पंजाब में पिछले सप्ताह राजनीतिक उथल-पुथल रही जिसके नतीजे में कैप्टन अमरिंदर सिंह सत्ता से बाहर हो गए और चरणजीत सिंह चन्नी राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। इस प्रकार पंजाब को कांग्रेस ने पहले दलित मुख्यमंत्री का तोहफा दिया। कांग्रेस आलाकमान की इस तुरुप की चाल से स्वयं पार्टी के भीतर एवं बाहर सब आश्चर्यचकित रह गए। क्योंकि पंजाब की यह राजनीतिक रीत रही है कि वहां जट सिख ही मुख्यमंत्री बनता है। परंतु कांग्रेस ने इस रीत को एक दलित मुख्यमंत्री बनाकर न केवल बदल दिया बल्कि एक बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन का पैगाम भी दे दिया। पंजाब में कांग्रेस आलाकमान ने जो फैसला किया, उससे दो बातें अब स्पष्ट हो गई हैं। सबसे पहली बात जो उभरकर सामने आई है, वह यह है कि कांग्रेस पार्टी पर राहुल गांधी की पकड़ अब पूरी तरह मजबूत हो चुकी है। क्योंकि पंजाब में जो परिवर्तन हुआ है, उस पर राहुल गांधी की छाप स्पष्ट है। अतः पंजाब का पहला संदेश यही है कि राहुल ही कांग्रेस का भविष्य हैं। और यह बात जिसको मंजूर नहीं, वह फैसला कर ले कि वह क्या चाहता है।
कांग्रेस का यह फैसला केवल पार्टी ही नहीं, देश की विपक्ष की राजनीति के हित में भी एक बड़ा फैसला है। क्योंकि कांग्रेस के बिना देश की विपक्ष की राजनीति एक सही दिशा नहीं ले सकती है। अतः जब कांग्रेस में मुद्दों को लेकर स्पष्टता होगी तो विपक्षी को भी एक सीधा रास्ता दिखेगा। देश के हित में यही है कि कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर स्पष्टता हो। इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद से पार्टी ने नेतृत्व को लेकर चर्चाएं आम रहीं। लेकिन पंजाब को लेकर राहुल गांधी ने जिस तरह कदम उठाया है, उससे स्पष्ट है कि अब पार्टी की कमान किसके हाथों में है। इससे यह संकेत भी मिलता है कि पार्टी अध्यक्ष का फैसला भी जल्द हो ही जाएगा और फिर पार्टी विपक्ष का नेतृत्व करते हुए कमर कसकर मोदी के खिलाफ पूरी शक्ति से मैदान में उतरेगी।
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पंजाब को पहली बार एक दलित मुख्यमंत्री देकर कांग्रेस पार्टी ने एक और बड़ा संकेत दिया है। कांग्रेस अब सामाजिक राजनीति के लिए तैयार है। दरअसल सन 1990 में वीपी सिंह की मंडल राजनीति के बाद से ही कांग्रेस जाति के मुद्दे पर राजनीति करने से हिचकिचाती रही। लगभग पिछले तीन दशकों में कांग्रेस ने जातिवाद की राजनीति से परहेज किया, और मंडल राजनीति के इस प्रभाव से उसे राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा। वहीं मंडल और कमंडल की राजनीति करने वाली पार्टियों का वर्चस्व बढ़ता चला गया। कांग्रेस के हाथों से केवल बिहार और उत्तर प्रदेश–जैसे प्रमुख राज्य ही नहीं निकल गए बल्कि उसके हाथों से पचास प्रतिशत से अधिक पिछड़ों के बड़े वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा भी दूर हो गया। इस सबके बीच कमंडल की राजनीति कर बीजेपी बड़ी चतुराई से पिछड़ों के वोट बैंक के एक बड़े हिस्से पर भी कब्जा जमाकर देश की सत्ता पर कब्जा जमा लिया। पंजाब के इतिहास में एक दलित मुख्यमंत्री देकर राहुल गांधी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी नई सामाजिक परिस्थितियों को समझते हुए अब देश में नई सामाजिक राजनीति के लिए तैयार है। और, ऐसा होना मौजूदा परिस्थितियों में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस और देश, दोनों के हित में है।
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तालिबान एक सिरदर्द ही नहीं बल्कि मुस्लिम समाज के लिए एक कलंक भी है। भला इस इक्कीसवीं सदी में कोई भी समाज महिलाओं को घर की चारदीवारी में बंद करके प्रगति की कल्पना कर सकता है! फिर तालिबान तो महिलाओं को किसी भी प्रकार की आधुनिक शिक्षा देने को ही तैयार नहीं है। और वह भी इस्लाम के नाम पर! वह इस्लाम जिसने संसार को महिला अधिकारों का पहली बार ज्ञान ही नहीं दिया बल्कि महिलाओं को धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक क्षेत्रों में पहली बार लगभग बराबर के अधिकार देकर एक सामाजिक क्रांति भी उत्पन्न कर दी थी। हजरत मोहम्मद (सअ0) से अल्लाह ने कुरान का जो पहला सूरा पढ़वाया, उसमें कहा गया, ‘पढ़ो! और ज्ञान पढ़ने-लिखने से ही प्राप्त होता है।’ और यह उपदेश औरत-मर्द- दोनों को कुरान ने दिया। इधर, तालिबान कहता है कि औरत पढ़ नहीं सकती है। फिर मदीने में मोहम्मद (सअ0) की मस्जिद में औरत-मर्द साथ नमाज पढ़ते थे। आज भी हज के अवसर पर काबे में औरत-मर्द साथ नमाज पढ़ते हैं। फिर कुरान ने औरत को खुला, अर्थात तलाक का अधिकार दिया। केवल इतना ही नहीं, वहीं कुरान ने औरत को पिता और पति की संपत्ति में हिस्सा देकर उसको आर्थिक आजादी का रास्ता भी दिखाया। परंतु तालिबान का इस्लाम औरतों के हर अधिकार को नकार कर स्वयं कुरान और हजरत मोहम्मद (सअ0) के बताए रास्ते को ही नकारता है।
फिर भी मुस्लिम समाज के एक तबके में तालिबान आज सम्मानित है। ऐसा क्यों?
