19 मई, 2024 का दिन था। अगले ही दिन अयोध्या में लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होना था। पत्रकार वेंकटेश रामकृष्णन ने देखा कि हनुमानगढ़ी मंदिर की सीढ़ियों पर लोगों की भीड़ चढ़ी जा रही है। उन्होंने मान लिया कि वे सभी बीजेपी के मतदाता हैं। उस भीड़ में शामिल लोगों पर चिलचिलाती गर्मी का कोई असर नहीं हो रहा था और वे बड़े उल्लास के साथ ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे थे।
वेंकटेश रामकृष्णन के अंदर का विद्रोही ‘जय भीम’ चिल्लाने से खुद को रोक नहीं पाया। लेकिन उनके यह नारा लगाने के साथ ही सीढ़ियों के पास सड़क पर अपनी पत्नी और छोटे-से बेटे के साथ खड़े एक व्यक्ति ने नारा लगाया: ‘जय भीम, जय संविधान’। जब रामकृष्णन ने पूछा कि क्या उन्हें इस भीड़ में अलग दिखने में डर नहीं लग रहा है, तो उस आदमी ने कहा कि आगे उसके कम-से-कम 50 साथी ऊपर की सीढ़ियों पर हैं और वे सब भी खुशी-खुशी ऐसा ही करते। मेरे हैरान मित्र ने कहा: ‘ये श्रद्धालु हिन्दू बीजेपी के खिलाफ वोट करेंगे?’ जवाब आया: ‘आस्था अपनी जगह है, और हमारा वोट अपनी जगह’।
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2024 के आम चुनाव के संदेश को समझने की कोशिश करते हुए, मुझे लगता है कि भारतीय मतदाता अपनी धार्मिक आस्था और मतदान की संवैधानिक प्रथा में अपने विश्वास के बीच एक नया संतुलन पा रहा है। मतदाता ने अपने तर्क को उन लोगों के हवाले नहीं कर दिया है जो केवल आस्था के आधार पर उनका वोट चाहते हैं, न ही उसने अपनी आस्था और उससे जुड़े रीति-रिवाजों को छोड़ा है। अगर कुछ हुआ है, तो सिर्फ इतना कि संविधान ने एक नया आभामंडल प्राप्त कर लिया है।
संभवतः इसे एक पवित्र पुस्तक के रूप में देखा जा रहा है और इसे बदलने या इसे खोखला करने के प्रयासों को बहुत ही नापसंदगी के साथ देखा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अलग-अलग राय के कोलाहल को मतदाता अपने फैसले पर हावी होने नहीं दे रहा। मतदाता यह संदेश दे रहा है कि उनके साथ झुंड वाला व्यवहार नहीं किया जा सकता और इस मामले में हर मतदाता की अपनी अलग राय हो सकती है और वह किसी की जागीर नहीं है और वह सबको समान तरीके से जवाबदेह ठहराएगा।
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राजनीति के लिए इसका निहितार्थ यह है कि किसी व्यक्ति के अधिकार क्या हों, उसकी पात्रता क्या हो, यह किसी तानाशाही शासन की व्यापक सार्वजनिक भलाई की समझ पर निर्भर नहीं। न्यायालयों सहित विभिन्न संस्थाएं अब व्यक्तिगत अधिकारों की अनदेखी नहीं कर सकतीं; अगर वे ऐसा करना चाहें तो केवल अपनी विश्वसनीयता खोने के जोखिम पर ही कर सकेंगी।
जाने-माने न्यायविद फली नरीमन ने एक बार मुझसे कहा था कि अपने बूते बहुमत पाने वाली सरकार के समय न्यायपालिका भी संगत व्यवहार करने वाली हो जाती है; अब यह देखने का वक्त है कि क्या इसका उल्टा भी सच होता है?
