रविवार को देहरादून में देश के चोटी के उद्योगपतियों-निवेशकों की मौजूदगी में उत्तराखंड के पहले निवेशक सम्मेलन का आगाज़ माननीय प्रधानमंत्री जी के हाथों किया गया। ज़मीनी स्तर पर अब तक उनकी सरकार की दो महत्वाकांक्षी योजनायें ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्ट अप इंडिया’ सीले पटाखे ही साबित हुई हैं, फिर भी उत्तराखंड राज्य का प्रदर्शन अपेक्षया ठीक ठाक कहा जा सकता है। विश्वबैंक और सरकार का ‘डिप’ (निवेश उद्योग विषयक पालिसी को बढ़ावा देने वाला) विभाग हर साल एक रपट जारी करता है जिसे राज्यों के भेजे डाटा और कुछेक खास (विश्व बैंक रचित) पैमानों पर जांचा जाता है कि कोई राज्य आदर्श निवेश स्थल बनने की दौड़ में कहां पर खड़ा है? तय करने के कुछ मुख्य मुद्दे इस तरह हैं :
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साल 2017 में उत्तराखंड देश के शाबाशी पाने वाले शीर्ष दस राज्यों में, और पहाड़ी इलाके के राज्यों में शीर्ष पर था। इस बरस जुलाई में जारी हुई रपट में वह दो पायदान नीचे खिसक कर 11वें नंबर पर आ गया है।
चुनाव सिर पर देखते हुए जैसी कि उम्मीद थी, टी वी पर प्रधानमंत्री का भाषण हमेशा की तरह उत्तेजक सुखद ब्योरों और अपनी सरकार की पीठ थपथपाई से छलक रहा था। पर रोचक है कि बड़े संयंत्रों या उपक्रमों के बजाय उन्होंने उत्तराखंड को विशिष्ट आध्यात्मिक क्षेत्र बताते हुए वहां धार्मिक पर्यटन के महत्व को ही अधिक रेखांकित किया। बिना पर्यावरण सुरक्षा की परवाह किये धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देते जाने और उसके लिये चार धाम यात्रा सरीखे पैकेजों को ज़मीन पर उतारने के लिये हो रहे निर्माण कार्यों ने राज्य के निवासियों के लिये तमाम दुश्वारियां पैदा कर दी हैं। इनका नतीजा वहां हर बरसात में बढ़ रहा भारी भूस्खलन और बाढ हैं। ठेकेदार खर्चीली मलबा उठाई से कन्नी काटते हुए उसे पास की नदियों में उलीच रहे हैं, जिससे कई नदियों का बहाव खतरनाक तरीके से अवरुद्ध हो कर जल दबाव बना रहा है। नैनीताल में लोअर माल का भहरा कर बैठ जाना, गर्मियों में झील का सूख जाना और मसूरी शहर में भूस्खलन, हाल की कुछ अभूतपूर्व घटनायें हैं। यह दिखा रही हैं कि पहाड़ों में मुनाफा कमाई के लिये कुदरत से लालची मूर्ख छेड़छाड़ कितनी भारी पड़ेगी।
सपाट ज़मीन की पहाड़ों में किल्लत पुरानी है। कॉरबेट पार्क जैसे संरक्षित अभयारण्य में सड़क बनाने का प्रस्ताव तो अभी जागरूक जनसंगठनों ने रुकवा दिया, पर वनों का कटान जारी है। अडानी जैसे बड़े उद्योगपतियों का जितना भारी स्वागत किया गया उससे कई लोकल लोग सशंकित हैं कि उनकी ज़मीन पर बड़े उद्योग लगे तो कहां और किस कीमत पर लगेंगे? विश्व बैंक की ताज़ा पड़ताल ने उत्तराखंड को बिजली उत्पादन और वितरण के पैमानों पर झारखंड और बंगाल जितना पिछड़ा पाया है। जहां तक जी एस टी का मसला है, रपट बताती है कि इसका असर अधिकतर राज्यों में नकारात्मक पाया गया। उन राज्यों में मध्यप्रदेश, तेलंगाना सरीखे मैदानी राज्य ही नहीं, हिमाचल और उत्तराखंड भी शामिल हैं।
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प्रधानमंत्री ने भावुक हो कर उत्तराखंड को हिमालय की गोद में बसा होने और माँ गंगा की कृपा का पात्र होने के कारण एक खास आध्यात्मिक ज़ोन होने का फतवा भी दे डाला। सच तो यह है कि उत्तराखंड राज्य, पर्यावरण में आ रहे बदलावों, बढ़ती पर्यटकों की भीड़, भवन निर्माण और कुदरती संसाधनों के बेदिमाग दोहन से लगातार अब पानी की कमी से जूझ रहा है। अधिकतर कुदरती नाले, छोटे नाले गायब होते जा रहे हैं और झीलें भी।
हमेशा की तरह प्रधानमंत्री के भाषण में (अंग्रेज़ी का) नया नारा भी दिया, ‘वन वर्ल्ड, वन सन, वन ग्रिड’ ! यानी एक दुनिया, एक सूरज, और एक ही बिजली व्यवस्था। नारा तो लुभावना है, पर बिन पानी सब सून। जिस राज्य के लिये मशहूर है कि वहां का पानी और वहां की जवानी स्थानीय लोगों के काम नहीं आती, जहां लगातार हज़ारों गांव उजाड़ भुतहा बन रहे हैं, वहां इन नारों का लोग क्या करें?
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