भारत में इतिहास की पहली विश्व प्रसिद्ध महिला विद्वानों में से एक- इरावती कर्वे ने महाभारत युद्ध के अपने अध्ययन, युगांत (1967 में प्रकाशित) में भारत के इतिहास के एक युग के अंत को चित्रित किया है। इस पतली-सी पुस्तक के लेख मूल संस्कृत ग्रंथों पर आधारित हैं और ये एक समाज वैज्ञानिक और मानवविज्ञानी की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि को समेटे हुए हैं। आखिरी निबंध ‘द एंड ऑफ ए युग’ में वह लिखती हैं, “सब बदल गया। सत्य, पराक्रम, कर्तव्यपराणता, भक्तिके आदर्शसब चरम सीमा पर थे। उस समय के लेखकों ने बड़ेही स्पष्टतरीके से जो कुछ भी लिखा, वह आज भी मौजूद है। बेशक पुराना कुछ भी नहीं रहता, लेकिनभाषा तो पुराने को भी सुरक्षित रखती है।”
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भीषण युद्ध और महामारी ने अक्सर विद्वानों को अतीत के साहित्य पर गौर करने को प्रेरित किया है जब दुनिया व्यापक बदलाव के दौर से गुजरी। इसलिए मानव इतिहास में चहुं ओर एक काल खंड के अंत का उद्घोष करने वाला कोविड लेखकों को पीछे जाकर राष्ट्रों के रूप में हमारे अतीत की पुन: जांच-परख करने को बाध्यकर रहा है। मार्च, 2020 से अधिकांश भारत लॉकडाउन में है। भीड़भाड़ वाले हमारे कई महानगर वायरस प्रसार के केंद्र बन गए हैं क्योंकि वे मूल रूप से मध्ययुगीन काल के दौरान विकसित हुए। धीमी रफ्तार से खिसकती जिंदगी के उस दौर में दिल्ली, पुणे, लखनऊ, इलाहाबाद और अहमदाबाद कारों और दो-पहिया वाहनों के लिए नहीं बल्कि इंसानों के लिए बसाए गए थे। वास्तुकला के लिहाज से ये शहर आज भी मध्ययुगी नही हैं जो वर्ग, जाति और धर्म के प्रति पुराने दृष्टिकोण को अपनाए हुए हैं।
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आज फर्क सिर्फ इतना है कि सड़कें ही बीमार या मरने वालों से पटी नहीं हैं बल्कि रोग और काल के पंजों ने भारतीय समाज और सत्ता के सभी स्तंभों को जकड़ लिया है। 14वीं शताब्दीकी शुरुआत के इटली की तरह हम भी समृद्ध से लेकर निपट गरीब रियासतों-रजवाड़ों का एक समूह थे जो सामंती और औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की बेड़ियों से मुक्त हुआ था। महामारी के प्रकोप से पहले तक मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद और कोलकाता-जैसे शहरों का इस्तेमाल नए वैश्विक पूंजीवाद के बीज को पुष्पित-पल्लवित करने वाले केंद्रके तौर पर, तो गोवा, उत्तराखंड और पांडिचेरी जैसी अन्य जगहों का इस्तेमाल केंद्र थके-मांदे व्यापारियों, सामंती घरानों के वंशजों और नेताओं के परिजनों के लिए पर्यटनस्थल के तौर पर होता था।
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लेकिन इन्हीं सकारात्मकता का सायास इस्तेमाल दवा के बारे में भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के खांटी मध्ययुगीन सोच को छिपाने के लिए किया जाता है। ये नेता बीमार और भयभीत लोगों को धड़ल्ले से आयुर्वेदिक उपचारों को आजमाने, गोमूत्र का सेवन करने, कोरोनिल की गोलियां (जिसका किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में परीक्षणनहीं हुआ) खाने या फिर बस प्रार्थना करने और अपनी बालकनी में बर्तन पीटने की सलाह देते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह पूरे देश में कोरोना की यह भयंकर बीमारी फैल चुकी है, होशियार लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि नेताओं और झाड़-फूंक करने वाले लोगों की ज्यादातर सलाह बेकार ही हैं। यहां तक कि प्रशिक्षित डॉक्टर और उनकी एंटी वायरल दवाओं के अक्षय पात्र की महिमा भी पूरी तरह बेकार ही साबित हुई है।
