घर में बंद होने पर भी अब नए मीडिया की मेहरबानी से देश का शेष देश और दुनिया से संपर्क बना रहता है। मीडिया, स्काइप और फोन पर बातचीत से कोविड-19 महामारी की जो ताजा खबरें इस समय आंखों के सामने दिख रही हैं, वे सब मिलजुल कर ज्ञात मानव इतिहास की सबसे बड़ी महामारी की एक अजीब दिल तोड़ने वाली तस्वीर पेश करती हैं। हर महानगर की सड़कों पर बदहवास, बिना गांठ में पैसों के पैदल ही गांव लौटने को आतुर विशाल मानव समूह है जिस पर हर जगह अचकचा देने वाली पुलिसिया बर्बरता बरस रही है।
दूसरी तरफ घरों में बंद मध्यवर्ग है, जिसके प्राण बंद शिक्षा संस्थानों, घरेलू कार्यकर्ताओं और दवाओं की कमी से कंठागत हैं। उनको शांत रखने के लिए सरकारी टीवी पर दशकों पुराना सीरियल ‘रामायण’ दिखाया जा रहा है जो (हाय-हाय) कांग्रेस कालीन डीडी ने बनवाया था। बीच-बीच में रात को चिकने-चुपड़े नेता हाथ जोड़े दूर से दर्शन देते हैं सरकारी टीवी पर। मीठी ओजस्वी बातों का लब्बोलुआब यही है कि जनता को अपने भले के लिए घरों से बाहर आना त्यागना होगा। और इस बीमारी के खिलाफ महाभारत जैसा युद्ध लड़ना होगा।
फिर पर्दे पर सरकारी बाबू लोग अवतरित होते हैं और काठ जैसे मुंह से सरकारी संदेश सुना देते हैं, कि बीमारी दारुण है और इसलिए अनुशासन जरूरी है। यह सब कब तक सामान्य होगा यह वे नहीं बताते, न ही यह, कि माल की आवाजाही का अचानक तोड़ दिया गया चक्र कब और कैसे बहाल किया जाएगा? रबी फसल की कटाई सर पर है, मंडियां और सारी थोक खरीदारी बंद है। राजमार्गों पर पुराने माल से लदे ट्रक खड़े हैं जिनका माल न उतारने वाले हैं, न चढ़ाने वाले। नया माल वे कब उठाने लायक होंगे इस पर भी चुप्पी है।
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अमेरिकी लेखिका सूजन सोनटैग की बात याद आती है कि हर युग में इस दुनिया में 10 प्रतिशत लोग तबीयतन कुटिल, 10 प्रतिशत तबीयतन भले होते हैं। शेष 80 फीसदी लोग थाली के बैंगन की तरह अंत समय एक दूसरे को देख कर तय करते हैं कि किस तरफ लुढ़का जाए। कभी जयशंकर प्रसाद ने लिखा था, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।’ क्षितिज तो दूर, आज की तारीख में बदहवास होकर घर भाग रहे बाहरी राज्यों के कामगारों को संकट की घड़ी में अपने और अपनों के लिए दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, सूरत जैसी महानगरियों में कोई सामान्य सहारा भी नजर नहीं आया।
विडंबना देखिए, ये तमाम महानगर और बड़े-बड़े औद्योगिक उपक्रम, मॉल और खानपान की सुविधाएं इन्हीं कामगारों की मेहनत के बल पर फले फूले हैं, जो गांव से रोजी रोटी की तलाश में महानगरों में आए और यहीं की मलिन बस्तियों में किराए की कोठरियों में बसे हुए थे। घरेलू नौकरानियों, कॉलोनी के चौकीदारों से लेकर छोटे तथा मंझोले उपक्रमों तक के इन मजूरों को अक्सर न्यूनतम वेतन से कहीं कम वेतन दिया जाता रहा है, मैटर्निटी लीव या स्वास्थ्य बीमा, बोनस की तो बात ही क्या? फिर भी गांवों में खेती की जो दशा है, उसकी वजह से वे शहरों को भागे चले आते हैं। यहां उनमें से अधिकतर को ठेकेदारों, उप-ठेकेदारों की लंबी चेन के द्वारा काम पर रखवाया जाता है, जो अपने लिए नियमित वसूली भी करते हैं। पर ये बेजुबान बेसहारा लोग खट- खट कर, कभी उधार लेकर तो कभी दो-तीन काम पकड़कर कमाई का अधिकतर हिस्सा गांवों में अपने परिवारों को भेजते हैं। इनका बेरोजगार होना शहरों को ही पंगु नहीं बनाएगा, वह गांवों को भी दरिद्रता की खाई में धकेल देगा।
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कुछेक लोगों-संगठनों को छोड दें, तो अधिकतर शहरी लोगों के लिए इन लोगों की निजी जिंदगियों की यह काली सचाई अदृश्य, अगोचर है। वे उनके योगदान को अनदेखा करते हुए उनकी अवैध बस्तियों पर सिर्फ लानतें भेजते रहते हैं। चुनावों, डोनाल्ड ट्रंप जैसे बड़े विश्वनेता की यात्रा या अंतरराष्ट्रीय समारोहों से पहले ही अचानक स्लम इलाकों को कुछ समय के लिए ओझल करने पर बात होती है। पर सुधार की नहीं। राष्ट्रीय चुप्पी का यह षड्यंत्र क्यों? महामारी से उबर कर नई व्यवस्था बनाने से पहले हम सबको इस सवाल से तकलीफदेह तरह से निबटना ही होगा।
महानगरीय स्लम बस्तियों में औद्योगिक प्रगति की राह पर चल निकले तमाम विकासशील देशों (चीन, या ब्राज़ील से भारत तथा बांग्लादेश तक) महानगरों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ही बीमारियों तथा अपराधियों से घिरा घिराया नारकीय जिंदगियां नहीं बिताता। अमेरिका, यूरोप में भी अश्वेत सस्ते कामगारों की भी यही हालत है। अचरज नहीं कि महामारी का सबसे बड़ा फैलाव उनकी ही मलिन भीड़भाड़ वाली बस्तियों में हो रहा है।
चार्ल्स डिकेंस ने 1851 में लंदन की गरीब बस्तियों के संदर्भ में इन बस्तियों का चित्रण किया था जहां बेपनाह गंदगी के बीच लोग छोटे-छोटे कमरों में भेड़ों की तरह ठूंस कर रहते थे। पश्चिम में तब औद्योगिक क्रांतिके शुरुआती दिनथे। उन्नीसवीं सदी की इन स्लम बस्तियों ने पश्चिमी दुनिया में लोकल लोगों को अमीर बना दिया। फिर तो लंदन, पेरिस तथा न्यूयॉर्क जैसे शहरों में आर्थिक विषमता, वर्गभेद और मजदूरों का उच्च वर्गों, नौदौलतियों तथा साहूकारों द्वारा निर्मम शोषण स्वीकृत होता गया। इक्कीसवीं सदी में ग्लोबल बाजारों से बेशुमार दौलत आई। अब यूरोप और अमेरिका ने एशियाई- अफ्रीकी देशों की बड़ी आबादी को अपने देशों के सफाई और सेवा के निचली पायदान के कामों के लिए न्योतना शुरू किया। पर वहां जाकर भी वे अक्सर अस्थाई नागरिक की हैसियत से सामान्य नागरिकों से कहीं घटिया जीवन जीते रहे हैं।
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हाल के दिनों में जब मध्यपूर्व और अफ्रीका में युद्ध छिड़े तो ट्रंप के साथ कई अमीर देशों ने रबर की नावों में डूबते, बचते उमड़ते आ रहे बाहरिया लोगों पर प्रतिबंध लगाना शुरू किया। उनको जानवरों की तरह शिविरों में रखकर उनके देश वापिस भेजा जाने लगा।
