जैव विविधता संरक्षण आज के समय की जरूरत है। यह तभी स्पष्ट हो गया था जब 1992 में कन्वेंशन ऑफ बायोलॉजिकल डायवर्सिटी को लेकर दुनिया भर में सहमति बनी थी। यह भी स्पष्ट था कि जैव संसाधनों के संरक्षण, विशेष रूप से इसके उपयोग के लिए स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है। उन्हें अपने संसाधनों और ज्ञान के उपयोग से अर्जित लाभ का एक हिस्सा मिलना चाहिए था। इसी के फलस्वरूप 2010 में सथानीय समुदायों के साथ लाभ के निष्पक्ष और समान बंटवारे के लिए ’नागोया प्रोटोकॉल’ नामक एक महत्वपूर्ण समझौते पर सहमति भी बनी थी। 2022 में इस अधिवेशन के 30 साल पूरे हो चुके हैं लेकिन वैश्विक समुदाय अभी भी इस ढांचे को अपडेट करने और उसे वनस्पतियों और जीवों के संरक्षण के लिए फिर से प्रतिबद्ध करने में ही लगा हुआ है।
हम अभी भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जैव विविधता को विलुप्त होने से बचाने और इसे संरक्षित करने वालों को लाभ पहुंचाने के लिए क्या करने की आवश्यकता है। जैव विविधता संरक्षण के लिए कानूनी और प्रशासनिक ढांचे को एक साथ लाने और इस ज्ञान को स्थानीय समुदायों के साथ साझा करने में भारत का एक अनुकरणीय रिकॉर्ड है। लेकिन दुख की बात है कि हम इससे आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
Published: undefined
2002 में भारत ने जैविक विविधता अधिनियम को अपनाया और जैव संसाधनों की रक्षा और पारंपरिक ज्ञान-धारकों के साथ लाभों को साझा करने के लिए एक विस्तृत रूपरेखा तैयार की जिसमें राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण की स्थापना शामिल है। इसके साथ ही प्रत्येक राज्य का अपना जैव विविधता बोर्ड है और प्रत्येक गांव में एक जैव विविधता प्रबंधन समिति (बायो डायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटी अथवा बीएमसी) भी स्थापित की गई है। बीएमसी का मुख्य कार्य लोगों की जैव विविधता रजिस्टर तैयार करना है। इसके अलावा, इसके पास अपने गांव में पाए जाने वाले संसाधनों के निष्कर्षण (इक्स्ट्रैक्शन) के लिए शुल्क और जुर्माना लगाने की शक्तियां भी हैं।
हालांकि, डाउन टू अर्थ के हालिया विश्लेषण से पता चलता है कि समुदायों के साथ लाभ साझा करने का यह प्रयास एक अर्थहीन नौकरशाही अभ्यास में तब्दील होकर रह गया है। हम जानते हैं कि पहुंच और लाभ साझा करने की प्रणाली तभी काम कर सकती है जब ज्ञान-धारकों को मान्यता दी जाए। उनके ज्ञान का उपयोग करने वाले व्यापारियों और निर्माण कंपनियों को भुगतान के लिए उत्तरदायी ठहराया जाए और यह भुगतान समुदाय या ज्ञान-धारकों तक स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन हम पाते हैं कि कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी के पास कंपनियों और व्यापारियों से पहुंच और लाभ साझा करने के लिए प्राप्त धन पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि सभी कंपनियों ने संसाधनों या ज्ञान के उपयोग के लिए किस आधार पर और कितना भुगतान किया है।
Published: undefined
