उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मसले पर सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार के बीच रस्साकशी वाली हालत है। यह बात अब सार्वजनिक जानकारी में है कि कम-से-कम दो मौकों पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने दो लोगों के नामों की सिफारिशें केन्द्र सरकार की इच्छा पर छोड़ दीं जिन्हें उसने दो बार भेजा था।
यह काफी आश्चर्यजनक है और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल के नेतृत्व वाली पीठ की सरकार को कही इस बात के खिलाफ जाती है- कि एक बार कोई नाम दोबारा भेजा जाता है, तो नियुक्ति की ही जानी है। इस पीठ में न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ भी थे और वस्तुतः, उसे दोबारा भेजे गए नाम को कॉलेजियम की तरफ से वापस लेने के कारणों की जानकारी नहीं थी और उसने 8 दिसंबर को इस किस्म का आदेश दिया।
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उसने कहा कि 'हम नहीं जानते कि किन विशेष परिस्थितियों में ये नाम दूसरी बार भेजे गए और हटा दिए गए लेकिन हम इसे लेकर निश्चित हैं कि कॉलेजियम दूसरी बार नाम भेजने को लेकर अब इस बात को ध्यान में रखेगा।' पीठ ने यह भी कहा कि नाम दूसरी बार भेजा जाना 1993 में संविधान पीठ के उस निर्णय के विपरीत है जिसमें कहा गया है कि अगर सिफारिशें इन्हें वापस लेने के कारणों को बताते हुए सर्वानुमति से दोहराई गई हैं, तो स्वस्थ परंपरा के तहत नियुक्ति की ही जानी है।
न्यायमूर्ति कौल अब कॉलेजियम के सदस्य हैं। पर वह 2019 और 2021 में कॉलेजियम के सदस्य नहीं थे और वह उस वक्त कॉलेजियम के निर्णयों के बारे में निश्चित ही नहीं जानते होंगे क्योंकि सरकार और प्रधान न्यायाधीश के बीच पत्राचार तथा विचार-विमर्श की प्रक्रिया के रिकॉर्ड देश के बहुत ही गोपनीय दस्तावेज होते हैं। यह बात राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने कही भी है।
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एटॉर्नी जनरल ने वे घटनाएं बताते हुए दोबारा भेजे गए नामों को वापस लेने की बात को उचित ठहराया जब कॉलेजियम ने खुद ही दोबारा भेजे गए नामों पर सरकार की आपत्ति को स्वीकार किया था। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमना के नेतृत्व वाले कॉलेजियम ने क्रमशः 2019 और 2021 में (इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायाधीश के तौर पर) अधिवक्ता अमित नेगी और (केरल हाई कोर्ट में न्यायाधीश के तौर पर) अधिवक्ता के. के. पॉल के नाम दोबारा भेजने की सिफारिश वापस ले ली थी।
इस तरह, हो यह रहा है कि न्यायिक पक्ष की तरफ से, सुप्रीम कोर्ट कह रही है कि एक बार नाम दोबारा भेज दिए गए, तो सरकार को नियुक्ति करनी होगी लेकिन प्रशासनिक पक्ष पर, कॉलेजियम दोबारा भेजे गए नामों को सरकार की तरफ से लौटाने को अपवाद के तौर पर स्वीकार कर ले रहा है।
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कार्यप्रणाली अब बिल्कुल साफ है। पहले, सरकार कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नाम पर अपनी आपत्ति भेजे बिना इसे स्वीकार करने से मना करते हुए नियम पर अपरोक्ष वीटो (पॉकेट वीटो) की तरह इसके लिए अनिश्चित काल तक फाइल को रोके रखती है। यह प्रक्रिया नियुक्त किए जाने वाले लोगों के संभावित वरिष्ठता क्रम में भी खलल तो डालती ही है, संबंधित व्यक्ति का निरादर भी करती है।
दूसरे, अगर कॉलेजियम सरकार की उठाई आपत्तियों पर विचार करता है और तब भी, नाम की सिफारिश का फैसला लेता है, तो नियमों के अनुरूप सरकार सिफारिश स्वीकार कर लेने की जगह उसे वापस कॉलेजियम को भेज देती है। इस तरह के मामलों की इस लेखक के पास जो जानकारी है, उसके अनुसार, इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए पांच नाम, कलकत्ता हाई कोर्ट के लिए दो नाम, कर्नाटक हाई कोर्ट के लिए एक नाम और केरल हाई कोर्ट के लिए दो नाम हैं। अधिवक्ताओं- अमित नेगी और के.के. पॉल के मामले तो विलक्षण हैं ही।
