दिसंबर की ग्यारह तारीख को लंबी बहस के बाद सरकार ने कलहकारी नागरिकता संशोधन विधेयक (सिटिजनशिप एमेंडमेंट बिल या सीएबी) राज्यसभा से भी पारित करवा लिया। नौ दिसंबर को लोकसभा में यह बिल पहले ही पारित हो चुका है। असम में नागरिकता दर्ज करने वाले कदम, एनआरसी के पंजीकरण के बाद भारत की नागरिकता को 1955 से चले आए रूप को बदलने वाला यह विधेयक अब कानून बनने पर पिछवाड़े के रास्ते से धार्मिक पहचान को हमारे सेकुलर संविधान का एक जायज हिस्सा बना देगा। हालांकि, मामला अदालत तक जा सकता है। अचरज नहीं, कि कई क्षेत्रों से इसके विरोध से 2020 के लिए भारतीय राज-समाज की एक अजीब मिलीजुली सी तस्वीर बनने लगी है।
उससे आप इस आधार पर खुश या नाखुश, संतुष्ट या असंतुष्ट हो सकते हैं कि आप वर्तमान संविधान की स्थापनाओं से कितने खुश या नाखुश हैं। लेकिन यह तय है कि जब व्यावहारिक रूप से इस पर काम होगा तब उनके जमीनी कार्यान्वयन को सरकार उसी असहज और डरी हुई सरकारी व्यवस्था के हवाले कर देगी, जिसमें संस्था से अधिक शीर्ष अधिकारी, नियम से अधिक निजी इच्छा और अनिच्छा तथा संविधान से अधिक आगामी चुनावों का महत्व है। जिसने भारी खर्चे के बावजूद असम में जो नागरिकता रजिस्टर तैयार किया है, उससे लगभग दो लाख हिंदू बाहर रह जाने से वहां की जनता या खुद बीजेपी के मुख्यमंत्री बेहद नाराज हैं।
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वैसे तो संविधान को ठंडे तलघर में डाल कर आजादी के बाद कई बार राजकाज का रथ हांका गया है। अलबत्ता पहले निजी मीडिया कभी इतना पालतू न था और न ही सोशल मीडिया घटघट व्यापी खबरची बनकर उभरा था। सो इस सब पर जोरों से कोने-कोने में चर्चे से यह धारणा बन चली है कि समावेशी भारत के नाम पर लोकतंत्र की हर नई पहल मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भेदभाव से लैस है। अयोध्या मसले पर लंबी याददाश्त वालों को याद होगा कि इस विवाद की जड़ में (1949 में) अकस्मात चोरी छिपे बाबरी मस्जिद में रामलल्ला की मूर्ति ला रखने से उपजा साठ बरस पुराना एक फंफुदियाया विवाद है। चीथड़े की गेंद सरीखा कभी पुरातत्व विभाग, तो कभी इतिहासविदों की तरफ उछाला गया मिल्कियत का यह मसला अंतत: सुलझाया गया भी, तो जबरिया तौर से थोपे गए सौमनस्य और सामुदायिक भितरघात तथा तोड़फोड़ से।
कश्मीर में भी सूबे के भारतीय संघ से रिश्ते पर वैधानिक स्थापना साफ थी, लेकिन नाना वजहों से इस पर इतनी जगह इतनी आपत्तियां उठाई जाने लगीं, कि घाटी एक अघोषित युद्ध का क्षेत्र बन बैठी। अब अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू, लद्दाख को काटकर अलग कर दिया गया है और मुस्लिम बहुल घाटी में इमर्जेंसी जैसे प्रावधान लागू हैं। सीमा के आर और पार लोग दम साधे देख रहे हैं कि सरकारी कैद से लीडरान की रिहाई और इंटरनेट बहाली के बाद स्थानीय जनता क्या करेगी?
