भारतीय साहित्य में जिस तरह हर दशक में जब लेखन बदलता है, तो ‘क्या उपन्यास मर रहा है?’ नुमा सवाल उठता है, उसी तरह राजनीति में भी जब कभी कांग्रेस कमजोर पड़ने पर खुद अपनी पुनर्रचना को उठ खड़ी होती है, तो विपक्ष द्वारा कांग्रेस की आसन्न मौत की घोषणा कर दी जाती है। यह बात और है कि इंदिरा जी से लेकर अभी तक कांग्रेस का अंत चंद विपक्षियों का हसीन सपना ही साबित हुआ है। पिछली सदी के शुरुआती दशकों में नवजीवन (जिसे बाद को हरिजन सेवक और फिर नवजीवन का नाम मिला) का सबसे लोकप्रिय कॉलम था प्रश्नोत्तर। इसमें गांधी जी खुद पाठकों के हर तरह के सवालों के जवाब देते थे। एक पाठक को अपने पूर्ण स्वराज के नारे की बाबत जो जवाब उन्होंने दिया था, वही आज भी कांग्रेस द्वारा अलोकतांत्रिक तत्वों के चंगुल से भारतीय संविधान और लोकतंत्र को मुक्त करा के भारत की जनता को दोबारा सौंपने के संकल्प पर भी फिट बैठता है। ‘... पूर्णस्वराज पाना कठिन है और सरल भी। ...स्वराज्य के लिए केवल हृदय परिवर्तन आवश्यक है क्योंकि स्वराज्य हमारी जन्मसिद्ध संपत्ति है।’
कांग्रेस के चिंतन शिविर से भी लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच खो गए जुड़ाव को फिर बहाल करना कांग्रेस को जरूरी लग रहा है। कांग्रेस अध्यक्षा की स्वीकारोक्ति से कि हां, पार्टी का जनता से तार टूटा हुआ है, नेताओं को बिना पद के लाभ-लोभ या चुनावी आकांक्षा के भारत की निरंतर यात्राओं को प्रोत्साहित करना तर्कसंगत है। पहले भी जब कांग्रेस दुधमुंहा बच्चा थी, गांधी जी ने जिन यात्राओं से जनता से दल को जोड़ा था, उनमें 1917 की चंपारण यात्रा और 1930 की दांडी यात्रा (जिसका एक उपहासजनक पुनर्मंचन हमने हाल में देखा) का महत्व अभी समझा जाना है।
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गांधी के बाद उनके दो शिष्यों- विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण ने यात्राएं कीं जरूर लेकिन कांग्रेस से अलग हो कर। कांग्रेस के नेताओं ने यह नहीं किया। उनकी भागदौड़ जो भी थी, धीमे-धीमे पार्टी नेतृत्व की गणेश परिक्रमा में ही सिमटती चली गई। इसने पार्टी ही नहीं, नेतृत्व की छवि को भी बहुत गहरा नुकसान पहुंचाया है। फिर भी कांग्रेस नेतृत ने सत्ता में हर वापसी के बाद नए विचारों के बीज बिखेरे। उनसे लोकतंत्र, संविधान के हर नागरिक को दिए बुनियादी अधिकारों और सामाजिक बराबरी के आदर्शों को लेकर मतदाता जागरूक हुए और संवैधानिक समावेशी लोकतंत्र के पक्ष में देश भर में एक जबर्दस्त माहौल बना।
पिछले दशकों में जब-जब कांग्रेस नेतृत्व शिथिल दिखा, तो विपक्षी दलों ने इन विचारों- समता, सामाजिक न्याय और धार्मिक सद्भावना की जरूरत, सबको अपने हित स्वार्थों के तहत टुकड़े-टुकड़े दुहा। मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू करने के पीछे कहीं-न-कहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री को मिल रही राजनीतिक चुनौती भी एक बड़ी फौरी वजह रही। इसी तरह सब तरह के दलितों के उत्थान की बजाय पिछड़ों के आरक्षण से विमोचित चुनौती का विशुद्ध राजनीतिक फायदा लेने के लिए दलित वोट बैंक भी बना। उससे एकाधिक बार क्षेत्रीय ताज पहनने वालों के शासन काल में राज समाज और भी जातिवादी, धर्मवादी, हिन्दी परस्त बहुसंख्यवादी बन गया। फिर जब भाजपा की युद्ध मशीनरी ने इस परिदृश्य में अपने प्रखर, मुखर नेता सहित कदम रखा, तो जातिवाद, प्रतिगामी धार्मिक बहुसंख्यवाद जो पहले गुजरात तक सीमित था, धीमे-धीमे उत्तर भारत और फिर सारे भारत की नियति बनता चला गया।
