इस समय जब कोरोना वायरस के मामले इतने बढ़ गए हैं कि पूरा भारत ही एक शमशान और कब्रिस्तान में तब्दील हो गया है, नदियों में मछलियों के बदले लाशें तैरने लगी हैं, तब भारत सरकार का पूरा ध्यान कोरोना के नियंत्रण पर नहीं बल्कि इससे से संबंधित समाचारों को दबाने और लोगों की मदद करने वालों को जेल भेजने पर है। दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हाल ही में कोरोना के भारतीय संस्करण बी.1.617 को वैश्विक खतरा करार दिया है, पर भारत सरकार यह प्रसारित करने में लगी है कि डब्ल्यूएचओ की संबंधित 32 पृष्ठ की रिपोर्ट में कहीं भी भारत का जिक्र नहीं है। इसके बाद डब्ल्यूएचओ ने भी यह तो नही कहा की रिपोर्ट में भारत का जिक्र नहीं है, पर इतना कहा कि यह संस्करण सबसे पहले भारत में ही मिला और अब दुनिया के 44 देशों तक पहुंच चुका है, पर डब्ल्यूएचओ किसी देश के नाम से कोविड-19 के नए प्रकार या संस्करण का नामकरण नहीं करता।
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सवाल यह है कि यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि कोविड-19 का नया प्रारूप या संस्करण सबसे पहले भारत में पाया गया तो फिर इससे संबंधित रिपोर्ट में भारत का नाम कैसे नहीं होगा? दूसरी तरफ डब्ल्यूएचओ द्वारा गठित एक स्वतंत्र कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना की दुनिया में विकरालता और तबाही केवल वायरस के कारण नहीं हुई, बल्कि ये दुनिया के शासकों के निकम्मापन और विज्ञान को नकारने की आदत के कारण हुई। इस कमेटी की अध्यक्ष न्यूजीलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क थीं और सदस्य लाइबेरिया के पूर्व राष्ट्रपति एलेन जॉनसन सिर्लेफ थे और इसका काम कोरोना के वैश्विक प्रसार, सरकारों की भूमिका और भविष्य के लिए सुझाव देना था।
इस कमेटी के रिपोर्ट से आसानी से भारत की वर्तमान दुर्दशा के कारणों को समझा जा सकता है। कोरोना से हो चुके बड़े नुकसान को रोका जा सकता था, यदि दुनिया के शासक इस पर समय रहते ध्यान देते। हरेक स्तर पर शासकों की लापरवाही उभरकर सामने आती है। 30 जनवरी 2020 को डब्ल्यूएचओ द्वारा इसे वैश्विक महामारी करार दिए जाने के बाद फरवरी खत्म होने तक निष्क्रिय रहे, इसे नकारने का प्रयास करते रहे, इसके विज्ञान को नकारते रहे, चीन को कोसते रहे– जबकि इस दौरान उन्हें इससे निपटने की तैयारी करनी थी।
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जिन चुनिंदा देशों ने फरवरी के समय को गंवाया नहीं बल्कि कोरोना से निपटने की तैयारी में और जनता को आगाह और जागरूक करने में लगाया, वो देश हमेशा बेहतर स्थिति में रहे। वैश्विक नेतृत्व उस दौर में पूरी तरह नदारद रहा और कोरोना ने दुनिया में असमानता को और बढ़ा दिया। अधिकतर देशों ने कोरोना के सन्दर्भ में तब ध्यान देना शुरू किया जब स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से चरमराने लगी, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वायरस पूरी दुनिया में बेकाबू हो चुका था। केवल शासकों की लापरवाही के चलते दुनिया भर में जिन्दगी और रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया।
रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ को भी कटघरे में खड़ा किया गया है, इसके अनुसार डब्ल्यूएचओ 30 जनवरी के बदले 22 जनवरी को ही इसे वैश्विक महामारी घोषित कर सकता था, पर ऐसा नहीं हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी पता था की एक-एक दिन महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट में कहा गया कि डब्ल्यूएचओ के पास अधिक अधिकार होने चाहिए और वैश्विक महामारी को घोषित करने के लिए किसी देश से अनुमति की जरूरत नहीं होनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ ने पहले की महामारियों से कोई सबक नहीं लिया, जबकि पहले की महामारी पर बनाई गई और बहुत अच्छे सुझाव वाली अनेक रिपोर्ट वहां की लाइब्रेरी में धूल खा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के तहत एक ग्लोबल हेल्थ थ्रेट्स कौंसिल भी बनाना चाहिए।
