दुनिया में सबसे भारी विनाश करने वाले युद्धों पर इलियड, महाभारत और बाद को टॉल्सटॉय का वार एंड पीस ग्रंथ लिखे गए। सबका निष्कर्ष एक ही है | युद्ध भले ही कितने बडे योद्धा लडें, अंत तक जा कर कोई भी महानायक जीते, उसका अंत तबाही में ही होता है। और विजेता महानायक भी विजय से उन्मत्त नहीं हो पाता। वह खुद को एकदम अकेला, मनुष्य हत्या की ग्लानि से भरा और माया मोह के चक्कर में ठगा हुआ ही महसूस करता है।
इस दृष्टि से भारत के आदिकालीन महायुद्ध की सबसे महान कहानी, महाभारत के मूल नाम, ‘जय’ में एक गहरा व्यंग्य छुपा है। जय यानी जीत। पर पांडव क्या सचमुच जीते? वह जीत कितनी पवित्र और आनंददायक थी? शायद बिलकुल नहीं, इसीलिए अंत में पांचों पांडव भाइयों का श्राद्ध तर्पण करने के बाद द्रौपदी के साथ हिमालय की तरफ निकल जाते हैं और वहीं एक एक कर सबका अंत होता है।
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सो कोरोना के सायों के बीच युद्ध की उन्मादक शब्दावली इस्तेमाल कर कहना कि हमको इस रोग या उस राज्य को जैसे भी हो, जीतना ही है, कई नैतिक और वैज्ञानिक सवाल बिन जवाब के छोड जाता है। डाक्टरों का कहना है कि महामारियों का यह सिलसिला जिसे मनुष्य के लालच और पर्यावरण के विनाश ने पैदा कर दिया है, पहली या आखिरी नहीं | इससे पहले सार्स और मर्स भी तबाही मचा चुके हैं और अन चीन से फिर हंता वायरस का आगमन हो रहा है।
सो इस मोड़ पर यह पुछा जाना भी जरूरी है कि युद्ध क्या तमाम समस्यओं का हल है या नये सरदर्द की शुरुआत? बिहार, यूपी, ओडिशा या बंगाल के लाखों दिहाड़ी मजदूर कोरोना के इस युद्ध की बलि चढ गए हैं। वे आज रोजी-रोटी गंवा चुके हैं। पुलिस उनको पीट रही है, नेता उनको गैरजिम्मेदार नागरिक बता रहे हैं। वे जो भूखे पेट रोज-रोटी खो कर गांव वापस लौट रहे हैं, (कई तो बसों रेलों के न चलने से पैदल ही भाग रहे हैं), उनकी निगाहें पूछती हैं कि कैसा युद्ध? किसका युद्ध?
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कृष्ण जब महाभारत रुकवाने आखिरी बार कौरवों के पास गए थे, तो धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होने युद्ध के खिलाफ वह कहा जो उस अहंकारी सभा में कोई नहीं सुनना चाहता था | ‘हे भारत, मैं चाहता हूं कि कौरव पांडव योद्धाओं के नाश बिना शांति हो जाए.. जिस रण में या पांडव मरें या आपके बेटे, उससे आपको क्या सुख मिलेगा? महाराज इस लोक को, प्रजा को बचाइये। मैं दोनो पक्षों का भला चाहता हूं। आप अपने लोभी बेटों को बस में रखें।’
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कुंती के घर जाकर भी कृष्ण ने युद्ध की निस्सारता की बात दुहराई। लेकिन युद्ध हो कर रहा और अंत में वही अवसाद और पछतावा। सदियों बाद चित्तौरगढ़ के विनाश और खिलजी के इस्लाम की खोखली विजय पर उतनी ही करुणा और समझदारी से जायसी ने भी लिखाः
जौहर भईं सब इस्तरी, पुरुख भये संग्राम,
पादसाही गढ चूरा चूरा चितउर भा इसलाम !
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