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बोकाचियो ने 14वीं सदी में प्लेग की विभीषिका झेल रहे इटली का जिक्र किया है जहां कुछ लोगों ने जीवन के बचे-खुचे सुख को भोग लेने का फैसला किया, अलग-अलग समूहों का गठन किया और खुद को अतिरंजित हास्य और कहानियों (अर्नब याद है? ) के साथ एक दूसरे से अलगकर लिया। दिलचस्प है कि बोकाचियो की विश्वविख्यात हास्य कृति ‘डेकामौरॉन’ की कहानियों की तरह जो अलग- थलग पड़े भयातुर समूहों द्वारा सुनाई जाती हैं, हमारे ज्यादातर सामाजिक समाचार मीडिया ने समाज और कलुष, धर्मपरायणता अथवा अभिभावकीय अनुमति के बारे में पूर्व सोच को जैसे भुला ही दिया है। पंडित-पुजारी से लेकर राजनेता, बॉलीवुड अभिनेता- सबको खुलेआम अनैतिक और पाखंडी बताया जाता है। बाबाओं और झाड़-फूंक करने वाले आम तौर पर मूर्ख, कामुक और लालची होते हैं और उनके मठ-आश्रम नरक के द्वार हैं, जिन्हें लंबे समय तक नहीं खोला जाना चाहिए।
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मानकर चलना चाहिए कि कोविड बाद के भारत में वही सब होने वाला है जो मध्ययुगीन यूरोप के उस विनाशकारी कालखंड के बाद हुआ। इटली में राजनीतिक-रूढ़ीवादी-चिकित्सीय प्रतिष्ठानों को उखाड़ फेंकने के बाद अंततः बदलाव की ताजा हवा का प्रवेश हुआ जिसने पुनर्जागरण का आधार रखा और विज्ञान, कला और राजनीतिक विचार के एक शानदार युग की शुरुआत हुई। जब दुनिया कोविड- 19 के लौह-पाश से मुक्त हो जाएगी तब ऐसी ही नाटकीयता देखने को मिल सकती है। हो सकता है कि दवा के क्षेत्र में ऐसा न हो जहां सभी इस वायरस के खिलाफ किसी चमत्कारिक टीके के इजाद की दुआ कर रहे हैं, लेकिन अर्थव्यवस्थाऔर संस्कृति में तो शर्तिया बड़ा बदलाव आने जा रहा है।
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ब्लैक डेथ यानी प्लेग-काल का वर्णन करने वाले इतिहास लेखकों ने दर्ज किया है कि कैसे उस समय परिवार व्यवस्था धराशायी हो गई थी। आज भी वैसा ही दिखता है जब तमाम मुश्किलों का सामना करके घर गए प्रवासी अब इस एहसास के साथ वापस हो रहे हैं कि परिवार तो अब वैसा रहा ही नहीं। शहरों में छोटे-सी जगह में लंबे समय से कैद परिवार के सदस्यों की आपस में तीखी झड़प और चरम मनोभावों के तमाम मामले मनोचिकित्सकों के पास आ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति बीमार और बुजुर्गों की घर से दूर संस्थागत देखभाल की अवधारणा को लेकर भी है। वर्ष 1918 में जब फ्लू ने महामारी का रूप धरा, अंग्रेजों ने अपने परिवारों को पहाड़ों पर भेज दिया। लेकिन तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने पहाड़ों में जो दोहरी व्यवस्था बना रखी थी- हिल स्टेशनों में अपने रहने के लिए तो साफ-सुथरे सिविल लाइंस लेकिन गंदगी में जीवन गुजारती स्थानीय आबादी- वह उनके अपने ही स्वास्थ्य के लिए कितनी खतरनाक थी। इसलिए पहले हेल्थ बोर्ड और महामारी कानून तैयार किए गए और ‘साहब’ और उनके खान सामा, धोबियों और नौकरानियों तथा उनके परिवारों के लिए अस्पताल बनाए गए क्योंकि इन लोगों के बिना अंग्रेजों का काम नहीं चलने वाला था।
