पांच अगस्त को हमारे देश के प्रधानमंत्री ने उस स्थान पर राम मंदिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन किया, जहां आज से 28 साल पहले बाबरी मस्जिद को जमींदोज किया गया था। प्रधानमंत्री ने एक धर्मनिष्ठ हिन्दू की वेशभूषा में यजमान की हैसियत से एक लंबी पूजा की। मौके पर जो लोग मौजूद थे उनमें शामिल थे- आरएसएस के मुखिया। संघ वह संगठन है जो धर्मनिरपेक्ष, विविधवर्णी और बहुवादी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है।
पूजा के बाद अपने भाषण में पीएम नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि मंदिर के भूमि पूजन के दिन- पांच अगस्त, की तुलना 15 अगस्त से की जा सकती है, जिस दिन देश आजाद हुआ था। उन्होंने कहा, “भारत की स्वाधीनता के लिए कई पीढ़ियों ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। जिस तरह 15 अगस्त हमें लाखों लोगों द्वारा किये गए बलिदानों की याद दिलाता है, उसी तरह राम मंदिर, सदियों के संघर्ष का गवाह है....।”
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उन्होंने कहा कि जिस तरह समाज के सभी वर्गों के लोगों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश को स्वाधीन करने में भूमिका निभायी थी उसी तरह, दलितों, आदिवासियों और अन्य सभी वर्गों ने राम मंदिर की नींव रखने में अपना योगदान दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि “भगवान राम का अस्तित्व मिटाने के बहुतेरे प्रयास हुए...अंततः रामजन्मभूमि विनाश और पुनरुज्जीवन के चक्र से मुक्त हो गयी है। भारत के करोड़ों लोगों का सदियों का इंतजार समाप्त हुआ।”
अपने आप को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियों में से केवल कुछ ने प्रधानमंत्री के कथनों पर आपत्ति उठाई। किसी ने प्रधानमंत्री जी को यह नहीं बताया कि देश की आजादी की रामजन्मभूमि मंदिर के भूमि पूजन से तुलना करना पूरी तरह बेमानी है। भारत का स्वाधीनता संग्राम सत्य, अहिंसा और समावेशिता पर आधारित एक प्रजातान्त्रिक संघर्ष था। वह दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन था, जिसने न केवल भारत में उपनिवेशवाद का अंत किया, वरन वह दुनिया के कई उपनिवेशों में मुक्ति संघर्ष का प्रेरणास्त्रोत बना।
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इस आन्दोलन ने ब्रिटिश शासकों की लूटमार और उनके वर्चस्ववादी रवैये के विरुद्ध औपिनिवेशिक भारत की आवाज को बुलंद किया। उसने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों को रेखांकित किया। जिन दिग्गज नेताओं ने आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखी, उन्होंने इन उच्च मूल्यों की रक्षा की। सबके साथ न्याय इस संघर्ष का मूल लक्ष्य था। इस संघर्ष में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए जगह थी; इसमें मुक्तिकामी दलितों, महिलाओं और आदिवासियों ने भाग लिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कठिन प्रयासों से देश के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों के बीच बंधुत्व और एकता का भाव पनपा।
पंद्रह अगस्त 1947 को यह संघर्ष फलीभूत हुआ। उस दिन जो देश अस्तित्व में आया उसकी आस्था धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र में थी। जो संविधान हमने बनाया, वह आधुनिक राष्ट्र-राज्य के सिद्धांतों पर आधारित था। भारत ने औद्योगिकीकरण और आधुनिक शिक्षा की राह अपनाई। उसने वैज्ञानिक संस्थाओं की नींव रखी और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया। धर्मनिरपेक्षता को देश की राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था का आधार घोषित किया गया। हमने उद्योग, शिक्षा, कृषि आदि क्षेत्रों में आशातीत प्रगति की।
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राम मंदिर आन्दोलन उन सभी मूल्यों का नकार था, जिन पर भारतीय स्वाधीनता संग्राम की नींव रखी गयी थी। इस आन्दोलन का आधार न तो सत्य था और न ही अहिंसा। यह पूरा आन्दोलन इस अवधारणा पर आधारित था कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी। साल 1949 में विवादित स्थल में रामलला की मूर्तियों की स्थापना की गयी और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी। ये दोनों कृत्य अवैध, गैरकानूनी और आपराधिक थे।
न्यायपालिका ने पहले विवादित भूमि को तीन भागों में विभाजित किया (जिसमें से एक-तिहाई मुस्लिम पक्ष को दी गयी) परन्तु बाद में पूरी जमीन को हिन्दू पक्ष को सौंप दिया गया। मजे की बात यह है कि अदालत ने यह स्वीकार किया कि मस्जिद का ढहाया जाना आपराधिक कृत्य था। लेकिन अदालत इस नतीजे पर भी नहीं पहुंची कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था।
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राम मंदिर आन्दोलन, ऊंच-नीच और अंधश्रद्धा के मूल्यों को पुनर्जीवित करने वाला आन्दोलन है। इस आन्दोलन ने अंधश्रद्धा को बढ़ावा दिया जबकि हमारा संविधान, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात करता है। इसके कारण, केवल आस्था के आधार पर अतीत को गौरवशाली बताने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राचीन भारत ने चिकित्सा विज्ञान, गणित और अंतरिक्ष विज्ञान क्षेत्रों में बड़ी उपलब्धियां हासिल की थीं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आधुनिक विज्ञान की सभी खोजों और अविष्कारों को हम प्राचीन भारतीय ऋषियों की देन बताने लगें।
प्रधानमंत्री चाहे जो दावा करें परन्तु राममंदिर आन्दोलन सदियों पुराना नहीं है। इससे संबंधित कुछ घटनाएं उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई थीं। परन्तु कुल मिलाकर यह कुछ दशक पुराना ही है। इसकी शुरुआत लालकृष्ण अडवाणी ने बीजेपी के राजनैतिक एजेंडा में राममंदिर को शामिल कर की थी।
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यह सब कुछ जानते-बूझते हुए भी पांच अगस्त की तुलना 15 अगस्त से क्यों की जा रही है? इसका कारण यह है कि जो लोग राम मंदिर के कर्ताधर्ता हैं, उनके वैचारिक बाप-दादों की स्वाधीनता आन्दोलन में कोई भूमिका नहीं थी। वे किसी भी तरह जनता में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं। इसी उद्देश्य से वे आजादी के बाद के भारत की उपलब्धियों को कम करके बताते हैं और इसी कारण वे विघटनकारी राम मंदिर आन्दोलन की तुलना समावेशी स्वाधीनता आन्दोलन से कर रहे हैं। स्वाधीनता आन्दोलन में निहित धर्मनिरपेक्षता ने आधुनिक भारत के निर्माण में भूमिका निभायी। राम मंदिर आन्दोलन में निहित सांप्रदायिकता हमें भारतीय संविधान के मूल्यों से दूर, पुनरुत्थानवाद और अंधश्रद्धा की अंधेरी गलियों में ढकेल रही है।
(लेख का हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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