कोविड इस मायने में कुदरत का एक अजीब सा न्याय है। पहले वह नवधनाढ्य चीन के औद्योगिक महानगर वुहान में उभरा जो बड़ी तादाद में यूरोप, अमेरिका और शेष दुनिया के अमीरों के लिए कठोर कानूनों और सस्ते श्रम की मदद से बहुत सस्ता माल बना रहा था। देखते-देखते इसने चीन की विकास दर आधी कर दी। और अब सारी दुनिया में कोविड ने संक्रमित चीनी माल की मार्फत बंदरगाह या हवाई अडडे से ढोने वाले, घरेलू काम करने वालों से जुड़कर अमीरों के घरों के भीतर घुस कर हमला बोल दिया है।
भारत में भी यह सबसे पहले खाते-पीते देश-विदेश घूमते उच्च वर्ग की मार्फत आया जिसके धंधई या पर्यटन के ठिकाने थाइलैंड से अमेरिका तक फैले हैं। मामूली लोग ही पहले चिकुनगुनिया या चमकी बुखार में मरते थे तो आज कनिका कपूर भी कोविड की शिकार हैं। इंग्लैंड के युवराज, स्पेन की शाही महिलाएं और प्रधानमंत्री, अमेरिका से इटली तक समाज के जाने-माने लोग सब पॉजिटिव पाए जा रहे हैं। हमारे डॉक्टरों को डर है कि सही समय पर संक्रमण की जांच की व्यवस्था न होने और खुद चिकित्सा कर्मियों के लिए बचाव उपकरण न होने से, डाक्टर और नर्स इससे बड़ी तादाद में शिकार हो रहे हैं। और आने वाले समय में शहरों से अचानक गांवों की तरफ हुआ पलायन हर सूबे में शहरों से संक्रमण लेकर आए लोगों के कारण इस महामारी का दायरा बहुत बढ़ा देगा।
जाहिर है कि इन हालात में कोविड की वाजिब रोकथाम किसी सर्वज्ञता का दावा करने वाले महानेता के तुगलकी आदेश से नहीं हो सकती। न ही गोबर और गोमूत्र का छिड़काव या फिर गरीबों पर खतरनाक कीटनाशकों का छिड़काव इसको रोकेगा। इसके लिए चिकित्सा विशेषज्ञों, तकनीशियनों और वैज्ञानिकों की मदद और सलाह चाहिए। यह अच्छा है कि मारुति जैसी कंपनी जीवन रक्षक उपकरण बनाने जा रही है। पर बीमारी की रफ्तार को राजनीतिक दांवपेच को ही जीवन मानने वाले लीडरान में बहुत देर से आई समझ कितना थाम सकेगी कहना कठिन है।
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हमारे केंद्र और राज्यों में विगत 70 सालों में हर दल की सरकार ने शासन किया, पर शहरों को अदृश्य रह कर भी चलाने वाले गरीब कामगारों के लिए साफ पेयजल, नियमित बिजली और सफाई व्यवस्था से युक्त पुनर्वास की व्यवस्था नाम मात्र को हुई। उलटे चुनाव से पहले इन वोट बहुल अवैध बस्तियों को सत्तारूढ़ दल के नेताओं का नाम देकर रातों रात वैध बनाने या गरीबों को पुनर्वास के लिए अन्यत्र मिली जमीन को उनसे डरा धमकाकर सस्ते में खरीदने का एक आपत्तिजनक क्रम शुरू हो गया। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि आगे आने वाले समय में ऐसी विश्व महामारियां कहीं से कभी भी उभर सकती हैं।
अगर भविष्य में हमको उनसे सही तरह से निपटना है, तो सारे देश को मुनाफे के लिए उत्पादन की मानसिकता और संसाधनों के निर्मम दोहन का मोह छोड़ना होगा। और यह तभी संभव होगा जब हमारे उपक्रमी और संगठित क्षेत्र के मध्यवर्गीय लोग अपना हित स्वार्थ साधने को सरकार के तोताचश्म पिछलग्गू न बनें। बहुसंख्यक गरीबों के हितों की चिंता के बिना बनाई गई अमीरी बालू की भीत की तरह ढहती रहेगी। यह सिर्फ नैतिकता का ही नहीं, खुद अमीरों की अपने जिंदगी की सुरक्षा का भी तकाजा है।
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