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गृहमंत्री ने बिल संसद में रखते हुए कहा कि यह विभाजन की गलतियों को हटाकर भारत को उसकी सही पहचान देगा क्योंकि बंटवारा धार्मिक आधार पर करवाया गया था। यह सच नहीं पाकिस्तान का निर्माण धार्मिक आधार पर सर सैयद की स्थापना को नजीर मानकर, कि हिंदू मुसलमान दो जुदा कौमें हैं जो साथ नहीं रह सकेंगी, हुआ था। और हिंदू महासभा भी इसके पक्ष में थी। कांग्रेस ने इसका मुखर विरोध बापू के नेतृत्व में किया था और अंतत: उनके जीवन की आहुति हुई। उनकी 150वीं जयंती के साल के अंत में इस तरह का बिल आना तो धार्मिक पहचान के आधार पर बंटवारे के खिलाफ लड़ मरे उस महात्मा की स्मृति का तिरस्कार है। नागरिकता का जो नया कानून बन गया है, वह भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक अदृश्य लेकिन दूरगामी नतीजों वाले धार्मिक बीज को बोने वाला कदम होगा।
विशेषज्ञों को यह भी अचरज है कि धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर शरण देने के मुद्दे पर बिल में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर मुसलमानों को तो अर्हता दी गई, लेकिन नेपाल, मालदीव, श्रीलंका और म्यांमार सरीखे पड़ोसी देशों को जहां क्रमश: मधेशी, गैर सुन्नी, तमिल और रोहिंग्या धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं, बाहर छोड़ दिया गया। बताया जाता है कि जब विधेयक का प्रारूप बन रहा था तो विशेषज्ञों ने सुझाव दिया था, कि शरण के योग्य अल्पसंख्यक समुदायों का अलग से सिख, जैन, बौद्ध या पारसी आदि नाम न लिखा जाए, उनको सिर्फ ‘धार्मिक आधार पर उत्पीड़ित जन’ कहा जाए क्योंकि पाकिस्तान सरीखे कई देशों में बहुसंख्य मुस्लिम समुदाय अहमदिया या शिया अल्पसंख्यकों को भी उत्पीड़ित किया जाता रहा है।
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लेकिन प्रस्तुत हुए विधेयक में यह समझदार सुझाव नहीं दिखाई दिया। इस बाबत भी कोई साफ बात नहीं बताई गई दिखती कि शरणार्थियों के साथ हुए धार्मिक उत्पीड़न का दावा किस तरह जांचा जाएगा? न ही यह साफ हुआ है कि असम के नागरिकता रजिस्टर से बाहर छूट गए हजारों प्रवासी हिंदुओं को किस तरह दोबारा कानूनन नागरिकता मिल सकेगी, क्योंकि उस पंजीकरण की कई औपचारिकताएं अब नागरिकता के नए कानून की प्रक्रियाओं से टकराने जा रही हैं। इससे लालफीताशाही का शिकार होकर जमीनी स्तर पर ऐसा हर मामला, जितना कहा जा रहा है, उससे कहीं ज्यादा पेचीदा बन जाएगा। जैसा असम में हुआ।
सच तो यही है कि सरकार चाहे जिस दल की हो, कानूनी गुत्थियां और सरकारी औपचारिकताओं की अधिकता से हमारे यहां तुरंत कुछ भी नहीं हो पाता। न निर्माण, न ध्वंस, न मलबे की सफाई, न मुकदमों की सुनवाई। लदर-फदर सैकड़ों जातियों, उप-जातियों और धर्मों के हिसाब से ही अपने-अपने घरों में शादी-ब्याह और चुनावों में चुनावी चालें तय करने वाले राज-समाज में पश्चिमी लोकतंत्र का गणित राजकाज का नक्शा कैसे तय करे? जिस शाइनिंग इंडिया में नवीनतम तकनीकी से लैस लड़ाकू विमानों के पहियों तले देवता पूज कर नींबू, मिर्ची, नारियल फोड़ने के बाद ही काम संपन्न होता हो, सालाना सरकारी और स्कूली कैलेंडर कृष्ण, पैगंबर, नानक, ईसा मसीह, गांधी, सावरकर या दीनदयाल जी आदि के जन्मदिवस, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, राष्ट्रीय हिंदी दिवस वगैरा के औपचारिक आयोजनों तथा छुट्टियों से पटे हों, वहां राज-समाज की कथित दुरुस्ती की कोई गंभीर पहल कैसे जड़ पकड़ेगी?