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मेरी अपनी राय में, इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि हजरत मोहम्मद (सअ0) और पहले के चार खलीफाओं के बाद मुस्लिम समाज हजरत मोहम्मद (सअ0) एवं कुरान के आदर्शों से भटक कर साम्राज्य निर्माण में डूब गया। और मध्यकालीन दौर में मुस्लिम समाज एक वैश्विक ताकत बन कर उभरा। बगदाद अथवा तुर्की की खिलाफत का अपने समय में वही जलवा था जो आज वाशिंगटन या अमेरिका का है। परंतु इस सत्ता की होड़ में मुस्लिम समाज पर जमींदाराना (सामंतवादी) मूल्यों वाली मानसिकता की छाप पड़ती रही। इसके फलस्वरूप मुस्लिम समाज पुरुष प्रधान होता चला गया जिसने औरतों को चारदीवारी के पीछे धकेल दिया। तालिबान उसी पुरुष प्रधान मानसिकता का सबसे बिगड़ा स्वरूप है जो स्वयं इस्लामी मूल्यों के खिलाफ है। क्योंकि मुस्लिम समाज पर आज भी जमींदाराना एवं मध्यकालीन मूल्यों का गहरा प्रभाव है, अतः तालिबान को भी एक हिस्से में सम्मान मिलता है।
इस आधुनिक युग में उन्हीं पुराने मध्यकालीन मूल्यों से चिपके रहने के कारण ही आज संसार भर में इस समाज की दुर्गति है। अब समय के साथ मुस्लिम समाज को परिवर्तन की आवश्यकता है। आधुनिकता में ही प्रगति है और मुस्लिम समाज को आधुनिकता को गले लगाना ही पड़ेगा।
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कहते हैं न कि चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से न जाए। पाकिस्तान की सरकार का तालिबान के संबंध में कुछ यही हाल है। पहले तो पाकिस्तान खुलकर तालिबान-जैसी कठमुल्ला सरकार का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग कर रहा है। और अभी पिछले सप्ताह भारत को तंग करने की नीयत से उसने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के दक्षेस में प्रतिनिधित्व की मांग उठा दी। पाकिस्तान की सरकार को भली भांति पता है कि दक्षेस में शामिल भारत सहित अधिकतर देशों ने अभी तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। और पाकिस्तान की इस बात का कोई औचित्य ही नहीं है। पाकिस्तान इस बात को भी भली भांति समझता है। फिर भी, नहीं साहब उनको बुलाइए। बात स्पष्ट है। पाकिस्तान दक्षेस की बैठक होने ही नहीं देना चाहता है। कारण यह है कि यदि बैठक होती है तो आतंकवाद का मुद्दा उठेगा ही। इसलिए, चोर की दाढ़ी में तिनका। अब यह मांग करके पाकिस्तान ने अमेरिका में होने वाली दक्षेस देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक ही रद्द करवा दी। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यह थी पाकिस्तानी रणनीति और वह इसमें सफल हो गया।
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भले ही पाकिस्तान को इस मामले में सफलता मिल गई हो लेकिन सारा संसार इस बात को भली भांति समझता है कि पाकिस्तान दुनिया भर में आतंकवाद का केंद्र है। वह भले ओसामा बिन लादेन हो या तालिबानी नेता मुल्ला उमर, सबने अपने आंतक की शुरुआत पाकिस्तान के सहयोग से ही की। और अंततः वहीं दम तोड़ा। आज भी वह अल कायदा हो या तालिबान- दोनों ही खतरनाक संगठनों का पाकिस्तान से गहरा संबंध बरकरार है। यह दुनिया के लिए अत्यंत चिंता का विषय है। क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से आतंकवाद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ा मनोबल प्राप्त हुआ है। ऐसी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का यह फर्ज बन जाता है कि वह आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान को संसार से अलग-थलग करे। क्योंकि भारत पाकिस्तान प्रायोजित आतंक का सबसे बड़ा निशाना रहा है, अतः भारत को पहल करके पाकिस्तान को इस मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग- थलग कर देना चाहिए।
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