अभी कुछ दिन पहले मैंने फूड सर्विस स्विगी से एक केक ऑर्डर किया। किसी का बर्थडे था तो मैंने एक किलो का केक ऑर्डर किया था। स्विगी पर ऑर्डर होने के बाद आपको पता चल जाता है कि ऑर्डर ले लिया गया है और डिलीवरी करने वाले का नाम भी आ जाता है। मैं आमतौर पर इसे जरूर देखता हूं ताकि वह अगर रास्ता पूछे तो बता सकूं। लेकिन मैं इस बार डिलीवरी करने वाले के तौर पर एक महिला का नाम देखकर अचंभित सा हो गाया। इसके बाद मुझे स्विगी से कॉल आया कि क्या मैं केक पर कुछ लिखवाना चाहता हूं, तो मैंने बता दिया।
कुछ ही मिनट बाद वह महिला केक देने के लिए आ गई। मैं उत्सुक था इसलिए खुद ही दरवाजे पर गया। मैं उससे मिलना चाहता था। वह एक स्कूटी पर आई ती और स्विगी वाली ड्रेस के बजाए सामान्य सा सलवार-कुर्ता पहने थी। यही कोई 30 बरस की होगी। मैंने पूछा कि क्या वह इस काम में नई है, तो उसका जवाब हां में था।
दो दिन बाद मैं अपने डॉक्टर के पास ड्राइव करता हुआ जा रहा था तो रास्ते में मैंने एक महिला को देखा जो एक ठेला खींच रही थी। उसकी कोसिश से लग रहा था कि वह इस काम में नई है क्योंकि वह कुछ तनाव में दिखी। वह भी किसी गृहिणी जैसे कपड़ों में थी, पूल लगाए, सोने की ज्वेलरी पहले और एक चमकदार पर्पल साड़ी पहने। यह वह कपड़े तो थे नहीं तो आम तौर पर हाथ ठेला खींचने वाले पहनते हैं। इसके अलावा हम आमतौर पर महिलाओं को ऐसा काम करते हुए भी नहीं देखते हैं।
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डॉक्टर के पास पहुंचकर मैं उस फिजियोथेरेपिस्ट से मिला जिसे मैं पहले से जानता था, क्योंकि उसकी सेवाएं मैं पहले भी ले चुका था। वह ओडिशा का रहने वाला है और अपने काम में पारंगत है। उसने बताया कि 24 मार्च के बाद मैं उसका पहला मरीज था। (यह बात 7 अप्रैल की है) 24 मार्च के बाद उसकी आमदनी बंद हो चुकी थी। वह खुद को दिहाड़ी मजदूर ही मानता था, क्योंकि उसकी कमाई तभी होती थी जब कोई मरीज उसके पास फिजियोथेरेपी के लिए आए। उसने बताया कि उसका जानने वाला एक स्टैंडअप कॉमेडियन इन दिनों डिलीवरी ब्वॉय के तौर पर काम कर रहा है।
एक दिन पहले मेरी पत्नी एक रेस्त्रां में किसी जानने वाले से बात कर रही थीं। वह शख्स वहां हेड वेटर के तौर पर काम करता था और इन दिनों डिलीवरी ब्वॉय के तौर पर काम कर रहा था। उसने बताया कि वह घर में बैठे-बैठे बोर हो गया था क्योंकि रेस्त्रां तो बंद है और फिर वेतन भी या तो आधा कर दिया गया है या फिर मिला ही नहीं है। यहां तक की व्हाइट कॉलर जॉब यानी पढ़े-लिखों वाली नौकरी करने वालों की भी तन्ख्वाह कटी है।
इन दिनों जगह-जगह फल-स्बजी बेचने वाले दिखते हैं, छोटी वैन में तरबूज, कच्चे आम, अमरूद या केले बेचते हुए लोग दिखते हैं। इन सब पर ग्राहक इक्का-दुक्का ही होते हैं, या फिर हो सकता है कि सड़कें खाली होने की वजह से ऐसा लगता हो।
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आज करोड़ों भारतीयों के पास आमदनी का कोई जरिया नहीं है। लेकिन उन्हें घर का किराया देना है, कर्ज की किस्त चुकानी है। खाने और बिजली के इस्तेमाल में तो कटौती हो नहीं सकती, इसलिए उन्हें लगातार पैसे की जरूरत है, तो वे ऐसे ही कामों को अपना रहे हैं। इस संकट के वक्त में लोग काम की तलाश में निकल रहे हैं और इनमें से बहुत से, खासतौर से उन जैसी महिलाएं जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया, पहली बार काम के लिए बाहर निकल रही हैं। दूसरे लोग ऐसे काम कर रहे हैं जो वे पहले नहीं करते थे या जिनकी उन्हें ट्रेनिंग या अनुभव है। महिलाओं को घर की आमदनी में हाथ बंटाना क्यंकि या तो उनके पार्टनर बेरोजगार हो गए हैं या फिर उनका वेतन कम हो गया है।
हममें से एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो वही काम कर सकते हैं जो उन्होंने पढ़ा है या सीखा है, और बहुत से लोगों ने तो कुछ पढ़ा-लिखा भी नहीं है। ऐसे में काम की तलाश में किसी ऐसी जगह जाने का भी फायदा नहीं जहां ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। स्किल या कौशल से ज्यादा शारीरिक काम की ज्यादा जरूरत दिख रही है।
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और बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें यह काम भी नहीं मिल पा रहा वे मजदूरी का रास्ता अपना रहे हैं। यानी आने वाले वक्त में ऐसे बहुत से लोग दिखेंगे जो छोटे-मोटे काम कर रहे होंगे और ऐसा दिखना शुरु भी हो गया है। हो सकता है कुछ लोगों को ये सब करने में आनंद आ रहा हो, लेकिन इन कामों पर अनिश्चितता के साए के साथ ही दूसरे खतरे भी हैं। वेंडरों को उत्पीड़न, वसूली और जो नए हैं उन्हें सही दामों की जानकारी न होने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता हैष साथ ही इलाकों की सही जानकारी न होने के चलते हो सकता है नया-नया फल बेचने वाले को पता ही न हो कि खूब पक गए फलों का अब क्या करें।
हम सबको रोजगार चाहिए, नौकरी चाहिए इसके साथ ही नौकरी की सुरक्षा भी दरकार है। नौकरी की सुरक्षा के सही अर्थ मौजूदा संकट के समय में ही समझ में आते हैं, और करोड़ों भारतीयों के साथ ही अरबों विदेशियों की नौकरी की सुरक्षा खत्म हो चुकी है, और इन सबको जीविका चलाने के लिए कुछ रास्ते खुद ही तलाशने होंगे।
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