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30 अगस्त, 2016 को कॉलेजियम ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए अमित नेगी का नाम आगे बढ़ाया। लेकिन, छह माह बाद, जून, 2017 में कॉलेजियम ने इस सूचना के आधार पर अपनी सिफारिश रोके रखने का फैसला किया कि उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। बाद में, प्रधान न्यायाधीश के संज्ञान में यह बात लाई गई कि हाई कोर्ट ने एफआईआर रद्द कर दी है और हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई अपील नहीं की है। इसके आधार पर, कॉलेजियम ने 1 अगस्त, 2018 को उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया तेज करने का प्रस्ताव पारित किया।
सर्वाजनिक जानकारी में इसके कारण उपलब्ध नहीं हैं लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर, कॉलेजियम ने 16 जनवरी, 2019 को अपनी सिफारिश वापस लेने का फैसला किया। उस वक्त कॉलेजियम के प्रमुख प्रधान न्यायाधीश गोगोई थे। इसी तरह, कॉलेजियम ने 25 मार्च, 2019 को के.के. पॉल का नाम सिफारिश करने के योग्य पाया। 2 मार्च, 2021 को कॉलेजियम ने उनका नाम दोहराया। फिर भी, सरकार ने पुनर्विचार के लिए यह प्रस्ताव कॉलेजियम को वापस कर दिया। अंततः, 12 अगस्त, 2021 को कॉलेजियम ने अपनी सिफारिश वापस ले ली लेकिन इसका कारण ज्ञात नहीं है। उस वक्त पूर्व प्रधान न्यायाधीश रमना कॉलेजियम के प्रमुख थे।
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इस वक्त, विभिन्न हाई कोर्टों के लिए कॉलेजियम की तरफ से दोबारा सिफारिशों वाले कुल दस नाम कॉलेजियम के पास लंबित हैं क्योंकि सरकार ने 28 नवंबर को न्यायिक नियुक्तियों के मामले की सुनवाई से एक दिन पहले इन्हें वापस कर दिया। इनमें से कुछ की पृष्ठभूमि जानने लायक है। कलकत्ता हाई कोर्ट के लिए अमितेष बनर्जी और सुक्या सेन के नामों की सिफारिश 24 सितंबर, 2019 को की गई। 1 सितंबर, 2021 को बनर्जी का नाम दोबारा भेजा गया। वह राज्य सरकार के लिए वरिष्ठ सरकारी स्थायी परामर्शदाता हैं। वह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू.सी. बनर्जी के बेटे हैं जिन्होंने उस आयोग का नेतृत्व किया था जिसने गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाए जाने की घटना की जांच की थी। इस आयोग का निष्कर्ष था कि यह अग्निकांड दुर्घटनावश हुआ था और मुसलमानों की किसी भीड़ ने इसकी शुरुआत नहीं की थी।
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इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए चार अधिवक्ताओं- शिशिर जैन, राशिद मुर्तजा, ध्रुव माथुर और विमलेन्दु त्रिपाठी के नामों की सिफारिश 24 अगस्त, 2021 को की गई। कॉलेजियम ने अधिवक्ता मनु खरे के नाम की 6 अक्तूबर, 2021 को सिफारिश की। खरे पूर्व प्रधान न्यायाधीश वी.एन. खरे के बेटे हैं जो 2002 दंगों के लिए गुजरात सरकार के काफी आलोचक थे। इन सभी नामों को 14 जुलाई, 2022 को दोबारा भेजा गया। राशिद मुर्तजा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान सरकारी अधिवक्ता थे। विमलेन्दु त्रिपाठी को योगी आदित्यनाथ सरकार ने तब सरकारी अधिवक्ता के तौर पर हटा दिया था जब हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ विपरीत टिप्पणी की थी। हाई कोर्ट ने त्रिपाठी पर यह कहते हुए कोर्ट को 4 मई को यह सूचना न देने के लिए गुमराह करने का आरोप लगाया था कि प्रमुख सचिव (गृह) ने घृणास्पद मामले में मुख्य आरोपी आदित्यनाथ के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए अनुमति देने से मना करने का फैसला 3 मई को किया था।
सरकार एक से दूसरे हाई कोर्ट में एक मुख्य न्यायाधीश के तबादले और एक से दूसरे हाई कोर्ट में तीन न्यायाधीशों के तबादलों से संबंधित फाइलों को लेकर भी बैठी हुई है। संविधान पीठ ने कहा था कि हाई कोर्ट के न्यायाधीशों/ मुख्य न्यायाधीशों के तबादलों के मामले में प्रधान न्यायाधीश की राय प्रमुख भर नहीं बल्कि निश्चयात्मक है।
(द लीफलेट से साभार)
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