भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत की समृद्धि उसकी विविधता में निहित है। अनेक कवियों और लेखकों ने बताया है कि किस प्रकार दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से विभिन्न संस्कृतियों और नस्लों के लोगों के कारवां इस भूमि पर पहुंचे और उन्होंने मिलजुलकर भारत रूपी बहुरंगी फूलों के गुलदस्ते का निर्माण किया। लोगों के एक साथ जुड़ने की इस प्रक्रिया का चरम बिंदु था स्वाधीनता संग्राम जब विविध धर्मों, जातियों और अलग-अलग भाषाएं बोलने वालों ने कंधे से कंधा मिलाकर भारत को विदेशी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष किया। जिस दौरान देश में परस्पर प्रेम और सद्भाव बढ़ रहा था उसी समय कुछ ऐसी शक्तियां भी उभरीं जिनकी सोच संकीर्ण और साम्प्रदायिक थी और जिन्होंने इस प्रक्रिया को बाधित करने का प्रयास किया। इसी प्रयास का परिणाम था देश का बंटवारा।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद के सालों और दशकों में सामंजस्य और सद्भाव को बढ़ावा देने वाली शक्तियां प्रभावी थीं जबकि विघटनकारी सोच रखने वाले कमजोर और हाशिए पर थे। पिछले चार दशकों में संकीर्ण साम्प्रदायिक ताकतों ने बहुत तेजी से अपना सिर उठाया है। वे भारत की विविधता को, भारत के हम सब का देश होने को, स्वीकार ही नहीं करना चाहते। इस प्रवृत्ति के कुछ उदाहरण पिछले दिनों सामने आए हैं।
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देवबंद के एक छोटे से मामूली मदरसे के मौलाना ने मुस्लिम गायिका फरमानी नाज के खिलाफ फतवा जारी किया। फरमानी नाज का भजन ‘हर हर शंभू' जबरदस्त हिट हुआ है। ये मौलाना साहब टीवी चैनलों की पहली पसंद हैं। अपने प्राईम टाइम में ये चैनल मुर्गों की लड़ाई करवाते हैं, जिन्हें वे बहस कहते हैं। इनके लिए उन्हें दोनों धर्मों के अतिवादी लोगों की जरूरत होती है ताकि वे एक-दूसरे से जमकर लड़ें और चैनलों की टीआरपी बढ़े। इन मौलाना साहब का दारूल उलूम देवबंद, जो कि देश का प्रमुख मदरसा है, से कोई लेना-देना नहीं है। दारूल उलूम फतवा तभी जारी करता है जब कोई उससे किसी मुद्दे पर उसकी राय देने को कहता है। फतवा दरअसल आदेश नहीं बल्कि एक तरह की राय ही होता है।
असद काजमी नाम के ये रूढ़िवादी मौलाना शायद हिन्दू भजन गायकी की लंबी परंपरा से वाकिफ नहीं हैं जो मोहम्मद रफी से लेकर फराज खान तक जाती है। इनमें से कुछ भजनों के संगीत निर्देशक ए. आर. रहमान और नौशाद जैसी असाधारण प्रतिभाएं रही हैं। मुसलमानों द्वारा गाए भजनों की सूची किसी रजिस्टर के कई पन्ने भर देगी परंतु मैं सिर्फ दो उदाहरण देना चाहूंगा। मेरा सबसे पसंदीदा भजन है ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज'। इसके बोल शकील बदायूंनी के थे, संगीत नौशाद का और इसे गाया था मोहम्मद रफी ने। बड़े गुलाम अली खां साहब द्वारा गाए भजन ‘हरि ओम् तत्सत' को भला कौन भूल सकता है। और ना ही यह एकतरफा है। कई हिन्दू गायकों ने कव्वाली गायन को नई ऊचाईयां दी हैं। इनमें शामिल हैं प्रभा भारती और ध्रुव सांगरी।
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कुछ साल पहले इसी तरह के मौलानाओं ने बंगाली फिल्म कलाकार और सांसद नुसरत जहां को दुर्गा पूजा में भाग लेने के लिए जमकर खरी-खोटी सुनाई थी जबकि दुर्गा पूजा बंगाल की संस्कृति का अंग है। सीमा के उस पार पाकिस्तान में एक पुलिस वाले को एक मुस्लिम कॉलेज शिक्षक के बिंदी लगाने पर ऐतराज था। उसका कहना था कि बिंदी हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई है। यह अच्छा हुआ कि वहां की सरकार ने उस पुलिस वाले को मुअत्तिल कर दिया।
सुनियोजित ढंग से यह अफवाहें उड़ाई जाती हैं कि मस्जिदों में हथियार जमा किए जाते हैं जिनका इस्तेमाल साम्प्रदायिक दंगों में होता है। यह भी कहा जाता है कि मस्जिदों में हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। यह बिल्कुल सही नहीं है। उल्टे कई हिन्दू मंदिरों में अन्य धर्मों के लोगों के प्रवेश पर पाबंदी है। जहां तक मस्जिदों का सवाल है, उनमें कोई भी जा सकता है।
