इस सप्ताह (16-23 दिसंबर) का हमारे स्वाधीनता संग्राम के लिए बहुत विशेष महत्त्व है। साल 1927 में इस सप्ताह में एक के बाद एक चार महान स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी हुई थी। यह चार स्वतंत्रता सेनानी थे- राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, राजिन्द्र नाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह। यह चारों क्रांतिकारी उच्च चरित्र और असीम साहस के लिए विख्यात थे और अपनी युवावस्था में ही इन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी।
इन चारों स्वतंत्रता सेनानियों को काकोरी केस (1924) में गिरफ्तार किया गया था। इस केस में स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने कार्यों के लिए एक ट्रेन से कुछ सरकारी खजाना लूटा था। यह कोई ऐसा दोष नहीं था जिसमें फांसी की सजा मिले और वह भी इतने उच्च चरित्र के प्रतिभावान स्वतंत्रता सेनानियों को। लेकिन फिर भी अंग्रेज हुकूमत में इन चारों को फांसी की सजा दी।
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रामप्रसाद बिस्मिल जब क्रांतिकारी बनने का निर्णय ले चुके थे, तो उनकी मां ने उनसे यह वचन लिया था कि वे किसी का जीवन नहीं लेंगे। राम प्रसाद बिस्मिल संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के क्रांतिकारी दल के नेता थे। उनके लिए यह वचन देना कठिन था, पर अपनी मां का वह इतना सम्मान करते थे कि मां का आदेश टाल नहीं सकते थे। अंत में उन्होंने मां को कहा कि वह उनके आदेश को निभाने का पूरा प्रयास करेंगे और उन्होंने यथासंभव यह प्रयास सदा किया।
काकोरी वारदात के समय में भी उनका अपने साथियों को निर्देश था कि किसी निर्दोष व्यक्ति या यात्री पर किसी हाल में गोली नहीं चलेगी। पर गलती से छूटी एक गोली एक व्यक्ति को लग गई थी। इस स्थिति में चार अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देना बहुत अनुचित था और इसके लिए औपनिवेशिक शासकों ने कानूनी प्रक्रियाओं को बुरी तरह तोड़ा-मरोड़ा था। इस केस के कैदियों से जेल में मार-पीट और उत्पीड़न भी बहुत हुआ।
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इस स्थिति में काकोरी केस के क्रान्तिकारियों ने जेल में राजनीतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनशन किया। उस समय यदि उनके समर्थन में बड़ा जन-आंदोलन होता तो उससे देश के स्वतंत्रता संग्राम में एक बड़ी जागृति आ सकती थी। देश के संवेदनशील युवाओं की इन क्रांतिकारी बंदियों से बहुत सहानुभूति थी। सुशीला दीदी बाद में भगतसिंह के दल की सदस्या के रूप में विख्यात हुईं पर उस समय छोटे भाई-बहनों की देखरेख में लगी थीं। उन्हें जो जेवर उनकी मां ने अपनी मौत के समय में दिए थे, उन्होंने वे क्रांतिकारियों के मुकदमे के लिए अर्पित कर दिए।
इसकी पृष्ठभूमि यह है कि चौरी-चौरा की घटना के बाद जब महात्मा गांधी ने अचानक असहयोग आंदोलन रोक दिया तो देश में बहुत निष्क्रियता छा गई थी। इस माहौल में अंग्रेज शासकों ने फूट डालो और शासन करो की नीति को आगे बढ़ाया तथा सांप्रदायिक ताकतें तेजी से आगे बढ़ने लगीं।इस खतरनाक दौर में क्रांतिकारियों ने निष्क्रियता को तोड़ने के लिए कुछ साहसिक कार्यवाहियां कीं। इसके साथ उन्होंने सांप्रदायिक सद्भावना की शानदार मिसाल कायम की जिसका सबसे बड़ा प्रतीक रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला खान की अमर मित्रता बनी। बिस्मिल अशफाक को अपने छोटे भाई की तरह मानने लगे थे।
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एक बार अशफाक बीमार हो गए तो तेज बुखार में ‘राम, राम’ कहने लगे। उनके परिवार के एक वृद्ध सदस्य ने कहा कि इसने तो हिंदू धर्म अपना लिया है। पर तभी परिवार के एक अन्य सदस्य ने सारी स्थिति समझ ली और दौड़ कर रामप्रसाद बिस्मिल को बुला लाए। रामप्रसाद पास आकर बैठे तो अशफाक को चैन आया और उनका ज्वर भी उतरने लगा। तब लोगों को समझ आया कि अशफाक किसे पुकार रहे थे।
अशफाक और बिस्मिल दोनों उच्च श्रेणी के कवि भी थे और उनकी रचनाएं स्वतंत्रता सेनानियों में बहुत समय तक लोकप्रिय बनी रहीं। अशफाक स्वभाव और सोच में बहुत उदार और खुले दिल वाले, शानदार व्यक्तित्व वाले इंसान थे। उनमें प्रखर बुद्धि, सुलझे विचार और असीम साहस का अद्वितीय मिलन था।
अशफाकुल्ला की शहादत के बाद भगतसिंह ने उन पर एक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने लिखा, “यह मस्ताना शायर भी हैरान करने वाली खुशी से फांसी पर चढ़ा। बड़ा सुन्दर और लंबा-चौड़ा जवान था, तगड़ा बहुत था। आपने मुलाकात के समय बताया कि कमजोर होने के कारण गम नहीं, बल्कि खुदा की याद में मस्त रहने की खातिर रोटी बहुत कम खाना है।”
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राजिन्द्र नाथ लाहिड़ी से भगत सिंह इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपने छोटे भाई का नाम उन पर रखा। उनके बारे में भगतसिंह ने लिखा, “आपका स्वभाव बहुत हंसमुख और निर्भय था। आप मौत का मजाक उड़ाते रहते थे।” वहीं, रोशन सिंह पहले किसान आंदोलन से जुड़े रहे और इस संदर्भ में जेल भी जा चुके थे।
आईए देखें कि इन महान स्वतंत्रता सेनानियों ने फांसी से कुछ ही समय पहले राष्ट्र को अपना अंतिम संदेश क्या दिया था। अशफाक ने लिखा, “हिंदुस्तानी भाईयों! आप चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय को मानने वाले हो, देश के काम में साथ दो। व्यर्थ आपस में न लड़ो। .... यह व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े क्यों?”
रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने संदेश में लिखा, “अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हों, हिंदू, मुस्लिम एकता स्थापित करें- यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”
इन अमर स्वतंत्रता सेनानियों के इस अंतिम संदेश को याद रखकर और दिल की गहराई से अपनाकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
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