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आज मौजूदा सरकारी कार्यप्रणाली के खिलाफ अविश्वास भले ही कोविड की तरह फैल रहा है, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर राज्यों के चुनावी नतीजे दिखा रहे हैं कि जनता को कोई विपक्षी दल भरोसेमंद नहीं दिखा। नतीजतन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जब भाजपा सरकार दोबारा बहुमत से शासन में कायम हुई और पंजाब में आम आदमी पार्टी को कमान मिल गई, तो इन सब राज्यों में कांग्रेस की पारंपरिक पकड़ और कम हो गई। विडंबना यह कि खुद भाजपा के बड़े नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस के अलावा और कोई विपक्षी दल स्वस्थ प्रतिस्पर्धी नहीं बन सकता। एनडीए क्षेत्रों में उभरते क्षेत्रीय नेताओं से सशंक है और स्टालिन या मान या उद्धव ठाकरे सरीखे मुंहफट और उनकी ही तरह राजकीय मशीनरी से बदला लेने को तत्पर दुराग्रही के हाथों कमान नहीं देखना चाहती।
उदयपुर सम्मेलन के विमर्श के बाद कांग्रेस के पास इस स्थिति के लिए क्या काट है? राहुल गांधी का कहना है कि पार्टी का जनता से इस बीच जो रिश्ता टूटा है, उसे फिर कायम करने के लिए अक्तूबर से यात्राओं का सिलसिला शुरू होगा और किसानों-मजदूरों के हक के लिए सत्ता से लड़ी जानेवाली लड़ाई में वह खुद आम कार्यकर्ताओं के साथ शामिल रहेंगे। कांग्रेस का पिछले चालीस सालों का इतिहास बिल्कुल अगली कुर्सी पर किसी को देखने को मिला है, तो वह राहुल गांधी हैं। न सिर्फ उन्होंने तमाम नाटकीय नेतृत्व बदलाव देखे, पिछले बीस दशकों में वे राजनीति के ग्रीन रूम में खुद भी कई बार मौजूद रहे हैं।
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तमाम विश्वनेताओं से उनका परिचय है, प्रधानमंत्रित्वकाल में इंदिरा जी या राजीव जी ने जो फैसले लिए, उनकी गहरी भीतरी जानकारी भी उनको अभिमन्यु की तरह अपनी माता से मिल चुकी है। फिर भी गोदी मीडिया और कभी-कभार गैर गोदी मीडिया में वह जटिल भारतीय राजनीति के लिए बहुत नए, आवेशी और अनुभवहीन बताए माने जा रहे हैं। इस छवि को उनको खुद ही सुधारना होगा। जिस तरह साम, दाम, दंड, भेद द्वारा मुख्यधारा मीडिया में उनकी और सोनिया जी की जनसभाओं या रैलियों को सायास मिटाया गया, फिर कई बार आंशिक तौर से दिखा कर अर्थ का अनर्थ बनाया गया, उस सबसे भारतीय जनमानस पर उनकी छाप काफी कुछ फीकी, दूर और अपरिचित बन गई है। फिर भी यह बात सही है कि भारतीय लोकतंत्र दो चीजों पर इतने दिन टिका रहा- एक जनता के दिल में अखिल भारतीयता के प्रति सम्मान और बंटवारे का गहरा डर, और दो, हर आयु, जाति, धर्म और वर्ग के नागरिक को तरक्की का मौका पाने की उम्मीद।
यहां राहुल में कुछ खूबियां हैं जिसका वह अपनी भारत यात्रा में भरपूर और बिना अत्यधिक विनम्र हुए इस्तेमाल कर सकते हैं। एक, वह गुरु गंभीर धवलकेशा सत्तापक्ष के बरक्स एक आधुनिक वैज्ञानिक सोचवाली, साफगो और हंसमुख पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बात कांग्रेस की तरफ नया खून आकर्षित करने में उनकी मदद करेगी। दूसरे, खुद उन पर किसी तरह के भ्रष्टाचार या टीमटाम भरा राजसी जीवन जीने का धब्बा नहीं है, हालांकि उनको लगातार एक अय्याश, रणछोड़ जी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई जबकि आठ सालों में सत्ता पक्ष कई जगह अपनी कार्यशैली या जीवन शैली में खुद इसकी मिसाल बन कर टीवी पर दिखता रहा है।
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