विचार

राम पुनियानी का लेखः CAA-NRC-NPR का देशव्यापी विरोध और सकते में सरकार और संघ परिवार

बीजेपी और मोदी सरकार को उम्मीद थी कि केवल मुसलमान नागरिकता कानून के विरोध में आएंगे। लेकिन संघ और सरकार यह देख सकते में आ गई कि विद्यार्थियों-युवाओं समेत सभी धर्म के लोग और अधिकांश राजनैतिक दल, जिनमें एनडीए के घटक जेडीयू और अकाली भी शामिल है विरोध में हैं।

फोटोः IANS
फोटोः IANS 

देश भर में सीएए-एनपीआर-एनआरसी की जिस ढंग से खिलाफत हुई, वह एक लम्बे समय तक याद राखी जाएगी। विरोध-प्रदर्शन स्वस्फूर्त थे और उनमें अनेक पार्टियों, विचारधाराओं और सामाजिक-धार्मिक समुदायों से जुड़े लोग शामिल थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये विरोध प्रदर्शन इतने व्यापक और कड़े थे कि इनसे बीजेपी और उसके सहयोगी भी हिल गए। इन जबरदस्त विरोध-प्रदर्शनों के चलते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कुछ ऐसी बातें कहनी पड़ीं जो तथ्यों और सत्य के विपरीत थीं।

दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि एनआरसी पर कोई चर्चा ही नहीं हुई है। उनके इस दावे का मीडिया ने तुरंत खंडन किया और यह साबित किया कि न केवल बीजेपी के कई नेता इसकी बात करते रहे हैं, बल्कि मोदी की सेना के प्रधान सेनापति अमित शाह ने भी संसद में घोषणा की थी कि पूरे देश में एनआरसी की जाएगी। मोदी ने यह दावा भी किया कि भारत में कहीं भी कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है। यह दावा भी गलत सिद्ध हो गया। देश में कितने डिटेंशन सेंटर चल रहे हैं, इस संबंध में आधिकारिक जानकारी उपलब्ध है। यह भी सबके सामने है कि इस तरह का एक सेंटर कर्नाटक में बनाया जा रहा है और यह भी कि महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के राज्य में डिटेंशन सेंटर बनाए जाने का आदेश रद्द कर दिया है।

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बीजेपी और उसकी सरकार के इन अनावश्यक कदमों के समर्थकों को उम्मीद थी कि केवल मुसलमान ही उनके विरोध में आगे आएंगे। परन्तु संघ परिवार को यह देख कर बहुत धक्का लगा कि सभी धार्मिक समुदायों के सदस्यों, विद्यार्थियों और अधिकांश राजनैतिक दलों, जिनमें एनडीए गठबंधन में शामिल दल जैसे जेडी(यू) और अकाली दल भी शामिल हैं, ने सीएए-एनआरसी का विरोध किया। इससे यह भी जाहिर हुआ कि राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर भी बीजेपी अपने गठबंधन साथियों को विश्वास में नहीं लेती।

जहां मोदी इस विवादास्पद मुद्दे से बच निकलने का रास्ता ढूंढ रहे हैं, वहींं हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रमुख प्रवक्ता आरएसएस मुखिया मोहन भागवत जानबूझकर भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। मुसलमानों को आश्वस्त करने का प्रयास करते हुए उन्होंने कहा कि सभी 130 करोड़ भारतीय हिन्दू हैं। अर्थात हर भारतीय हिन्दू है। यह चाल कामयाब होने वाली नहीं है क्योंकि यह सभी जानते हैं की संघ की राजनीति, हिन्दुओं की पहचान से जुड़े मुद्दों के आसपास घूमती है। इसके अलावा, जैसे कि बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था, देश में जिस हिन्दू धर्म का आज बोलबाला है, उसकी मूल आत्मा ब्राह्मणवाद है।

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क्या ईसाई, मुसलमान, सिक्ख और बौद्ध स्वयं को हिन्दू मानेंगे? यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है। आरआरएस एक ओर हिन्दू पवित्र ग्रंथों पर आधारित हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करने का अभियान चला रहा है, वहीं चुनावी समीकरणों के चलते वह गैर-हिन्दुओं को अलग-अलग तरह के सन्देश भेज रहा है। आरएसएस के नेता यह खेल इसलिए खेल सकते हैं क्योंकि हिन्दू धर्म, पैगम्बर-आधारित धर्म नहीं है। वह भारत की कई धार्मिक परम्पराओं का मिश्रण है। ये परम्पराएं ब्राह्मणवादी भी हैं और श्रमण (नाथ, तंत्र’, भक्ति, शैव इत्यादि) भी। ब्राह्मणवाद, ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ पर आधारित है और जातिगत और लैंगिक पदक्रम का पैरोकार है, वहीं अन्य परम्पराएं समतामूलक हैं।

