जे. जयललिता जब तमिलनाडु की मुख्यमंत्री थीं, तो उन्होंने धर्मांतरण को राज्य की मंजूरी का विषय बनाने के लिए एक अध्यादेश पास किया था। मीनाक्षीपुरम और अन्य स्थानों पर दलितों के इस्लाम तथा ईसाई धर्म में धर्मांतरण के मद्देनजर यह अध्यादेश आया था। संघ ने अध्यादेश की एक महान उपलब्धि के रूप में इसकी सराहना की थी। मुझे लगता है कि धर्मांतरण का मुद्दा नरेंद्र मोदी सरकार का अगला बड़ा कदम होगा। खासकर जबसे एनआरसी से बहुत कम हासिल हुआ है, सिवाय गरीबों और निसहाय लोगों को अपनी पहचान साबित करने की महंगी प्रक्रिया में उलझाने के। कश्मीर अब बंद वॉल्व के साथ एक उबलता प्रेशर कुकर है तथा राजनीतिक संकट के लिए आर्थिक संकट एक और कारण है। अब एक और विषयांतर की आवश्यकता है।
संविधान न्याय, स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देता है। इनसे उत्पन्न अधिकारों को स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज होने के लिए मौलिक माना जाता है। इसलिए ये मौलिक अधिकार इस अर्थ में अनुलंघनीय हैं कि इन्हें किसी कानून, अध्यादेश, रिवाज, व्यवहार या प्रशासनिक आदेश से न तो कमतर किया जा सकता या न ही छीना जा सकता है। प्रस्तावना में स्वतंत्रता के बारे में “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा” के रूप में विस्तार से बताया गया है। इसमें अस्पष्टता के लिए बहुत ही कम जगह रह जाती है।
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इसका सीधा अर्थ है कि लोग जो कुछ भी चाहते हैं उस पर विश्वास करने, उस विश्वास में दूसरों को परिवर्तित करने और किसी की आस्था में जिस भी तरह के रिवाजों की जरूरत है उनको करने के लिए स्वतंत्र हैं। सरल शब्दों में कहा जाए, तो लोग ईसाई बनने, ईसाईयत का प्रचार करने और ईसाई धर्म में धर्मांतरण के लिए स्वतंत्र हैं। यही इस्लाम या हिंदू धर्म या सिख धर्म या बौद्ध धर्म के साथ भी है। इसलिए, धर्मांतरण के बारे में बहस करने के लिए बचता क्या है?
यह और बात है कि धर्म जिन्हें हम जानते हैं, उनकी प्रैक्टिस आमतौर पर अतार्किक और आदिम विचारों पर आधारित है। अब धर्म में तर्क की यह गैरमौजूदगी बहुत स्पष्ट रूप से बहस के लिए हमें कारण देती है। साफ है कि विचार और विवेक की स्वतंत्रता और किसी के धर्म को मानना और व्यवहार करना मुद्दा नहीं है। जो मुद्दा हो सकता है, वह है धर्म की आलोचना और उनके मूल आधारों को छानबीन का विषय बनाने पर हमारा मौन। शायद हमारा रक्तरंजित इतिहास और विशेषकर हमारे हालिया अतीत के टकरावों ने हमें आपसी सहिष्णुता से सामंजस्य ढूंढ़ने पर मजबूर कर दिया है। यह बात शायद प्रशंसनीय भी है और समझ में भी आती है।
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फिर भी, अगर उग्रवादी धर्मनिष्ठों की इच्छा, कि उनके सिद्धांत राजनीतिक प्रक्रिया में लागू किए जाएं और दूसरों पर अपने नजरिए को थोपने की उनकी लगातार कोशिश, रूढ़िवादी धर्मनिष्ठता और कट्टरपंथ को चुनौती नहीं देना, हमारी जिम्मेदारियों की तरफ एक बहुत बड़ी लापरवाही होगी। धर्मनिरेपक्ष होने का अर्थ है संशयवादी (स्केप्टिक) होना और इसीलिए विवेकी और तर्कसंगत होना है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह नहीं है कि हम केवल इसलिए चुप रहें कि कहीं हमारे बोलने से हम किसी का अतार्किक गुस्सा और हिंसा न भड़का दें। इसलिए धर्म और कर्मकांड के नाम पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चल रहे रीति-रिवाजों को बिना विरोध, बिना इनकी निंदा किए भय से मानते चले जाएं। यह वास्तव में उन सभी विवेकवान और धर्मनिरपेक्ष लोगों की चुप्पी का परिणाम है कि सभी प्रकार के धार्मिक कट्टरपंथियों ने इतना ऊंचा मुकाम पा लिया है कि वो वहां से हमारे दिमागों के साथ खेल रहे हैं।
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अब जो प्रश्न रह जाता है वह है उकसाने से परिवर्तन। ईसाई मिशनरियों के खिलाफ कहा जाता है कि वे गरीब लोगों को फुसलाकर और पैसा देकर ईसाई बनाते हैं। इसमें सच से ज्यादा झूठ है। अक्सर एक घर, कपड़े, शिक्षा और देखभाल के साथ-साथ स्वीकार करना ही इनका प्रलोभन है। एक पुराने विचारों की पोथी के बदले दूसरे पुराने विचारों की पोथी, जो बहुत अलग भी न हो, कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। साधारण व्यक्ति बहुत व्यवहारिक हो सकता है, जब बात उसकी बेहतरी की आती है।
दोनों ही, हमारा राज्य और मुख्यतः हिंदू समाज बहुसंख्य जनता को जिंदा रहने की मूलभूत सुविधा और अक्सर सभी मनुष्यों के लिए आवश्यक सामान्य शिष्टता तक देने में असफल रहा है। साथ ही हमारे समाज ने बहुत व्यवस्थित तरीके से कमजोर और प्रताड़ित के खिलाफ भेदभाव किया है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के पास एक कारण था जब वह सरकार से यह जानना चाहते थे कि क्या किसी भी दलित या आदिवासी को सुप्रीम कोर्ट तक प्रोन्नत नहीं किया जा सकता?
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अब यहां एक विषय है जो अभी भी बहस की हर काबिलियत रखता है। धर्मांतरण पर बहस का आह्वान अपने आप में ही इस विषय को समाहित करने का विस्तार रखता है। जैसे कि वह इस बहस को कि क्यों लोग आसानी से अपने परंपरागत मान्यताओं को छोड़ रहे हैं, अपना हिस्सा बना लेता है। स्पष्ट है कि बहुसंख्य आबादी को समाज में उनके अधिकारों से व्यवस्थित ढंग से बाहर करने और उनके साथ लगातार भेदभाव बहस का बहुत बड़ा विषय है। अगर सवर्ण हिंदू निचली जाति के लोगों के साथ अपना व्यवहार शिष्ट रखते, तो क्या वे इस तथाकथित हिंदू समाज के सामाजिक उत्पीड़न से भागने का मार्ग ढूंढ़ते।
आज हजार वर्ष से भी अधिक हो चुके हैं जब मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता था। अतः अरबों, ईरानियों, तुर्कों, उज्बेकों, मंगोलों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के लिए मार्ग तैयार हुआ कि वे इस देश पर आक्रामण करें और पूर्ण नहीं तो भागों में इस पर शासन करें। इस प्रक्रिया में हम वो एकमात्र देश बने जो कि एक प्राइवेट कमर्शिलय एंटरप्राइज- द ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भी हरा दिए गए। अब आप इससे कितना नीचे और गिर सकते हैं?
हमारा हजारों वर्षों का शर्मनाक इतिहास स्पष्ट रूप से एक बहस का आह्वान करता है। ऐसी बहस लगभग पूर्ण रूप से अभिजात्य हिंदुओं के राष्ट्र की रक्षा करने में नाकामयाबी, देश को एक करने में और उसके महान संसाधनों को संभालने में असफलता के ऊपर केंद्रित होगी। यह अभी भी कुछ अलग नहीं है। इतिहास द्वारा पढ़ाए गए पाठ अभी भी सीखने हैं। इसलिए हम अपने सामान्य ज्ञान पर बहस करते रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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