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रिपोर्ट के अनुसार दुखद यह है कि दुनिया अभी तक कोरोना को हल्के में ले रही है, जिससे मौत के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं। हमारे देश का उदाहरण सबके सामने है। जहां जनवरी 2020 के शुरू में ही देश में कोरोना ने दस्तक दी थी, पर प्रधानमंत्री मोदी ने हरेक खतरे से बेखबर नमस्ते ट्रंप का भव्य आयोजन 24-25 फरवरी को किया। फरवरी में देश में कुछ भी नहीं हुआ, हालांकि प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने कुछ बयानों में दावा किया कि देश को कोई खतरा नहीं है। फिर 6 मार्च से विदेशों से वापस आने वालों की स्क्रीनिंग शुरू की गई और 19 मार्च से आईसीएमआर ने कोरोना की टेस्टिंग शुरू की।
इसके बाद 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री का बयान था कि कोरोना कोई स्वास्थ्य आपातकाल नहीं है और हमें घबराने की कतई जरूरत नहीं है, जबकि 2 मार्च को दिल्ली में भी पहला मामल आ चुका था। 3 मार्च को प्रधानमंत्री ने भी बयान दिया था कि घबराने की कोई जरूरत नहीं है और हम इससे निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। 19 मार्च को पहली बार जनता कर्फ्यू का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री ने सोशल डिस्टेंसिंग का नाम लिया था, और फिर 25 मार्च से पूर्ण लॉकडाउन का ऐलान करते हुए भी प्रधानमंत्री ने पूरी तैयारी के बारे में बताया था।
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वर्ष 2020 के मार्च में कोरोना के कारण अचानक लगे देशव्यापी लॉकडाउन को सरकार ने अपनी महान उपलब्धि बताया है। प्रधानमंत्री जी आज भी गर्व से बताते हैं कि यदि ऐसा नहीं किया होता तो पूरा देश ही कोरोना की चपेट में आ जाता। बिना किसी तैयारी के लगे लॉकडाउन के बाद शहरी श्रमिकों के पैदल अपने गांव वापसी का मंजर पूरी दुनिया ने देखा था। करोड़ों लोग सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा महिलाओं और बच्चों के साथ बिना किसी मदद के ही पूरी कर रहे थे। इसमें सैकड़ों लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। पर, सरकार के लिए इसमें दुखद कुछ नहीं था, और न ही सरकारी लापरवाही थी।
इस वर्ष फिर से वही सब कुछ दोहराया जा रहा है और पूरी दुनिया हमारा मजाक उड़ा रही है। पर, देश के तथाकथित आका चुनाव, कुम्भ, क्रिकेट स्टेडियम में मस्त हैं। मोदी जी के लिए देश के विकास का मतलब सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट रह गया है। लाशों को ढोती मोदी जी की गंगा मां आज यदि उन्हें बुला भी लें तो वे जाएंगे नहीं। भारत के इतिहास के किसी भी दौर में ऐसा शासक नहीं आया जिसका शौक ही नरसंहार है। नोटबंदी में लोग मारे गए, जीएसटी के विरोध में लोग मारे गए, सरकार प्रायोजित दिल्ली दंगों में लोग मारे गए, उत्तर प्रदेश दंगों में लोग मारे गए, नागरिकता कानून का विरोध करते लोग मारे गए, कश्मीर में लोग मारे जा रहे हैं पर कोई सूचना नहीं आती, किसान आन्दोलनकारी मारे गए– वर्ष 2014 के बाद से सरकार के हरेक कदम से लोग मारे गए, पर आज तक एक भी मौत का इस सरकार को कोई भी अफसोस नहीं है और ना ही आंकड़ा है। कोरोना के आंकड़ों के मामले में तो पूरी दुनिया ही भारत के आंकड़े मानने को तैयार नहीं है।
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जाहिर है, कोविड-19 के सन्दर्भ में हमारी सरकार ना तो खुद सजग रही और ना ही जनता को सतर्क किया। अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, साउथ अफ्रीका, रूस और मेक्सिको में भी ऐसा ही हुआ। फर्क इतना सा है कि साउथ अफ्रीका को छोड़कर बाकी सभी देश कुछ महीनों में संभल गए पर भारत आज भी कोरोना वायरस से निपटने के रास्ते के बजाय नरसंहार का रास्ता अपना रहा है और लोकतंत्र में तानाशाही की नई परिभाषा गढ़ रहा है।
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