हालात बेहद खतरनाक हैं। ढोल कनस्तर पीट पीटकर गला फाड़ चिल्लाने से फुर्सत मिल गई हो तो ज़रा आसपास देख लें। जिन सरकारों को अकल आ गई है, उन्होंने लॉक डाउन का एलान कर दिया है। यह लॉक डाउन कितना जरूरी है यह समझना हो तो इटली का हाल टीवी पर देख लें। चीन से छन कर आई खबरें पढ़ लें और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन का बयान सुन लें।
इन सभी देशों का हाल बताता है कि भारत पर कितना बड़ा खतरा मंडरा रहा है। और करेले पर नीम चढ़ाने के लिए कनिका कपूर कांड, मुंबई से सूरत जाते हुए पकड़े गए लोग, दिल्ली से तेलंगाना रेलयात्रा कर पहुंचे लोग और न जाने कितने शहरों में कितने ऐसे लोग जो चुपचाप छुपते छुपाते घूम रहे हैं। किसी को बता नहीं रहे हैं कि वो विदेश से लौटे हैं या किसी ऐसे इन्सान से मिले हैं जो कोरोना की चपेट में है।यह सारे लोग एटम बम हैं और कोरोना का ये संकट एक महामारी नहीं पूरा का पूरा विश्वयुद्ध है।
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अभी तो सबका पूरा ध्यान इसी बात पर है और होना भी चाहिए कि इससे मुकाबला कैसे करें। कोरोना को रोका कैसे जाए। इसका इलाज कैसे हो। और नए लोग इसकी चपेट में न आएं इसका इंतजाम कैसे हो। साफ साफ तरीका तो एक ही है। यही कारगर भी है। सब कुछ रुक जाए। जो जहां है, वहीं रहे। आना जाना बंद हो जाए। जिसमें लक्षण दिखें वो इलाज के लिए जाए और उसके संपर्क में आए लोग तनहाई में चले जाएं। पूरा देश इसी तरह कम से कम तीन हफ्ते एकांतवास का अभ्यास करेगा, तब कहीं इस बात की उम्मीद हो सकती है कि हम कोरोना को और फैलने से रोक पाएंगे।
दूसरा संकट है जो बीमार पाए गए उनकी देखभाल और इलाज का। जिनको बीमारी का शक हो उनकी जांच का। यहां हमारा स्वास्थ्य तंत्र बेहद कमजोर है। हालांकि कुछ बड़े उद्योगपति आगे आए हैं कुछ और चिंतित लोगों ने अपनी अपनी तरफ से मदद की पेशकश की है, मगर वो ऊंट के मुंह में जीरा ही है। फिर भी कुछ नहीं से कुछ तो सही।
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लेकिन असली बीमारी शुरू होगी तब जब कोरोना का ये बुखार उतर चुका होगा। यानी बीमारी या तो काबू में आ जाएगी, या अपने ‘संकल्प और संयम’ से हम इसे और फैलने से रोकने में कामयाब होंगे। पहले तो यह कहना ही मुश्किल है कि ऐसा होने में कितना वक्त लगेगा। अमेरिकी विशेषज्ञ तो अनुमान लगाने लगे हैं कि वहां इसका असर खत्म होने में कम से कम नौ महीने लग जाएंगे। जबकि भारत में आम तौर पर लोगों को लग रहा था कि ये दो चार दिनों का मामला है।
मगर अब गंभीरता झलकने लगी है। खासकर जो कंपनियां या कारोबार अपने लोगों को बिना दफ्तर बुलाए गुजारा कर सकते हैं उन्होंने तो बड़े पैमाने पर वर्क फ्रॉम होम शुरू कर दिया है। मगर बहुत से छोटे कारोबारी ऐसे हैं जिनके पास करने को कुछ बचा ही नहीं है।तो उन्होंने शटर भी गिरा दिया और स्टाफ को भी कह दिया कि दो महीने न काम होगा न पैसा मिलेगा। दो महीने बाद पूछ लेना, जिंदगी रही तो फिर मिलेंगे।
यही इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल है। ज़िंदगी का भी और इकोनॉमी का भी। किसकी जिंदगी रहेगी और कौन कब किससे फिर मिलेगा?
बड़ी बड़ी कंपनियां तो शायद झटका झेल जाएंगी। मुनाफा गिरेगा, कुछ घाटा हो सकता है। हिसाब की जुबान में एक दो क्वार्टर अच्छे नहीं जाएंगे, मगर फिर - बिजनेस एज़ यूजुअल यानी सब वापस पटरी पर आ जाएगा।
काश, सबके साथ ऐसा ही होता! मगर हो नहीं पाएगा। इस वक्त हिसाब लगाना मुश्किल है कि गिनती क्या होगी, नुकसान कितना होगा, मगर हज़ारों, हो सकता है लाखों छोटे छोटे कारोबार तबाही की कगार पर खड़े हैं। कोरोना से लड़ाई में एक एक दिन की देरी यह गिनती बढ़ाती जाएगी। आंकड़ों का वक्त नहीं है। आंकड़ों की अहमियत भी नहीं है इस वक्त।
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क्यों? क्योंकि ऐसे एक एक कारोबारी के पीछे दर्जनों से लेकर सैकड़ों तक लोगों की रोजी रोटी है। मोटा अंदाजा है कि ऐसे लाखों कारोबारी मुसीबत में हैं। अब आप खुद हिसाब लगा लीजिए कि कितना बड़ा संकट सामने मुंह बाए खड़ा है। जिसका सामना कोरोना के जाते ही करना होगा। लेकिन उससे पहले ये ज़रूरी है कि कोरोना को मार भगाया जाए।
अगर हम एक देश के तौर पर। एक समाज के तौर पर समझदारी का परिचय देंगे, तभी ये हो पाएगा। खाली थाली पीटने से कुछ नहीं होगा। शंख घंटा बजाकर जुलूस निकालने से तो और भी उल्टा ही असर होना है। हम सबको एकांत का अभ्यास करना होगा। दिल लगाकर इस बीमारी से मुकाबला करना होगा। पार्टीबाजी सिर्फ नुकसान को बढ़ाएगी। एक बार ये हो जाए, उसके बाद ही हिसाब लग पाएगा कि अब आगे कितना बड़ा पहाड़ खड़ा हो गया है जिसे पार करना है, या ढहा देना है।
(आलोक जोशी वरिष्ठ पत्रकार और सीएनबीसी आवाज़ के पूर्व संपादक हैं)
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