना जरूरी है कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ क्या है।
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मेरे विचार में इसके दो-एक अर्थ हो सकते हैं। एक तो यह हो सकता है कि हिंदू राष्ट्र हिंदू ग्रंथों की व्याख्या से परिभाषित होगा और सरकार और कानूनों का निर्माण इन्हीं ग्रंथों के आधार पर होगा। लेकिन समस्या यह है, जैसाकि आंबेडकर ने अपने कलात्मक निबंध एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जातियों का विनाश) में शोधात्मक तरीके से लिखा है कि ये ग्रंथ लागू नहीं हो सकते। कानून में जातीय पद्धति कम से कम हमारे समय में संभव नहीं है। इसका कोई विशेष कारण नहीं है, सिर्फ इतना सा है कि इससे बड़ी संख्या में हिंदुओं को नुकसान ही होगा।
यही कारण है कि नेपाल आजतक अपूर्ण हिंदू राष्ट्र ही है, जैसाकि यह 2008 तक था। नेपाली किंगडम में राज्य या सरकार के कार्यकारी अधिकार एक क्षत्रिय राजा से प्रवाहित होते थे, जैसा कि मनु स्मृति में निर्धारित किया गया था। और राजा के सारे काम दरबार में रखे गए एक ब्राह्मण की सलाह पर होते थे, जिसे मूल पुरोहित या बड़ा गुरुज्यू कहा जाता था। लेकिन जातीय ढांचे का कोई अन्य हिस्सा लागू नहीं किया गया था, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता था। इसलिए हम भारत में एक ऐसे हिंदू राष्ट्र को खारिज कर सकते हैं, जहां केवल ब्राह्मणों की सलाह पर काम करने वाले जन्म से क्षत्रिय ही हम पर शासन करेंगे और हममें से बाकी लोगों के पास कुछ या कोई अधिकार नहीं होंगे।
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हिंदू राष्ट्र का दूसरा रूप बहिष्करण वाला हो सकता है। यह वह रूप है जो पाकिस्तान सहित कई धार्मिक देशों ने अपनाया है। पाकिस्तान में कोई भी गैर-मुस्लिम कानून द्वारा प्रधानमंत्री नहीं बन सकता (अनुच्छेद 91)। राष्ट्रपति (अनुच्छेद 41) के मामले में भी यही स्थिति थी, जो महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान के राष्ट्रपति के पास संसद को खारिज करने की शक्ति है, जो कि भारतीय राष्ट्रपति के पास नहीं थी।
तो इस तरह के हिंदू राष्ट्र में नियम होगा कि कानूनन कोई भी गैर-हिंदू न तो प्रधानमंत्री बन सकता है, न मुख्यमंत्री बन सकता है और सिर्फ हिंदू ही कुछ खास पदों पर आसीन हो सकते हैं। वैसे गौर इस बात पर भी करना चाहिए कि देश में फिलहाल कोई ऐसा कानून तो नहीं है लेकिन किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री मुस्लिम नहीं है, किसी भी मुस्लिम मुख्यमंत्री ने कश्मीर के अलावा किसी भी राज्य में सीएम के तौर पर 5 साल नहीं गुजारे हैं। और देश का प्रधानमंत्री कोई मुस्लिम कभी नहीं रहा।
इस प्रकार का हिंदू राष्ट्र अपने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कुछ और भी भेदभावपूर्ण पहलुओं को अपना सकता है जैसा कि पाकिस्तान जैसे देशों ने चुना है। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान में गैर-मुसलमान अलग किस्म के वोटर के तौर पर वोट डालते हैं और काफिर करार दिए गए अहमदियों को तो खुद को मुस्लिम कहने तक का हक नहीं है और उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता भी हासिल नहीं है। बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी प्रस्ताव दे चुके हैं कि मुसलमानों को वोट देने का अधिकार खत्म कर दिया जाए।
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जर्मनी ने 1930 के दशक में कुछ ऐसे कानून अपनाए थे जिसमें दो समुदायों के बीच अंतरधार्मिक विवाहों पर रोक लगा दी गई थी। भारत में 2018 में बीजेपी शासित राज्यों ने भी ऐसे कानून पास किए हैं जिसमें मुस्लिम और हिंदुओं के बीच होने वाली शादी को अपराध घोषित कर दिया गया है। जर्मनी के कानूनों में यहूदियों को नारिकता के अधिकार से वंचित कर दिया गया था, भारत में भी नागरिकता संशोधन कानून आ गया है जिसमें मुसलमानों को अलग कर दिया गया है और गृहमंत्री ने वादा किया है कि जल्द ही एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लाया जाएगा, जिसमें उन लोगों को निशाना बनाया जाएगा जिन्हें वे ‘दीमक’ कह चुके हैं।
भारत में खासतौर से 2019 के बाद से बहुत सी ऐसी बातें हुई हैं, जैसे कि नमाज की नीति बनाना, हिजाब, बीफ, बुलडोजर, तलाक आदि आदि जिन्हें हम कह सकते हैं कि वे बहिष्करण वाले हिंदू राष्ट्र के ही संकेत हैं।
ऐसे में सवाल है कि, अगर हम मुसलमानों को राजनीतिक पदों से पहले ही बाहर कर चुके हैं, और अगर हम उन्हें रोज ही किसी न किसी कानून के तहत परेशान कर रहे हैं जैसा कि नाजी जर्मनी ने किया था और पाकिस्तान करता है, तो फिर हमें हिंदू राष्ट्र की जरूरत क्या है या फिर हमें मौजूदा कानूनों में बदलाव की जरूरत ही क्या है?
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मेरी किताब इसी नतीजे पर पहुंचती है कि हमें इसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि मौजूदा संविधान और कानूनों से हिंदुओं को इस हद तक आजादी है कि गैर-हिंदुओं के खिलाफ कानूनी तौर पर भेदभाव किया जा सके, और हम फिर भी बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश बने रहें। अगर हम हमारे संविधान को अधिकारिक तौर पर बदल भी लें और कानूनी तौर पर हम एक धर्मनिरपेक्ष देश से बदलकर हिंदू राष्ट्र हो भी जाएं, तो भी किसी को कोई कास फायदा होने वाला नहीं है।
लेकिन फिर भी हम ऐसा करेंगे, क्योंकि इससे हमें गर्व की अनुभूति होगी और हमें मुसलमानों को अपमानित करने के मौका मिलेगा कि देखो अब भारत में तुम्हारा कोई हक नहीं रहा। कई लोगों ने लिखा है कि बहुतायत मुस्लिम इस ईमानदारी को मान लेंगे बजाए इसके कि उन्हें दोगलेपन से हाशिए पर धकेल दिया जाए, क्योंकि ऐसा तो हो ही रहा है।
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हम कुछ भी तय करें, उस पर दुनिया की नजर तो होगी ही। धार्मिक राष्ट्रों का समय खत्म हो चुका है और 21वीं सदी में कोई भी इस किस्म का उल्लेखनीय देश अस्तित्व में सामने नहीं आया है। बहुत से देशों की स्थापना धर्म पर आधारित है, लेकिन उन्होंने भेदभाव वाले कानूनों को बदला है क्योंकि जन्म और धर्म दो ऐसे संकीर्ण नजरिए हैं जिसमें से लोगों को देखा जाए। आम नागरिकों के लिए यह समय पीड़ादायक हो सकता है, लेकिन मेरे जीवन का यह सबसे खराब दौर है, क्योंकि लेखकों के लिए यह रोचक सामग्री हो सकती है कि कभी दुनिया भर में प्रशंसा बटोरने वाला देश खुद को ही जिंदा निगल रहा है।
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