जहां एक ओर जलवायु बदलाव के दौर में प्रतिकूल मौसम के कारण किसानों की उपज पहले से अधिक अनिश्चित हो रही है, वहां उनके खर्च बढ़ते जा रहे हैं। इस स्थिति में कर्जग्रस्त होने की संभावना भी बढ़ गई है और यही किसानों के संकट का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इस विकट स्थिति में कुछ किसान ऐसे भी हैं जो कम भूमि होने के बावजूद उससे संतोषजनक व टिकाऊ आजीविका प्राप्त कर रहे हैं। उनका न खर्च अधिक है न वे कर्ज में फंसे हैं। अतः ऐसे किसानों के व्यवहारिक अनुभव से यह जानना चाहिए कि वे अधिक खर्च व कर्ज के जाल से कैसे बचे।
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लिधोराताल गांव (ब्लाक जतारा, जिला टीकमगढ़, मध्य प्रदेश) के बालचंद्र अहिरवार मात्र 2 एकड़ भूमि के एक दलित किसान हैं जिन्होंने कम भूमि में टिकाऊ व संतोषजनक आजीविका का अनुकरणीय उदाहरण सामने रखा है। उनके अनुभवों से पता चलता है कि उन्होंने स्थानीय संसाधनों का बेहतर से बेहतर उपयोग कर अपना खर्च बहुत कम किया है। वे बताते हैं कि गाय के गोबर, गोमूत्र के साथ कुछ बेसन व गुड़ मिलाकर वे प्राकृतिक खाद तैयार करते हैं व गाय के गोबर व गोमूत्र में स्थानीय पौधों की कड़वी पत्तियों (नीम आदि) मिलाकर वे कीड़ों के रोकथाम की दवा तैयार करते हैं।
इस तरह एक एकड़ में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं आदि का जो 6000 रुपए होता है उसके स्थान पर उन्हें मात्र 500 रुपए खर्च करना पड़ता है। इतना ही नहीं, वे बताते हैं कि इस तरह की खेती में सिंचाई भी कम करनी पड़ती है जिससे 2000 रुपए प्रति एकड़ की बचत और हो जाती है।
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बालचंद्र अपने लिए ही नहीं, अन्य किसानों के लिए भी प्राकृतिक खाद व दवा तैयार करते हैं। जो किसान किसी कारणवश स्वयं यह नहीं बना पाते हैं तो वह उनसे सस्ती कीमत पर यह खरीद सकते हैं। इन किसानों का खर्च भी रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा की खेती की अपेक्षा आधा हो जाता है या उससे भी कम हो जाता है।
किसानों का खर्च व कर्ज बढ़ने का एक मुख्य कारण है कि छोटे किसान के लिए महंगा ट्रैक्टर खरीदना व उसकी किश्त भरना बहुत कठिन है। बालचंद्र कहते हैं कि बैलों की जुताई अच्छी रहती थी, पर कुछ कारणों से उनके स्थान पर यह कम हो गई तो वह पावर टिलर से कार्य करते हैं जो ट्रैक्टर की अपेक्षा बहुत सस्ता है और उनके दो एकड़ के लिए पर्याप्त है।
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बालचंद्र ने ऐसे तौर-तरीके अपनाए हैं जिनसे उनकी मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन, भुरभुरापन व नमी की क्षमता बनी रहे। वे मिट्टी उठाकर दिखाते है कि प्राकृतिक खेती करने से इसमें कितने केंचुए लौट आए हैं। इस मिट्टी में बहुत सूक्ष्म जीव भी हैं। यह भी एक प्राकृतिक संसाधन है जिसे हमें कभी गंवाना नहीं चाहिए। इनकी सतत् क्रियाओं से निरंतर मिट्टी भुरभरी और उपजाऊ बनी रहती है, इसके आर्गेनिक तत्त्व बने रहते हैं।
इसकी कार्बन सोखने की क्षमता अधिक होती है व इस तरह ग्रीनहाऊस गैसों को कम कर जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मदद मिलती है। रासायनिक खाद, कीटनाशक व खरपतवारनाशक दवा का उपयोग दूर होता है तो फासिल फ्यूल के उपयोग में कमी व ग्रीनहाऊस गैसों में कमी होती है।
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बालचंद्र अपनी भूमि का बेहतर से बेहतर उपयोग करते हुए ही इस पर अनाज, तिलहन, दलहन, फल, सब्जी सब लगाते हैं और लगभग 44 तरह की उपज अपने इस 2 एकड़ के खेत में उन्होंने वर्ष 2023 में प्राप्त की। मुख्य फसल के साथ अन्य फसल की मिश्रित खेती कर व मेढ़ पर तरह-तरह के पौधे उगाकर वे भूमि में बहुत हरियाली बनाए रखते हैं व फलों, सहजन आदि के पेड़ खेत में सदा खड़े रहते हैं व नीम जैसे पेड़ खेत के आसपास है। इस तरह खेत की नमी को भी बढ़ती गर्मी के ताप से बचाया जाता है।
केवल एक छोटा सा कुंआ होने के कारण पानी की कमी अवश्य है, पर इस कठिनाई को झेलते हुए भी स्थानीय संसाधनों के बहुत सुन्दर उपयोग का उदाहरण बालचंद्र ने प्रस्तुत किया है जिसमंे खर्च भी कम है व उपज भी अच्छी है। वे बताते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक की खेती छोड़ने के बाद लगभग तीन वर्ष इस नई स्थिति में पहंचने में लग जाते हैं। उन्हें सरकार ने पुरस्कृत किया है व कई प्रशिक्षणों में उनकी सेवाएं प्राप्त की जाती हैं। बालचंद्र जैसे कुछ अति प्रतिभाशाली व मेहनती किसानों को आगे लाने में सृजन संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सृजन ने ऐसे किसानी के खेतों पर प्राकृतिक कृषि केन्द्र स्थापित किए हैं जहां से अन्य किसानों को भी ऐसी खेती को अपनाने में सहायता मिलती है। इन किसानों के उत्साहवर्धक अनुभवों को देखते हुए अनेक अन्य किसान भी ऐसी खेती के लिए प्रभावित हो रहे हैं।
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