दरअसल, हिन्दू धर्म की विविधता, हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए हमेशा से एक समस्या रही है। हिन्दू राष्ट्रवादी चिन्तक सावरकर ने हिन्दू को परिभाषित करने का प्रयास करते हुए लिखा था कि हिन्दू वह है, जिसकी जन्मभूमि और पुण्यभूमि, दोनों सिन्धु नदी के पूर्व में हों। उन्होंने हिंदुत्व शब्द भी गढ़ा, जिसे जब-तब हिन्दू धर्म का पर्यायवाची मान लिया जाता है, जो कि सही नहीं है। सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत में हिन्दुओं का दर्जा मुसलमानों और ईसाईयों से ऊंचा है, क्योंकि यह धरती हिन्दुओं की है।

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एक अन्य प्रमुख हिन्दुत्ववादी चिन्तक माधव सदाशिव गोलवलकर जर्मनी की नाजी विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और अल्पसंख्यकों के प्रति हिटलर की नीति के प्रशंसक थे। आरएसएस की शाखाओं और उसके द्वारा संचालित स्कूलों में यह बताया जाता है कि हिन्दू, मुसलमानों और ईसाईयों से उच्च और श्रेष्ठ हैं। यह धारणा धीरे-धीरे, सामूहिक सामाजिक समझ का हिस्सा बन गयी है। आरएसएस बरसों-बरस से अपनी विचारधारा का प्रचार करता आ रहा है और अब हालात ऐसे बन गए हैं कि पहचान से जुड़े मुद्दों को समाज बहुत महत्व देने लगा है और धर्म की दीवारें, ऊंची, और ऊंची होती जा रहीं हैं। जाहिर है कि इससे हमारा बंधुत्व गंभीर खतरे में आ गया है और हमारे समाज की आर्थिक और सामाजिक प्रगति भी बाधित हुई है।

साल 1990 के दशक में जैसे ही बीजेपी सत्ता के नजदीक पहुंचने लगी, उसने सभी भारतीयों को हिन्दू बताना शुरू कर दिया। मुरली मनोहर जोशी, मुसलमानों के लिए अहमदिया हिन्दू और ईसाईयों के लिए क्रिस्टी हिन्दू शब्द प्रयुक्त करते थे। संघ परिवार का तो यह दावा भी है कि सिक्ख धर्म, हिन्दू धर्म का ही हिस्सा है।

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इस तरह दो समान्तर प्रक्रियाएं एक साथ चल रहीं हैं। एक ओर ऐसे कदम उठाए जाए रहे हैं जिनसे मुसलमानों और ईसाईयों को कटघरे में खड़ा किया जा सके। राममंदिर आन्दोलन, गौरक्षा, लव-जिहाद, घरवापसी और राष्ट्रवाद (पुलवामा-बालाकोट) ऐसे ही कुछ मुद्दे हैं। दूसरी ओर, हिन्दू राष्ट्रवाद के सबसे बड़े झंडाबरदार, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, मुसलमानों और ईसाईयों को हिन्दू धर्म की छतरी तले लाने का प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच और इसी तरह के ईसाई संगठन, इन दोनों समुदायों में पहले से ही काम कर रहे हैं।

सभी भारतीयों को हिन्दू बताना, उन्हें बेवकूफ बनाने के अलावा कुछ नहीं है। इसे गैर-हिन्दुओं पर हिन्दू धर्म थोपने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है। इस मुद्दे को देखने का एक और तरीका भी है- और वह है गांधीजी का तरीका जो यह मानते थे सभी धर्म भारतीय हैं। इसके विपरीत संघ सभी धर्मों के लोगों को हिन्दू बताने में लगा हुआ है। लोग इसे किस रूप में लेते हैं यह तो समय ही बताएगा। परन्तु मोदी और भागवत ने जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उससे साफ है कि सीएए-एनआरसी के कड़े विरोध ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है।

(लेख काअंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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