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फिर भी फिलवक्त भीषण मंदी, राजकोषीय घाटे, बैंकिंग व्यवस्था की टूटती सांसें और बेरोजगारी जैसी मूल समस्याओं पर संसद के चंद जोशीले भाषणों, कुछ कटु भाषी नेताओं की भड़काऊ टिप्पणियों, आलोचकों के घर आधी रात की दबिश या नागरिकता विधेयक पर अखबारों तथा टीवी पर प्रायोजित रपटों-बहसों से बहुत देर तक पर्दा नहीं डाला जा सकेगा। इन मूल समस्याओं को सुलझाने की बजाय पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से सिर्फ गैर मुस्लिम शरणार्थियों को ही स्वीकार करने के प्रस्ताव वाले नागरिकता संशोधन विधेयक के संसद से पास होने के बाद की नई आंधी झारखंड या बंगाल के आसन्न चुनावों में बालाकोट की तरह वोट बैंक राजनीति के नजरिए से भले बीजेपी को ताकत दे, पर दीर्घकालिक नजरिए से यह उसके लिए भी राजकाज चलाने में (जब उसका नंबर आया तो) कांटे बोएगा।
अभी भी इसका विरोध सिर्फ विपक्ष ही नहीं, असम और कई उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के राज्य कर रहे हैं जिनके लिए कहा गया है कि वे किसी न किसी कानून की तहत इससे बाहर हैं। उनको चिंता है कि शेष राज्यों से बाहर हो गए शरणार्थियों के हुजूम अब उधर की ओर मुड़ने लगेंगे। असम इसे 1985 के समझौते का उल्लंघन भी बता रहा है जिसने नागरिकता पाने के लिए प्रवास की जरूरी कट ऑफ तिथि (प्रस्तावित 2014 से कहीं पहले) 1971 तय की थी। बीजेपी नेता हिमंत बिस्वसरमा ने साफ कह दिया है कि इस कानून के बनने के बाद जो प्रवासी लोग इस्लामी देशों से भारत आएंगे उनको बस अल्पकालिक परमिट मिलेगा। उन्हें भारत में संपत्ति खरीदने या उपक्रम चलाने की इजाजत नहीं होगी। पर वह भी नहीं बता रहे कि असम में बसे उन 12 लाख हिंदू बंगाली प्रवासियों का, जिनको नागरिकता पंजीकरण खाते में जगह नहीं मिली है, क्या होगा? ऐसे अनेक सवाल जो अभी अनुत्तरित हैं, लगातार देश को मथते रहेंगे और संसद का कीमती समय और राजकीय संसाधन जो गरीबी, बेरोजगारी मिटाने, शिक्षा, स्वास्थ्य कल्याण या पुलिस सुधारों पर खर्च होने थे, हम इन सवालों से जूझने में गंवाते रहेंगे।
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यही नहीं, यह बिल कानून बनकर पड़ोसियों से हमारे रिश्तों में भी खटास लाएगा और सीमाओं को दोनों तरफ अशांत बना देगा। सीना ठोक कर लुक ईस्ट (पूर्वी देशों की तरफ रुख करो) की विदेश नीति की घोषणा करने वाला भारत जमीनी स्तर पर समीक्षकों को पश्चिम, खासकर अमेरिका, यूरोप का अधिकाधिक मुरीद और अपने पूर्वी पड़ोसियों का दुश्मन अधिक बनता दिख रहा है। इसका प्रतिकार कौन करे? केंद्र के सीमित ताकतवर धड़े की निरंतर ठकुरसुहाती पर कायम भारत की वर्तमान जुगाड़ू ऊर्जा (पानी सर से गुजरने पर ही) नारी सुरक्षा से लेकर राजनीति तक में अजीब अतियथार्थवादी कहानियां पैदा कर रही है। इनमें हमको कई बार कराधान विभाग, सैनीटरी इंस्पेक्टर का, शिक्षा विभाग, मौसम पर अवैज्ञानिक जानकारियों के रखवाले और पुलिस, बलात्कार के पीड़ितों के उत्पीड़क और उनके मरणोपरांत पुष्पवर्षा के बीच फिल्मी एनकाउंटर विशेषज्ञ का रोल अदा कर रहे हैं। विदेशी अखबारों की भर्त्सना बढ़ी तो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बाहरी मीडिया की अशांत क्षेत्र बताकर कई इलाकों में आवाजाही रोक दी गई। उससे क्या? सोशल मीडिया और नई संचार तकनीकी से लैस दुनिया सैकड़ों आंखों से भारत के भीतर हो रही हर हलचल को देख और उस पर कमेंट कर रही है।
सच कितनी देर तक छुपाया जा सकता है? पिछले एक पखवाड़े की पगलाई घटनाओं ने तेलंगाना से उन्नाव और राजधानी की अनाजमंडी तक यह राष्ट्रव्यापी सचाई उजागर कर दी है कि बेटी बचाओ, महिला सशक्तीकरण, सफाई अभियान या एक भारत श्रेष्ठ भारत, हमारे राज-समाज के लिए अभी भी सिर्फ जुमले हैं। हांगकांग गवाह है, कि कई बार मुट्ठी भर लोगों के देखे सपनों ने भी अचानक सही घड़ी आ जाने पर दावानल की तरह देशों को अपने घेरे में लिया है।
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