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वापस वर्तमान में आते हैं। अंततः कर्फ्यूहटा लिए गए हैं और सबसे ज्यादा विस्फोटक स्थिति रोजगार क्षेत्र में आने वाली है। हमारे देखते-देखते पूरे सेवा क्षेत्र की जगह ऑनलाइन डिलीवरी सिस्टम ले रहा है। वैसे ही शिक्षा और मनोरंजन भी तेजी से डिजिटल हो रहे हैं। इसलिए पुराने स्टाइल के क्लास, सिनेमा हॉल और रेस्तरां को अलविदा कहने का समय है। पत्रकारों की तरह ही तमाम लोग जब काम पर लौटकर आते हैं तो पता चलता है कि उनके लिए तो काम ही नहीं रहा। प्रिंट मीडिया तेजी से अप्रचलित होता जा रहा है और फिल्मों की धूम-धड़ाके के साथ लॉन्च की जगह ओटीटी (ओवर दिटॉप) लॉन्च ले रहे हैं।
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इसलिए हम चाहें या नहीं, कोविड के कारण आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढहना तय है और ये अप्रचलित होते जा रहे पुराने बाजार की तरह ही लुप्त हो जाएंगे। आपके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो नई तकनीक से वाकिफ नहीं और इसलिए वे हाशिये पर डाल दिए जाएंगे लेकिन मुट्ठीभर नए प्रशिक्षित लोगों को मोटी तनख्वाह मिलेगी। पूंजी और श्रम की वर्तमान स्थिति उस कार की तरह है जो दुर्घटना के बाद अभी पलटियां मारती हुई घिसटती जा रही है। उसमें बैठे किसी को पता नहीं है कि अंततः कौन और कैसे जीवित बचेगा।
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अब जरा देखते हैं कि इन स्थितियों से किस तरह के फायदे की संभावना है। उदाहरण के लिए, कॉरपोरेट जीवन का वह पुराना तरीका बदल जाने वाला है जिसमें लोगों को लगातार विभिन्न समय क्षेत्रों की बेतहाशा हवाई यात्रा करनी पड़ती थी। अब आलस के कारण तीसरी दुनिया के देशों को काम आउटसोर्स नहीं होंगे, संदिग्ध हेज फंडों की अल्पावधि जमा नहीं होगी और ‘राजनीतिक कनेक्शन’ के आधार पर दीर्घकालिक बैंक ऋण नहीं दिए जाएंगे। हमारे राष्ट्रीय कृत बैंक ऋण बोझ से दबे हुए हैं। नतो ईश्वरीय प्रारब्ध मानकर इन्हें बंद किया जा सकता है और नही उद्यमशीलता को कला, शिल्पया हाथ से तैयार खिलौनों के आधार पर आत्मनिर्भरता के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है।
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जैसा कि जॉनमेनार्ड कींस ने कहा था कि जब आप संकट में होते हैं तो स्वस्थ अर्थव्यवस्था और दृढ़ राजनीति आधारित पहले की नैतिकता की परवाह नहीं करते और इससे संकट और गहरा जाता है। अगर आप नवाब आसफुद्दौला को पसंद करते हैं, तो आप इमामबाड़ा जैसा निर्माण करेंगे। आप बेशक कुछ भी बनाएं लेकिन रोजगार पैदा करें। भारत के शासक वर्ग को वास्तव में पुनर्विचार करना होगा। उन्हें महामारी को नए सोच का प्रेरक बनाना चाहिए। महामारी के पहले से ही अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी और हमारी रेटिंग हर माह गिर रही थी। 1918 में स्पैनिश फ्लू और विश्वयुद्ध में लाखों लोगों की मौत ने सत्याग्रह की रूपरेखा तैयार की, वैसे ही यूरोप में महिलाओं को मताधिकार के आंदोलन ने जन्म लिया। यह संयोग नहीं है कि उन महिलाओं ने गांधी का समर्थन किया, उनकी प्रशंसा की। इन घटनाओं को बदलाव की उन्हीं ताजा हवाओं ने आकार दिया था। दूसरे विश्व युद्ध ने महिलाओं के आंदोलन और गांधीवादी सत्याग्रह- दोनों को तेज किया था। हमें कोविड के इस काल का भी इस्तेमाल सामंती मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर निकलने और अभूतपूर्व तरीके से दम तोड़ रही अपनी अर्थव्यवस्था, राज व्यवस्था और समाज-व्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए करना चाहिए। जब तक हम अपनी मरणासन्न अवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे, कुछ भी ठीक नहीं होगा।
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