छत्तीसगढ़ के रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें पूर्ण अधिवेशन से पहले हमने चंद बुद्धिजीवियों-विचारकों से पूछा कि उन्हें आने वाला समय कैसा दिखता है और मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर कांग्रेस को क्या करना चाहिए। हमने कुछ चुनिंदा सवाल उनके सामने रखे। इन सवालों पर राजनीतिक विश्लेषक राजू पारुलेकर का क्या कहना है, आइए जानते हैं:
सवाल - 'भारत जोड़ो यात्रा’ से कांग्रेस को कुछ मजबूती जरूर मिली है। अब सवाल यह उठता है कि इस सकारात्मक घटनाक्रम की बुनियाद पर वह एक बुलंद इमारत कैसे बना सकती है?
राजनीति में नजरिया बहुत अहम होता है। आप वास्तव में क्या करते हैं, इससे कहीं ज्यादा अहम होता है कि आप क्या करते दिखते हैं। अतिसक्रियता का आभास देने में भाजपा का प्रचार तंत्र माहिर है। वे फिल्मस्टार, खिलाड़ी, कॉमेडियन, अन्य प्रभावित करने वाले, यहां तक कि सद्गुरु जैसे धर्मगुरुओं का इस्तेमाल लोगों का दिल जीतने और तठस्थ लोगों को अपनी ओर करने के लिए करते हैं। जिसे खरीदा जा सकता है, उसे खरीद लिया जाता है और एक पूरी सेना संकेत मिलते ही एक ही मैसेज पोस्ट करती है। इस तरह एक लहर-सी पैदा की जाती है। हैरानी नहीं कि बीजेपी ‘स्क्रीन की लड़ाई’ में आगे दिख रही है जहां आज यकीनन राय बनाई जाती है। कांग्रेस को अच्छी तरह से वित्त पोषित पीआर शाखा की जरूरत है क्योंकि वह प्रचार की अहमियत को नजरअंदाज नहीं कर सकती। इसे ऐसे चेहरों, खासकर युवा, की जरूरत है जो उस भाषा में बोलते हैं जिसे लोग समझते हैं। यह याद रखना चाहिए कि दिखावा बहुत मायने रखता है।
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सवाल- पार्टी का भला चाहने वाले तमाम आलोचक कहते हैं कि पार्टी में संगठन के स्तर पर नई जान फूंकने की जरूरत है। यह कैसे हो?
भारत एक युवा देश है और कांग्रेस बुजुर्गों की पार्टी की तरह दिखने का जोखिम नहीं उठा सकती। बुजुर्गों को अक्सर रूढ़िवादी, सामंतवादी, हुक्म चलाने वाले और वास्तविकताओं से परे समझा जाता है। डायनासोर न बनने के लिए पार्टी को हरसंभव प्रयास करना चाहिए। युवाओं को आवाज देना और उनके विचारों पर ध्यान देना ही आगे बढ़ने का रास्ता है। बड़ी तादाद में युवा कट्टरपंथी बन गए हैं। वे इतिहास से अनजान दिखते हैं और वे हमारी राजनीति में आए आमूल-चूल बदलावों को समझ नहीं पाते हैं। अगर उन्हें सकारात्मक दिशा नहीं दिखाई जाए तो वे गलत रास्ते पर निकल जाएंगे। युवाओं को सशक्त महसूस कराने की जरूरत है और उनके विचारों और आदर्शवाद पर भरोसा किया जाना चाहिए क्योंकि कल का भारत उन्हीं का है।
इसके अलावा यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि बिल्कुल जमीनी पार्टी कार्यकर्ताओं की बातों को भी सुना जाए और नेताओं तक उनकी पहुंच हो; संवाद के इन चैनलों को खोलना चाहिए।
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सवाल - 2024 के आम चुनावों के लिए विपक्ष एकजुट हो रहा है? क्या कांग्रेस ऐसी विपक्षी एकजुटता के केन्द्र में हो सकती है?
इस मोड़ पर, भाजपा सरकार को हटाना और फासीवाद के मंडराते खतरे को खत्म करना ज्यादा जरूरी है। कांग्रेस निस्संदेह एक राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन वह कमजोर हो गई है और भाजपा को हटाने के लिए इसे दूसरे दलों की जरूरत है। एक साझा दुश्मन के खिलाफ एकजुट होने के लिए, यदि जरूरी हो तो कांग्रेस को अपनी केन्द्रीय स्थिति को छोड़ने के लिए भी तैयार होना होगा। कांग्रेस विपक्ष के लिए केन्द्रीय भूमिका में होगी लेकिन तभी जब वह अपनी ओर से ऐसा दावा पेश नहीं करती।
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सवाल - बीजेपी के विभाजनकारी एजेंडे का कांग्रेस कैसे मुकाबले करे?
यह एक उबड़-खाबड़ मैदान पर लड़ी जा रही असमान राजनीतिक लड़ाई है जिसमें प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी किसी भी गंदे तरीके को अपनाने से परहेज नहीं कर रहा। ऐसे विरोधियों से वाजिब तरीकों से नहीं लड़ा जा सकता। नरसंहार के लिए कोई क्षमा नहीं हो सकती, फासीवादियों के साथ कोई कूटनीतिक संबंध नहीं हो सकता। अगर खेल का मैदान एक समान नहीं है तो उसपर सही तरीकों से खेलने का विकल्प आपके पास नहीं होता। आज के युद्ध के मैदान में विकल्प सीमित हैं। नफरत की तरह हाथों-हाथ कुछ भी नहीं बिकता। वास्तविक मुद्दे, राष्ट्रीय एकता, पुनर्निर्माण बेकार की बातें लगती हैं। कांग्रेस को भी आगे आना चाहिए और वामपंथी झुकाव वाले, समाज के उदार वर्गों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और फिल्म निर्माताओं को अपने खेमे में शामिल करना चाहिए। दुष्प्रचार का मुकाबला करना मुश्किल जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं। अगर आपका प्लेटफॉर्म काम नहीं कर रहा है तो किसी और के प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करें। अमेरिका में डेमोक्रेट्स ने हमेशा रिपब्लिकन के खिलाफ ऐसा ही किया है और यह कारगर भी रहा है।
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सवाल - क्या कल्याणवादी होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी होना संभव है? देश के लिए कांग्रेस का वैकल्पिक एजेंडा क्या होना चाहिए?
कांग्रेस की मानसिकता हमेशा कल्याणकारी झुकाव वाली रही है। आजादी से पहले भी यह पार्टी की सोच में प्रभावी धारा रही और पार्टी को इसके लिए अफसोस जताने या रक्षात्मक होने की कतई जरूरत नहीं है। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को फिर से जिंदा करने, लोगों के रोजमर्रा के जीवन और आजीविका पर असर डालने वाले बुनियादी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने, एक मजबूत फासीवादी विरोधी रुख और सभी तरह के संस्थागत भेदभाव के खिलाफ पूरी शिद्दत के साथ लड़ाई को केंद्र में रखते हुए रणनीति तैयार करनी चाहिए।
(राजू पारलेकर लेखक, ब्लॉगर, कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
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