विचार

कोरोना संकटः लॉकडाउन खत्म हो या चले, इसके अलावा भी सवाल बहुत हैं और पीएमओ से चलने वाली सरकार बहादुर लाजवाब

अब तक कोविड-19 का कोई इलाज नहीं मिला है। अभी भारत में रोग का असर भले धीमा नजर आ रहा हो, लेकिन आगे हालात गंभीर हो सकते हैं। वैसे, यह भी हो सकता है कि हम अभी तक वह सब जानते ही नहीं, जो अभी सिर्फ और सिर्फ सरकार जानती है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

सवाल बहुतेरे हैं। इनके जवाब या तो कहीं से नहीं आ रहे या फिर कहीं से भी आ जा रहे हैं। पहला सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि लॉकडाउन कब तक चलेगा। अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि लंबे समय तक चलने वाले लॉकडाउन से बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था और जीने-खाने की स्थितियां और अधिक भयावह हो जाएंगी। सरकार की दुविधा यह है कि उसे जीवन बचाना चाहिए या किसी तरह आजीविका को बचाना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यही है कि बचाना दोनों को चाहिए।

अगर कोरोना वायरस ने सिर्फ बुजुर्गों को संक्रमित किया होता, तो सरकार के पास विकल्प आसान होता। बिना कहे ही समझ बन जाती कि बुजुर्ग और वैसे लोग जो सामान्य अर्थों में निरर्थक हो चुके हैं, को मरने दिया जाए। भविष्य के लोगों- बच्चों और युवाओं, को क्यों बुजुर्गों की कीमत पर सब कुछ झेलना पड़े? चीन और इटली- दोनों जगह इस बात पर फैसला करना ही पड़ा कि किसे जीना चाहिए और किसे मरने के लिए छोड़ देना चाहिए। बेल्जियम में तो 90 साल की एक महिला ने वेंटिलेटर का उपयोग करने से मना कर दिया और डॉक्टरों से कहा कि इसका उपयोग किसी युवा का जीवन बचाने में किया जाए।

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लेकिन दिक्कत यह है कि वायरस कुछ महीने के बच्चे से लेकर किशोर, युवा और वयस्क- सबको संक्रमित कर रहा है और ऐसे लोगों की मृत्यु भी हो रही है। यह धनी और शक्तिशाली माने जाने वाले लोगों को भी संक्रमित कर रहा है। सीमाएं सील हैं, एयरलाइंस बंद हैं और वैसे भी जाएं तो जाएं कहां वाली हालत है, क्योंकि इस वायरस ने पूरी दुनिया को ही गिरफ्त में ले रखा है, तो धनी-मानी और शक्तिशाली लोग कहीं विदेश में भी पनाह नहीं ले सकते।

अपने यहां नौकरशाह, बिजनेसमेन और राजनीतिज्ञ- तीनों की ही अच्छी-खासी पूछ रही है, लेकिन इन दिनों इन्हें एक-दूसरे से ही नहीं, इनकी सेवा में लगे रहने वाले घरेलू नौकरों, सुरक्षा दस्तों के लोगों और व्यक्तिगत कर्मचारियों से भी संक्रमित हो जाने का खतरा है। इसलिए सरकार के लिए लॉकडाउन की वापसी का फैसला पेचीदा है।

अगर ट्रेन और वायुयान की सेवाएं धीरे-धीरे शुरू भी कर दी जाएं, तो आखिरकार, सोशल डिस्टेन्सिंग कैसे सुनिश्चित किया जाए? इन सेवाओं को थोड़ा-बहुत शुरू किया जाए, तो उनसे लागत खर्च भी कैसे निकाला जा सकेगा? पहले ही हांफ रही सरकार क्या सब्सिडी देकर पब्लिक ट्रांसपोर्ट शुरू भी कर सकेगी?

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सवाल दूसरे भी हैं। लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी क्या नौकरियां रहेंगी? क्या लोगों के वेतन में कटौती करनी होगी? क्या बैंक में जमा धन सुरक्षित है? क्या आने वाले दिनों में लोगों को और अधिक टैक्स देने होंगे? बिजनेसमैन चिंतित हैं कि कर्मचारियों को कैसे सेवा में बनाए रखा जाए या उन्हें कैसे नौकरी से बाहर किया जाए। उत्पादक फैसला नहीं कर सकते कि लॉकडाउन से पहले के स्तर का उत्पादन करना कब तक बुद्धिमानी होगा। कार, स्कूटर, बाइक- जैसी चीजें बना भी ली जाएं तो क्या उन्हें खरीदने वाले लोग होंगे?

जिनके पास बैंक खाते नहीं हैं, जिनके पास कोई जमा-पूंजी नहीं है और अब, जिनके पास खाने-कमाने का कोई साधन नहीं है, वैसे लोग बेचैनी से जानना चाह रहे हैं कि वे अगले शाम का खाना कैसे जुटाएं। लॉकडाउन की घोषणा के बाद अनिश्चित भविष्य की आशंका के मद्देनजर महानगरों के लाखों प्रवासी मजदूर जीवन बचाने के लिए पांव-पैदल ही अपने-अपने गांव भाग गए। उन्हें अपने घरों में किसी तरह दो जून का खाना तो मिल रहा है, पर वे यह जानना चाह रहे हैं कि बेदिल महानगरों में वापसी का खतरा मोल लेना क्या उनके लिए उचित होगा?

