कोरोना महामारी ने हमें क्या दिया? सोशल डिस्टेन्सिंग, लॉकडाउन, क्वारंटाइन, सैनिटाइजेशन, वैक्सिनेशन वगैरह-वगैरह। इसके अलावा वर्क फ्रॉम होम, संयुक्त राष्ट्र से लेकर क्वॉड और आम आदमी तक की वर्चुअल बैठकें, यार-दोस्तों और परिवारों की जूम मुलाकातें, ऑनलाइन स्कूल, ऑनलाइन पेमेंट, ऑनलाइन फूड, मनोरंजन के ओटीटी प्लेटफॉर्म, ई-कॉमर्स वगैरह-वगैरह। पिछले एक-डेढ़ साल में दुनिया की कार्य-संस्कृति में जमीन- आसमान का फर्क है।
जिंदगी में एक महत्वपूर्ण ट्विस्ट और अर्थशास्त्र-जैसे संजीदा विषय में रोचक मोड़ आया है जिसकी तरफ साप्ताहिक इकोनॉमिस्ट को 23 अक्तूबर के अंक ने ध्यान खींचा है। पत्रिका ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में कहा है कि इस महामारी के दौरान मैक्रो-इकोनॉमिक्स-जैसे भारी-भरकम विषय की जगह एक नए ‘रियल टाइम अर्थशास्त्र’ ने ले ली है। इसे उसने अर्थशास्त्र की ‘तीसरी लहर’ बताया है। महामारी ने डेटा के नए स्रोतों और तुरंत विश्लेषण के दरवाजे खोल दिए हैं जिसके परिणाम आने लगे हैं और अभी और आएंगे।
पत्रिका ने लिखा है कि क्या किसी को समझ में आ रहा है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है? महामारी ने तमाम पर्यवेक्षकों को हैरत में डाल दिया है। शायद ही किसी को उम्मीद थी कि तेल की कीमतें 80 डॉलर पार करेंगी, अमेरिका और चीन के बंदरगाहों में खाली कन्टेनर पोतों की कतारें लगी होंगी। पिछले साल जब कोविड-19 अपने पंख फैला रहा था, अर्थशास्त्रियों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि साल के अंत तक बेरोजगारी कितनी जबर्दस्त होगी। आज कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और किसी को पता नहीं है कि मुद्रास्फीति कहां पहुंचेगी। परंपरागत अर्थशास्त्री अपने पतरे खोले बैठे हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन-सी नीतियां रोजगार बढ़ाएंगी।
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दूसरी तरफ, अर्थशास्त्र में ‘रियलटाइम रिवॉल्यूशन’ है। एमेजॉन से लेकर नेटफ्लिक्स-जैसी बड़ी कंपनियां रियल टाइम डेटा की मदद से फौरन पता कर ले रही हैं कि ग्रोसरी- डिलीवरी की हालत क्या है और कितनी बड़ी संख्या में लोग दक्षिण कोरिया के ड्रामा ‘स्क्विड गेम’ को देख रहे हैं। महामारी की देन है कि देशों की सरकारें और उनके केन्द्रीय बैंक रेस्तरां- बुकिंग और कार्ड-पेमेंट से अर्थव्यवस्था की गति का अनुमान लगा रहे हैं।
हालांकि परिणाम अभी अधकचरे हैं, पर डिजिटल डिवाइसों और सेंसरों ने अर्थव्यवस्था की नब्ज और धड़कनों को ज्यादा साफ और ज्यादा तेजी से सुनने का काम किया है। इससे सरकारी फैसलों में तेजी आई है। पत्रिका के अनुसार, इसे अर्थशास्त्र की तीसरी लहर कह सकते हैं। पहली लहर तब आई थी, जब 1776 में एडम स्मिथ ने ‘वेल्थ ऑफ नेशंस’ प्रकाशित की थी। इसके बाद बीसवीं सदी में मेनार्ड कीन्स ने आर्थिक क्रियाकलाप में सरकार की भूमिका को रेखांकित किया। मिल्टन फ्रीडमैन ने इस विचार को चुनौती दी और कहा कि राजनेताओं ने अर्थव्यवस्था के बाबत जो बहुत से दायित्व अपने हाथ में ले लिए हैं, उन्हें कम करने की जरूरत है। इन तीन भूमिकाओं के बाद शायद अब एक नया दौर शुरू हो रहा है।
