भीमा कोरेगांव कांड के नाम पर मोदी सरकार के नेशनल सेक्यूरिटी एजेंसी (एनआईए) ने मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में खड़े लीगों को, जिसमें बहुत बुजुर्ग और अशक्त लोग भी हैं, लम्बे समय से जेल में डाला है। उन्हें आतंकवादी बताया गया और कहा गया कि इन लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचा। इनमें से एक रोना विल्सन के लैपटॉप से ई-मेल भी अचानक बरामद कर लिए गए, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी के हत्या की साजिश रचने की बात कही गई थी। रोना विल्सन शुरू से कहते आ रहे थे कि उन्हें ई-मेल की और संबंधित फाइलों की जानकारी नहीं है और इसे किसी और ने उनके लैपटॉप में डाला है।
इसी साल फरवरी में अमेरिका के मेस्सचुस्सेट्स स्थित प्रतिष्ठित डिजिटल फोरेंसिक कंपनी आर्सेनल कंसल्टिंग ने जांच के बाद पाया कि विल्सन के लैपटॉप में 10 फाइलें मैलवेयर द्वारा डाली गई थीं, इन दस फाइलों में वह बहुचर्चित ई-मेल भी शामिल था, जिसमें एनआईए के अनुसार प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश बात कही गई थी। हालांकि रिपोर्ट के अनुसार इन फाइलों को लैपटॉप में किसने डाला यह पता नहीं किया जा सका है।
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इस समाचार को सबसे पहले अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने उजागर किया था, पर हमारे देश में ऐसी खबरों का क्या हश्र होता है, यह सभी जानते हैं। वाशिंगटन पोस्ट ने 20 अप्रैल को फिर से इस विषय में Further evidence in case against Indian activists accused of terrorism was planted, new report says शीर्षक से खबर प्रकाशित किया है। इस खबर के अनुसार आर्सेनल कंसल्टिंग ने एनआईए कोर्ट में 27 मार्च को अपनी दूसरी रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसके अनुसार पहले की 10 फाइलों के अतिरिक्त 22 दूसरे डॉक्यूमेंट भी रोना विल्सन के लैपटॉप में मैलवेयर के माध्यम से डाले गए थे। रिपोर्ट के अनुसार यह काम किसने किया है, इसका पता नहीं चल पाया है।
इस रिपोर्ट से यह चिंता तो स्वाभाविक है कि मोदी सरकार अपने विरोधियों का दमन करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। मानवाधिकार कार्यकर्ता और कानूनी विशेषज्ञ शुरू से ही इस मुकदमे को मोदी सरकार की साजिश बताते रहे हैं। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार मोदी के भारत में विरोध का दायरा संकुचित हो चला है, विरोध करने वाले पत्रकारों, एक्टिविस्ट और आंदोलकारियों को या तो जेल में ठूंस दिया जाता है या फिर तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है।
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भीमा कोरेगांव के नाम पर अब तक एक शिक्षाविद, एक अधिवक्ता, एक जनकवि, एक जूरिस्ट पादरी और दो गायकों को जेल में डाला गया है, लेकिन तीन साल में भी इस मुकदमे की सुनवाई भी शुरू नहीं की गई है। जेल में बंद सभी मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज के सबसे पिछड़े वर्ग के बीच काम करने के लिए जाने जाते हैं और सरकार की नीतियों के मुखर विरोधी रहे हैं। इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के वकील ने फरवरी में ही आर्सेनल की पहली रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत कर दी थी, पर इस पर सुनवाई अब तक नहीं की गई है।
एनआईए की प्रवक्ता जया रॉय के अनुसार एनआईए को अपनी जांच में मैलवेयर से संबंधित कोई जानकारी नहीं मिली और किसी प्राइवेट कंपनी की जांच के आधार पर हम फिर से जांच नहीं करेंगे। दूसरी तरफ वाशिंगटन पोस्ट ने अपनी तरफ से पहली रिपोर्ट को मैलवेयर और डिजिटल फोरेंसिक के तीन अमेरिकी विशेषज्ञों से और दोनों रिपोर्ट की जांच एक अलग विशेषज्ञ से कराई और हरेक विशेषज्ञ ने इसे सही माना।
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हमारा देश इस दौर में मानवाधिकार हनन के सन्दर्भ में अतुलनीय है। यहां तक कि चीन और रूस भी हमारी तुलना में बहुत पीछे छूट गए हैं। यहां मानवाधिकार कार्यकर्ता सबसे पहले आतंकवादी, माओवादी और देशद्रोही बता कर बिना किसी आरोप या सबूत के ही जेल में डाल दिए जाते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया उन्हें तरह-तरह से अपराधी करार देने की साजिश रचता है।
फिर पुलिस और जांच एजेंसियां उनके खिलाफ आरोपों का आविष्कार फेक विडियो, फेक सीडी, फेक फोन कॉल्स या फिर लैपटॉप में अपनी तरफ से कुछ डाक्यूमेंट्स डाल कर करती हैं। फिर सालों-साल सुनवाई में लगते हैं। इनमें से कुछ आरोपी तो बिना सुनवाई के ही जेल में बंद रहते दम तोड़ देते हैं, शेष अनेक वर्ष बाद सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं। इस न्यू इंडिया में ऐसी लंबी फेहरिस्त है।
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