पिछले एक दशक में, न्यायपालिका अक्सर कार्यकारी ज्यादतियों पर लगाम लगाने के बजाय सत्ता के साथ कदमताल करती हुई दिखाई दी है। न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों के मामले में भी न्यायपालिका ने तब मामले पर किसी तरह की कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई जब उसके कॉलेजियम की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया या उसकी अनदेखी की गई। इसने तब भी नजरअंदाज करने का विकल्प चुना जब नुकसानदायक राहत की मांग की गई। न्यायालयों ने मामलों की जांच करने पर सहमति जताई लेकिन यथास्थिति को बहाल नहीं किया और सोची-समझी निष्क्रियता के साथ मामले को सार्वजनिक राडार पर हल्का पड़ने दिया।
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एक ऐसे गणतंत्र में जिसने संविधान में अपनी आस्था जताई है, संवैधानिक न्यायालयों का पहला काम उस आस्था को सुदृढ़ करना होना चाहिए। न्यायालयों को राजनीतिक उद्देश्य से शुरू किए गए मामलों में स्वतंत्रता के घोर हनन को संबोधित करना और उसे सही करना चाहिए। चाहे वह भीमा कोरेगांव का मामला हो, उमर खालिद का मामला हो, शरजील इमाम का मामला हो या फिर अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन का-बिना मुकदमे के जेल में रखने की ऐसी छूट जारी नहीं रह सकती। यदि न्यायालय नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे तो वे जल्द ही कार्यकारी ज्यादतियों के साधन बनकर रह जाएंगे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल एक मिथक बनकर रह जाएगी यदि खुद को अभिव्यक्त किए जाने के बाद किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जाती। संवैधानिक न्यायालयों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आगे बढ़कर की गई रक्षा ही अन्य सभी स्वतंत्रताओं की नींव रखती है। जैसा कि जॉर्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में लिखा है: ‘स्वतंत्रता यह कहने की आजादी है कि दो और दो चार होते हैं। यदि यह दी जाती है, तो बाकी सब अपने आप हो जाता है।’
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भारत के लोगों ने चुप रहने के लिए नहीं बल्कि अपनी आवाज बुलंद करने के लिए मतदान किया है। उन्होंने संविधान की रक्षा के लिए मतदान किया है। कहीं-न-कहीं अवचेतन रूप से यह संदेश दे दिया गया है कि संवैधानिक लोकतंत्र को इसे नष्ट करने पर तुले लोगों से बचाने की जरूरत है। इस संदेश को व्यापक रूप से प्रचारित करने की जरूरत है कि संविधान का स्वामित्व मतदाताओं के पास है, न कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास। संविधान शब्द ‘सम’ (सभी पर समान रूप से लागू) और ‘विधान’ (कानून) से बना है।
नागरिकों को यह समझने की जरूरत है कि संविधान सभी नागरिकों पर लागू होने वाली कानून की एक सामान्य प्रणाली है, जो उन्हें समाज और देश से जोड़े रखती है और संविधान ही प्रत्येक नागरिक के हितों को पूरा करता है।
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संविधान सभा जिसमें लगभग 80 फीसद रूढ़िवादी हिन्दू थे, ने भारी हिंसा की पृष्ठभूमि में अधिकारों और शासन का चार्टर लिखा था। उन्होंने इसे अपने समय के पागलपन के खिलाफ सुरक्षा के रूप में लिखा था। मोटे तौर पर संवैधानिक शासन की तीन-चार पीढ़ियों ने यह सुनिश्चित किया है कि नागरिकों में आज भी उन गारंटियों के कमजोर पड़ने से बचने की प्रवृत्ति है।
लेकिन, नागरिक संविधान द्वारा बनाई गई संस्थाओं पर भरोसा करके निश्चिंत नहीं हो सकते। जब नागरिक संस्थाओं की रक्षा करते हैं, तभी वे नागरिकों के हित में काम करती हैं। अन्यथा ये संस्थाएं आसानी से कार्यपालिका की अनुलग्नक बनकर रह जाती हैं। आम चुनाव के नतीजों ने अधिनायकवाद की भारी-भरकम दीवार में उम्मीद की एक छोटी सी खिड़की खोल दी है। इस समय यह प्रार्थना ही की जा सकती है कि राजनीतिक क्षितिज पर आने वाले तूफानों से यह खिड़की बंद न हो जाए। खिड़की को अपनी जगह पर रखने वाले चौखट और कब्जों की समय-समय पर जांच की जानी चाहिए। जय भीम, जय संविधान!
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