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इस बदलाव में केवल डेटा की भूमिका ही नहीं है। सोशल मीडिया पर अर्थशास्त्रियों की टिप्पणियां हाथों-हाथ मिलती हैं। सिद्धांतों का जन्म भी त्वरित गति से हो रहा है। तकनीक-केन्द्रित संस्थाओं के डैशबोर्ड से एक नजर में पता लग जाता है कि संस्था के कामकाज की स्थिति क्या है। एक जमाने में जो जानकारी साल-दो साल बाद सालाना रिपोर्ट से पता लगती थी, वह हाथों-हाथ मिलती है। दुनिया भर में महामारी के डैशबोर्ड काम कर रहे हैं। कितने मरीज नए आए, कितने अस्पतालों से डिस्चार्ज हुए, कितनी मौतें हुईं, कितनी जांच हुई, पॉजिटिविटी दर क्या है, कितनी वैक्सीन लगीं वगैरह। ये डैशबोर्ड ऑनलाइन हैं। अस्पताल में नए मरीज के आते ही जानकारी के ऑनलाइन होने पर डैशबोर्ड बदल जाता है।
सत्तर के दशक में चिली की तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार सल्वाडोर आयेंदे ने प्रोजेक्ट सायबरसिन शुरू किया था जिसमें इस किस्म की सूचनाएं फौरन मिलती थीं। यह प्रणाली कारखानों से लेकर बाजारों तक टेलेक्स के माध्यम से जुड़ती थी। हालांकि यह चली नहीं, पर अर्थव्यवस्था की धड़कनों को रियल-टाइम सुनने की वह पहली कोशिश थी।
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अर्थव्यवस्था की धड़कनों को सुनने के लिए अर्थशास्त्रियों को डेटा की जरूरत हमेशा रही है। बीसवीं सदी में इसकी गति में क्रांतिकारी बदलाव आया। अमेरिका के सकल राष्ट्रीय उत्पाद की जानकारी पाने के लिए 1934 में 13 महीने लगे थे। पचास के दशक में युवा अर्थशास्त्री एलन ग्रीन स्पैन ने इस्पात के उत्पादन का अनुमान लगाने के लिए मालगाड़ियों के यातायात का सहारा लिया। अस्सी के दशक में जब वॉलमार्ट ने सप्लाई चेन प्रबंधन में महारत हासिल की, तब कारोबारियों को त्वरित डेटा के फायदे समझ में आए। पर सरकारी कामकाज की गति धीमी ही रही।
उत्पादकता के आंकड़े सामने आने में वर्षों लगते हैं। उसमें भी बदलाव होते हैं। खराब और विलंबित डेटा के कारण नीतियों में खामियां रह जाती हैं। अमेरिकी फेडरल बैंक ने ब्याज की दरें बजाय दिसंबर, 2008 के 2007 के दिसंबर में जीरो के आसपास कर दी होतीं, तो वित्तीय संकट कमतर होता। भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र और बरबाद बैंकों का डेटा अधकचरा नहीं होता, तो एक दशक की धीमी संवृद्धि का सामना नहीं होता। यूरोपियन सेन्ट्रल बैंक ने मुद्रास्फीति के एक अस्थायी उछाल के बरक्स 2011 में ब्याज की दरों को गलत तरीके से बढ़ाया नहीं होता, तो यूरो-क्षेत्र मंदी की चपेट में नहीं आया होता। बैंक ऑफ इंग्लैंड शायद इन दिनों वही गलती करने जा रहा है।
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पर इसके खतरे भी हैं। नए संकेतकों का जल्दबाजी का विवेचन गलत भी हो सकता है। राजनीतिक नेताओं को गलतफहमियां भी हो सकती हैं कि वे अर्थशास्त्रियों से ज्यादा जानते हैं। समय और दिमाग लगाकर किए गए परंपरागत सर्वेक्षणों का महत्व पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। दूसरा खतरा यह है कि जिन कंपनियों के पास डेटा है, वे उन्हें दबा कर बैठ सकती हैं। दुनिया में डेटा-प्रवाह की बहस है।
इन दिनों विभिन्न देशों की सरकारें वायरस या लॉकडाउन से जुड़े सरकारी डेटा और सर्वे का इंतजार किए बगैर मोबाइल फोनों की ट्रैकिंग, ऑनलाइन पेमेंट और विमान-सेवाओं की उड़ानों के रियलटाइम डेटा की मदद से अर्थव्यवस्था की नब्ज को पढ़ पा रही हैं। हारवर्ड विश्वविद्यालय के राज चेट्टी-जैसे अर्थशास्त्री बिग डेटा पर काम कर रहे हैं। जेपी मॉर्गन चेज ने बैंक बैलेंस और क्रेडिट कार्ड बिल के आधार पर ऐसी त्वरित जानकारी दी है जिससे पता लगता है कि लोग खर्च कर रहे हैं या जमा कर रहे हैं।
मैकेंजी के अनुसार, 2020 में रियल-टाइम भुगतान में 41 फीसदी की वृद्धि हुई। भारत में ऐसे 25.6 अरब ट्रांजेक्शन हुए। डेटा की इस तेजी से नीतियों में तेजी आएगी। फैसले सही, पारदर्शी और नियमबद्ध होंगे।
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