उल्टे कुछ स्कूलों ने जब अपने विद्यार्थियों को विभिन्न धर्मों के आराधना स्थलों की यात्रा कराने का निर्णय लिया तब बजरंग दल ने इसका विरोध किया। बड़ौदा के देहली पब्लिक स्कूल ने बच्चों को हमारे देश की धार्मिक विविधिता से रूबरू करवाने के लिए उन्हें एक मस्जिद में ले जाने की घोषणा की। बजरंग दल ने इसका विरोध किया और स्कूल को चेतावनी दी कि अगर बच्चों को मस्जिद ले जाया गया तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। नतीजे में यह कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। इसके एक सप्ताह पहले विद्यार्थियों को एक मंदिर में ले जाया गया था। इसी तरह की घटनाएं दिल्ली और कर्नाटक में भी हुईं।
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हमारी सांझा संस्कृति पर ये हमले और तेज, और कटु होते जा रहे हैं। ध्रुवीकरण की राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका एक उदाहरण हाल में सामने आया जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई, आवश्यक वस्तुओं पर जीएसटी लगाए जाने और आम नागरिकों को पेश आ रही अन्य दिक्कतों के संदर्भ में संसद से राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया। प्रदर्शनकारी काले रंग के कपड़े पहने हुए थे।
अपने चरित्र के अनुरूप बीजेपी ने इस प्रदर्शन का इस्तेमाल भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया। पार्टी के शीर्ष नेता और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस, राम मंदिर का विरोध कर रही है! इसका कारण उन्होंने यह बताया कि कांग्रेस ने काले कपड़ों में प्रदर्शन करने के लिए वह दिन (5 अगस्त) चुना जिस दिन दो साल पहले प्रधानमंत्री ने राम मंदिर के निर्माण कार्य का उद्घाटन किया था। शाह का कहना था कि यह प्रदर्शन कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति का हिस्सा है। इससे एक कदम आगे बढ़कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह मांग की कि कांग्रेस को राम भक्तों का अपमान करने के लिए देश से माफी मांगनी चाहिए।
कांग्रेस ने शाह-योगी पर जवाबी हमला बोलते हुए कहा कि वे दरअसल एक प्रजातांत्रिक विरोध प्रदर्शन, जो महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दे को लेकर किया गया था, से लोगों का ध्यान हटाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं और समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करना चाहते हैं। जनता की बढ़ती तकलीफों की ओर देश और सरकार का ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है।
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इस विरोध प्रदर्शन को राम मंदिर और तुष्टिकरण से जोड़कर बीजेपी ने वही किया जो वह बरसों से करती आई है- अर्थात हर चीज को धर्म से जोड़ो, हर मुद्दे को भावनात्मक बना दो और अलग-अलग धर्मों के लोगों में ज्यादा से ज्यादा गलतफहमियां पैदा करो। क्या अन्य पार्टियां और सामाजिक समूह हर मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने के बीजेपी के प्रयास का मुकाबला कर सकेंगे? क्या प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति और समूह लोगों का ध्यान मूलभूत मुद्दों से भटकाने की कुटिल कवायद से निपटने का रास्ता ढूंढ पाएंगे?
बीजेपी अपने समर्थक संगठनों के विशाल नेटवर्क और सरकार के आगे नतमस्तक मीडिया के जरिए उस एजेंडे को प्रोत्साहन दे रही है जिसमें लोगों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है। लक्ष्य केवल यह है कि आमजनों को धार्मिक और भावनात्मक मुद्दों में उलझाए रखा जाए।
भारत की सांझा संस्कृति पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। आम लोगों की जिंदगी दूभर होती जा रही है परंतु उनकी समस्याओं से ध्यान हटाने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। प्रजातंत्र में लोगों की समस्याएं सर्वोपरि होनी चाहिए। हमें एक सच्चे प्रजातंत्र के निर्माण के लिए सतत प्रयासरत रहना चाहिए।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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