फार्मास्युटिकल उत्पादों के लिए सांप के जहर को इकट्ठा करने की विधि के पारंपरिक ज्ञान धारक- इरुला कोऑपरेटिव के मामले में केवल एक कंपनी भुगतान करने के लिए सहमत हुई लेकिन अंततः उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। फिर जब हमने सूचना के लिए राज्य बोर्डों से संपर्क किया, तो बताया गया कि प्राप्त धन समुदायों को वितरित नहीं किया गया है। कारण यह है कि इन ज्ञान धारकों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। कानून यह प्रावधान करता है कि यदि जानकारी उपलब्ध नहीं है, तो उस क्षेत्र में संरक्षण पर धन खर्च किया जाना चाहिए जहां से ज्ञान-जैव संसाधन आते हैं। लेकिन राज्य बोर्डों ने बताया कि धन का उपयोग नहीं किया गया है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्ययूनल (एनजीटी) के निर्देशों के अनुसार, लोगों के जैव विविधता रजिस्टर तैयार किए गए हैं। ये रजिस्टर जानकारी इकट्ठा करने के लिए बनाए गए हैं ताकि स्थानीय समुदाय लाभान्वित हो पाएं। और इस ‘अभ्यास’ की गति को देखा जाए, तो पता चलता है कि दो वर्षों के भीतर 2,66,135 रजिस्टर बनाए गए हैं लेकिन इन रजिस्टरों की गुणवत्ता खराब है और जैव विविधता के दस्तावेजीकरण के उद्देश्य को विफल करती है।
Published: undefined
हालांकि यह सब तब तक किसी काम का नहीं रहेगा जब तक कि हम यह तय नहीं कर लेते कि वैसे जैव संसाधन जो जंगलों में पाए जाते हैं (सख्त निषेधात्मक नियमों के तहत, जो उनकी खेती, संग्रह या व्यापार की अनुमति नहीं देते) उन्हें उपयोग के माध्यम से संसाधनों के संरक्षण के इन प्रयासों का हिस्सा कैसे बनाया जाएगा। कानी आदिवासियों के प्रसिद्ध मामले में यह घातक दोष था जो एक औषधीय पौधे आरोग्यपचा के उनके ज्ञान से संबंधित था।
जब उनके ज्ञान का उपयोग दवा उत्पाद विकसित करने के लिए किया गया, तो यह सहमति बनी थी कि बिक्री से प्राप्त मुनाफे को आदिवासियों के साथ साझा किया जाएगा। लेकिन फिर सवाल यह था कि पौधे को कैसे एकत्र किया जाए। यह एक जंगली पौधा है जो मुख्यत: वन विभाग द्वारा संरक्षित जंगलों में पाया जाता है। इस पौधे को संकटग्रस्त बताकर कानी आदिवासियों द्वारा इसे इकट्ठा करने अथवा यहां तक कि उगाने पर भी रोक लगा दी गई। यही नहीं, इस पौधे को उगाने और जमा करने के आरोप में कई आदिवासियों पर एफआईआर तक कर दी गई। इस प्रकार समुदायों को लाभ पहुंचाने के लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करने और इसके माध्यम से एक संरक्षण आंदोलन बनाने का उद्देश्य असफल रहा। आज आदिवासियों के जंगलों में जाने पर लगे प्रतिबंध और भी कड़े हो गए हैं।
Published: undefined
इसका मतलब है कि उनकी युवा पीढ़ी अब पौधे की पहचान नहीं कर सकती है। यह अलिखित ज्ञान धीरे-धीरे खोता जा रहा है। इस तरह जैव विविधता नष्ट हो जाएगी। आज जब पूरी दुनिया जैव विविधता संरक्षण के अगले दशक पर चर्चा करने के लिए एकत्र होने वाली है, ऐसे में अतीत से सबक लेना महत्वपूर्ण होगा। हमें न केवल जंगलों और संरक्षित क्षेत्रों में जैव संसाधनों की रक्षा करने की आवश्यकता है, बल्कि स्थानीय और स्वदेशी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए एक जीवंत प्रणाली की भी आवश्यकता है। साथ ही यह भी सुनिश्चचित करना होगा कि लोग संरक्षण के साथ-साथ संसाधनों के उपयोग से लाभान्वित हों। इसके लिए हमें जमीन से जुड़ी आवाजों और अनुभव की जरूरत है ताकि स्मार्ट और सुचिंतित नीतियां बनाई जा सकें। अगर ऐसा नहीं हो पाया, तो ये नीतियां कागजों तक ही सीमित रह जाएंगी।
(साभारः डाउन टू अर्थ फीचर सेवा)
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined