पहले बुद्धि से कुछ नया रचने वाले हर शख्स को कवि कहा जाता था। ब्रह्मा को भी कवि कहा गया है। इस व्याख्या का मतलब यह कि लेखक, साहित्यकार, कवि या पत्रकार जो भी हों, सब कवि हैं। प्रशासनिक अपारदर्शिता के बीच मुझको कवि बहुत याद आते हैं। प्रशासन की सटीक जमीनी रपट देना पत्रकारों का काम है जो कवि होने के कारण वहां जा सकते हैं, जहां रवि यानी सूरज की रोशनी नहीं जाती। पर हमारी बेपनाह ताकतों से लैस नौकरशाही की गति नाना कारणों से दो दिन चले अढ़ाई कोस की होती आई है। इसलिए अब जब रोग-शोक से घिरी जनता की जरूरतें तात्कालिक हों तो मीडिया की रिपोर्ट का महत्व बढ़ जाता है। कई बार किस तरह उसे आसन्न अनहोनी का आभास नौकरशाही से पहले मिल जाता है। यह पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एक अमेरिकी पत्रकार लॉरेंस राइट की रचना ‘दि एंड ऑफ अक्टोबर’ (प्रकाशन: नॉफ, अमेरिका) के अंश पढ़ते हुए दिखता रहा।
Published: undefined
अप्रैल, 2020 में छपे इस उपन्यास में एक (काल्पनिक) घातक वायरस कॉन्गोली, इंडोनेशिया से निकल कर एक टैक्सी चालक के हज पर जाने से पहले मध्य एशिया और फिर पूरी दुनिया में अकल्पनीय तेजी से छा जाता है। उपन्यास का नायक एक वायरो लॉजिस्ट है जो विश्व में आने वाले समय में महामारी फैलाने वाले वायरसों पर शोध कर रहा है। उसने खुद इंडोनेशिया की यात्रा के दौरान उस चालक की टैक्सी में सफर किया था। अब अमेरिका वापिस अपनी लैब और राजकीय चिकित्सा तंत्र में वह गंभीर खामियां पाता है। और जैसे-जैसे कथा वस्तु आगे बढ़ती है तो यह लगातार साफ होता जाता है कि कॉन्गोली वायरस का टीका बनने से पहले यह दुनिया में लाखों जानें ले लेगा। हर देश अपने नेतृत्व और सामर्थ्य के आधार पर जब इस अनजान दुश्मन से घरेलू स्तर पर लड़ेगा तो वहां राज-समाज में पहले से मौजूद कई तरह की संस्थाओं और प्रशासनकी खामियां, छुपा नस्लवाद, अमीरों के खिलाफ गरीबों का आक्रोश और राष्ट्रवादी तानाशाहों की साम्राज्यवादी सोच यह सब राज सतह पर खुल जाएंगे। जब यह होगा तब दुनिया में हर जगह महायुद्ध, अकाल और स्वास्थ्य सेवाओं के तार-तार होने की खबरें मिलेंगी। और बेरोजगार युवा और अभिभावक हीन बच्चों की भीड़ सड़क पर उतर कर दंगा फसाद करने लगेगी।
Published: undefined
उपन्यास यह भी साफ दिखाता है कि ऐसे ग्लोबल आपातकाल में तमाम राष्ट्रीय- अंतराष्ट्रीय संस्थाएं भी लाचार नजर आएंगी। और उनपर सालों से काबिज बड़े देश और नौकरशाह दार्शनिक बयानबाजी और परस्पर दोषारोपण से अपना बचाव करेंगे। उपन्यास में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा संस्था होम लैंड सिक्योरिटी की एक उप-सचिव महोदया जब बाबुओं की तरह प्रेसवार्ता में पत्रकारों को महामारी पर ब्रीफ करने नाम पर दुश्मन देशों के खतरनाक मंसूबों पर बात छेड़ देती हैं, तो एक पत्रकार उनको टोक कर कहता है कि मोहतरमा सबको पता है कि इस महामारी का कारक एक नया वायरस है, यह भी, कि निरोधक टीका बनने में अभी साल भर लग जाएगा। युद्ध जब होगा तब होगा, पर आपकी नादानी से लाखों लोग आपके उस कल्पित युद्ध से नहीं, महामारी से मर चुके होंगे।
Published: undefined
भारत में भी जब कोविड के ताजा ब्योरों और उनसे निबटने की सरकारी व्यवस्था पर चर्चा हो, बीच में सरकारी नुमाइंदे और प्रवक्ता लोग वास्तविक स्थिति की बजाय भारत की नियंत्रण रेखाओं पर पाकिस्तानी या चीनी अतिक्रमण के गड़े मुर्दे उखाड़कर अपने पूर्व वर्ती निजाम को अपने से बदतर साबित करने में जुट जाते हैं। जनता के लिए इस समय कहीं बड़ा जरूरी घरेलू मसला बचे रहने का है। अपने परिजनों की गंभीर बीमारी के बीच उनके लिए हस्पताली बिछौनों और आयातित चिकित्सा उपकरणों तथा सुरक्षा कवचों को पाना है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आठ जून को खुल गए हैं, पर रोगियों के लिए अधिकतर हस्पतालों के द्वार अभी तक बंद हैं। ऐसे में इकतरफा लॉकडाउन को लागू करने के बाद तालाबंदी खुलवाई का सारा दारोमदार राज्य सरकारों पर डाला जा रहा है। हमेशा की तरह कुछेक राज्यों के राज्यसभा के चुनाव भी सर पर हैं। लिहाजा बीमारी के साथ भीषण तूफान से गुजरे बंगाल और महाराष्ट्र की प्रदेश सरकारों को मदद की राशि बढ़ाने की बजाय विपक्ष द्वारा राज्य के प्रबंधन पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। प्रतिपक्षियों का भोंपू बना मीडिया का एक भाग तो सिर्फ राज्य सरकारों की नाकामी के पुराने प्रकरण उजागर कर रहा है। उधर, गरीबी के बीच भी वहां बेहद खर्चीली वर्चुअल रैलियों के आयोजन किए जा रहे हैं। कड़े सवाल उठाने वाले कई कवियों पर तो राष्ट्रद्रोह की धाराओं के तहत विस्मयकारी क्रिमिनल मुकदमों की बाढ़ आ गई है। उधर, भीतर से बंट गए मीडिया में जब शाम को बतकही का अनर्गल सिलसिला शुरू होता है, तो प्रतिपक्ष शासित राज्यों की दुर्दशा के बखिये ऐसी तटस्थ निर्ममता से उधेड़े जाते हैं जैसे वे भारतीय संघ के सदस्य नहीं, शत्रु इलाके हों।
Published: undefined
यह सिर्फ भ्रम है कि इस महामारी से शेष विश्व से पहले उबर आया चीन अमेरिका से कमतर बना रहेगा। यह ठीक है कि एशिया हो कि यूरोप, अमेरिका हर धड़े को भारत जैसे महादेश की दोस्ती की बहुत जरूरत है। लेकिन अंत में जाकर हमारी दोस्ती की कीमत हर देश हमारी आर्थिक और सामरिक ताकत तथा घरेलू स्थिरता के पैमानों पर ही जांचेगा। उन सबकी अपनी माली हालत महामारी से जूझने में बहुत तेजी से बिगड़ी है और वे पाई-पाई दांत से पकड़ रहे हैं। इस समय हम उनको अपने चिरंतन, ‘भारत विश्वगुरु रहा है’, ‘बुद्ध, महावीर और गांधी का भारत शांतिदूत है’, ‘सस्ता, सुंदर और टिकाऊ माल तैयार करने में हमारी बड़ी आबादी हमारी सबसे बड़ी ताकत होगी’ जैसे जुमलों-दावों से नहीं रिझा सकेंगे। वे सब महाजनी संस्थाएं पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की अपनी भरोसेमंद संस्थाओं की रेटिंग्स देखेंगी, जो बहुत उजली नहीं दिखतीं। लिहाजा दुनिया के देश अपनी पूंजी हमारे यहां तुरंत रोप देंगे, इसका भरोसा नहीं। राजनय में भी यह अस्पष्ट है कि सीमा विवाद पर रूठे हुए नेपाल या चीन बिना कोई छूट पाए हमारी तरफ झुक जाएंगे। वजह यह नहीं, कि पड़ोसी आजकल विश्वासघाती बनगए हैं, बल्कि यह कि दुनिया में मनुष्य हों कि देश, उनकी असमर्थता के क्षणों में साया भी साथ छोड़ देता है। भारत की सकल उत्पाद दर की रेटिंग्स को सुधारने के लिए जरूरी है कि हमारा नेतृत्व ठकुरसुहाती करने में पटु बाबूशाही या खुशामदी नेताओं की बजाय बिना बदले की भावना के, बगैर चिड़चिड़ाए उपेक्षित पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का स्थिति का विश्लेषण भी गौर से सुने। वे सब मनसे भारतीय हैं और वे भी अपने देशवासियों का हित चाहते हैं उनका अहित नहीं। आज मुख्यधारा मीडिया को अपने बस में कर लेना बहुत दूर नहीं ले जाता। खुले सोशल मीडिया पर कही बातें और दिखाई गई छवियां भी दुनिया भर में चुटकी बजाते वायरल हो रही हैं। और उनकी मदद से अमेरिका से एशिया तक किसी भी सरकारी स्वांग का सच दुनिया तुरंत पकड़ सकती है। इसलिए सरकार के बाबू लोग, प्रतिनिधि और दलीय प्रवक्ता इस भारत नामक घर के भांडे चौराहों पर न फोड़ें। कम से कम अभी तो रोजाना पोस्टर, होर्डिंग या वर्चुअल रैली से आगामी चुनाव जीतने के आकर्षण से बचा जाए और विपक्षी राज्य सरकारों के महामारी से निपटने की अक्षमता, उनकी विपन्नता, और कानून-शासन की पालना प्रयासों पर अमानवीय गाज न गिराई जाए। यह करना जिस शाख पर हम सब बैठे हैं उसी पर कुल्हाड़ी चलाना साबित होगा। कहीं बेहतर हो, इस समय केंद्र अपनी तमाम राज्य सरकारों को भरोसे में ले। उनकी गौर से सुने। अपने ही देश के मुख्यमंत्रियों के साथ सिर्फ ऐसे वर्चुअल सम्मेलन न बुलवाए जाएं जिनमें अक्सर प्रधान वक्ता के अलावा बाकी मुख्यमंत्री खामोश श्रोता दिखते हैं।
Published: undefined
कोविड की चुनौती का सकारात्मक नतीजा तभी निकलेगा जब हम नई प्राथमिकताओं को समझ कर संयुक्त कोशिशों से अपनी सारी आर्थिक, प्रशासनिक और समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी संस्थाओं को सिरे से बदलेंगे। हमारे अपने पैर तले जमीन मजबूत हो, तभी हम अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का मध्य बिंदु बनकर दुनिया से सीधे आंख मिला कर बात कर सकते हैं।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined