हमारे देश और समाज की यह एक बड़ी ताकत रही है कि जब कभी मजहबी एकता तोड़ने और सांप्रदायिकता फैलाने के कुप्रयास होते हैं तो बहुत से लोग और संगठन इन कुप्रयासों का विरोध करने के लिए आगे आते हैं, फिर चाहे इन कुप्रयासों से बहुत शक्तिशाली ताकतें ही क्यों न जुड़ी हों। अनेक अन्य चिंताओं के बीच एक खुशी और उम्मीद की बात यह है कि आज भी यह प्रतिरोध बना हुआ है और विशेषकर यह अनेक युवा आंदोलनों में और मुखर हो रहा है।
सांप्रदायिकता का विरोध करने वाले समझदार विद्वानों और संगठनों ने बार-बार समझाया है कि इससे जो हिंसक दंगों की संभावना बढ़ती है, उस कारण आम लोगों विशेषकर निर्धन वर्ग को ही सबसे अधिक नुकसान होता है। पर इसके आगे बढ़कर यह कहने की जरूरत है कि यदि दंगे न भी हों तो इस तरह जो तनाव और अनिश्चय उत्पन्न होते हैं, उनसे देश की तरक्की में एक बड़ा अवरोध उत्पन्न हो जाता है। इसके विपरीत जहां अमन-शांति की स्थिति में मजबूती होती है, वहां लोग तसल्ली से अपनी और समाज की तरक्की के कार्यों में लगते हैं और इसके लिए सभी लोगों में आपसी सहयोग भी बढ़ जाता है।
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विख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने इस संदर्भ में इतिहास से भी सबक लेते हुए लिखा है, “मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता, जिसमें कट्टरपंथी हिन्दू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आयी तो हमेशा वर्ण, स्त्री, संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिन्दू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कहता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट-टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।”
लोहिया आगे लिखते हैं, “कट्टरपंथी हिन्दू अगर सफल हुए, तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे, न सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम दृष्टि से, बल्कि वर्णों और प्रान्तों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिन्दू ही राज्य (की एकता को) कायम कर सकते हैं। अतः (हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरवाद की) पांच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनीतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिन्दुस्तान के लोगों की हस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिन्दू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।”
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जरूरी बात है कि जब लोग राष्ट्रीय एकता और अमन-शांति के प्रति आश्वस्त होंगे तभी देश में तरक्की के अनुकूल माहौल पनप पाएगा। यह केवल इतिहास की सच्चाई नहीं है अपितु हाल के वर्षों के अनेक उदाहरणों से भी स्पष्ट हो जाएगा कि अमन-शांति की स्थिति उत्पन्न होती है, तो उद्यमियों द्वारा खुलकर निवेश करने की संभावना बढ़ जाती है और जब सांप्रदायिक तनाव या अन्य तरह की आंतरिक हिंसा के कारण सामाजिक स्थिति बिगड़ती है तो निवेश कम हो जाता है और रोजगार भी कम हो जाता है। हमारे देश और अर्थव्यवस्था की साख पर विश्व स्तर पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है।
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समाज की तरक्की इंसान की अपनी तरक्की से अलग नहीं है। बहुत से इंसानों की तरक्की से मिलकर ही समाज की तरक्की होती है। जो इंसान खुले दिल के होते हैं, जिनमें भेदभाव और सांप्रदायिक तथा जातिगत द्वेष नहीं होता है, वे इंसान ही सही और व्यापक अर्थ में अपनी क्षमताओं का ऐसा विकास कर सकते हैं जो समाज की तरक्की के अनुकूल होता है। दूसरी ओर जो तंगदिल, सांप्रदायिक द्वेष और जातिगत भेदभाव वाले व्यक्ति होते हैं, वे यदि संकीर्ण अर्थ में धन संचय कर भी लेते हैं तो उनकी व्यक्तिगत संपत्ति संचय समाज के व्यापक हित से नहीं जुड़ पाती है। अतः सांप्रदायिकता को रोकना पूरे समाज की व्यापक प्रगति के लिए जरूरी है।
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