वैसे, अब तक हम सब जान गए हैं कि सरकार बहादुर जो कहते हैं और सरकार बहादुर जो करते हैं, उनके बीच कितना अंतर है। सरकार और उसके कर्ताधर्ता अप्रत्याशित, अकारण निर्दयी और निर्मम हो सकते हैं। सरकार लोगों को मूर्ख समझती है; उनसे सही सूचना शेयर करना हेठी मानती है। अब जैसे, सब जानते हैं कि इस वायरस से पिछले तीन माह के दौरान दुनिया भर में 75,000 से अधिक लोगों की मौत हुई है। लेकिन अपनी सरकार कह रही है कि अब तक, यानी 9 अप्रैल तक अपने यहां सिर्फ 170 लोगों की मौत हुई है।

प्रधानमंत्री का कहना है कि समय पर की गई कार्रवाई ने तबाही थाम ली। भारतीय मेडिकल रिसर्च काउंसिल (आईसीएमआर) ने भी आश्वस्त किया है कि अब तक सामुदायिक संक्रमण नहीं हुआ है। फिर भी, ऐसे वक्त में चरमराती सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल उठाना कतई लाजिमी नहीं है! यह भी पूछना उचित नहीं है कि आखिर, कितने लोगों की जांच हो पा रही है!

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फिर भी, यह देखना सुखद है कि माई-बाप सरकार कोविड-19 को लेकर किसी किस्म का खतरा मोल नहीं ले रही है। रेलवे ने कोविड-19 से पीड़ित लोगों को क्वारंटाइन में रखने के लिए कोच अलग कर दिए हैं। पैसेंजर ट्रेन सेवाओं को शुरू करने की जल्दबाजी भी नहीं दिख रही! अन्य छोटे-बड़े शहरों की तरह दिल्ली में भी आम दिनों में सरकारी अस्पतालों में जो भीड़ नजर आती है, वह सबको मालूम है।

फिर भी, सिर्फ दिल्ली में सरकारी अस्पतालों में वायरस पीड़ितों के लिए चार हजार बेड अलग रखे गए हैं। डॉक्टरों के लिए लाखों पर्सनल प्रोटेक्टिव गीयर के ऑर्डर दिए जा चुके हैं। प्रधानमंत्री ने ’व्यक्तिगत’ रिलीफ फंड लॉन्च किया और पीएम केयर्स फंड के लिए राशि इकट्ठा करने के लिए पूरी सरकारी मशीनरी लगा दी। एक सप्ताह से भी कम समय में 10,500 करोड़ जमा हो गए। सरकार की मानें, तो नेहरू-काल में शुरू किए गए प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष से यह दस गुना ज्यादा है।

लेकिन, मौत वगैरह से शायद ही विचलित होने वाली सरकार कोविड-19 को लेकर इस तरह का असंगत कदम क्यों उठा रही है? कठिनाई से जुटाए गए संसाधनों को अब तक कुछ सौ लोगों की मौत के बावजूद कोविड-19 से जूझने के लिए डायवर्ट क्यों किया जा रहा है?

साफ कहें, तो यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि अब तक कोविड-19 का कोई इलाज नहीं मिला है। अभी भारत में रोग का असर भले धीमा नजर आ रहा हो, आगे हालात गंभीर हो सकते हैं। वैसे, यह भी हो सकता है कि हम अभी वह सब नहीं जानते जो अभी सिर्फ सरकार जानती है।

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बिना किसी सूचना ही प्रधानमंत्री ने योजना आयोग को भंग कर दिया और उसके बाद पिछले साढ़े छह साल के दौरान केंद्र और राज्यों के बीच विचार-विमर्श की परंपरा खत्म ही होती गई है। केंद्र ने अधिक वित्तीय शक्ति लगातार हड़प ली हैं और वह शहंशाही और स्वेच्छाचारी तरीके से व्यवहार करने लगा है। एक देश-एक पार्टी-एक सरकार की भावना जबरन बढ़ाई गई और सहयोगी संघवाद की भावना महज जुबानी जमा-खर्च रह गई। लेकिन कोविड-19 संकट ने बताया है कि पीएमओ से देश नहीं चलाया जा सकता।

कोविड-19 क्या बुरे वक्त में अच्छी सीख भी दे रहा है? क्या बहुत अधिक बदनाम कर दिए गए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के दिन बहुरेंगे? इस महामारी ने इससे निबटने में निजी क्षेत्र की सीमाओं को सामने ला दिया है। भले ही निजी क्षेत्र में कई नामी-गिरामी अस्पताल हों, कोविड-19 से प्रभावित लोगों के इलाज का अधिकतर भार सरकारी अस्पतालों पर है। हमें होटलों से अधिक अस्पतालों की जरूरत है। क्या वह समय आ गया है, जब हम हेल्थ सेक्टर और मेडिकल शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दें?

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