विचार

राम पुनियानी का लेख: चर्च नहीं कर रहा मोदी सरकार को अस्थिर, आर्चविशप निभा रहे हैं अपनी नागरिक जिम्मेदारी

देश का वातावरण दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक असहिष्णु होता जा रहा है और मुसलमान और ईसाई दोनों इसका परिणाम भुगत रहे हैं। क्या धार्मिक नेताओं को राजनैतिक विषयों पर बोलना चाहिए? हमारे जैसे समाज में, जो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष नहीं है, पुरोहित वर्ग को दुनियावी विषयों पर बोलना ही होगा।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया आर्चविशप निभा रहे हैं अपनी जिम्मेदारी

विश्व हिंदू परिषद् के प्रवक्ता सुरेन्द्र जैन ने पिछले 7 जून को कहा कि भारत का चर्च मोदी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है। उनका यह बयान गोवा और दिल्ली के आर्चबिशपों के वक्तव्यों की पृष्ठभूमि में आया। दिल्ली के आर्चबिशप अनिल काउडू ने 8 मई, 2018 को दिल्ली आर्चडाइसिस के अंतर्गत आने वाले पेरिश पादरियों को लिखे एक पत्र में उनसे यह अनुरोध किया कि वे ‘हमारे देश‘ के लिए प्रार्थना करें। पत्र की शुरूआत इस टिप्पणी से होती है कि, ‘हम इन दिनों देश में एक अशांत राजनैतिक वातावरण देख रहे हैं, जो हमारे संविधान में निहित प्रजातांत्रिक सिद्धांतों और देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए खतरा है।’ पत्र में दिल्ली के 138 पेरिश पादरियों और पांच अन्य धार्मिक संस्थाओं के प्रमुखों से यह अनुरोध किया गया है कि वे ‘हर शुक्रवार को उपवास रखकर इस स्थिति के लिए प्रायश्चित करें और अपने और देश के आध्यात्मिक नवीकरण के लिए त्याग और प्रार्थना करें।’ गोवा और दमन के आर्चबिशप फिलिपी नेरी फेरो ने कहा कि देश में मानवाधिकारों पर हमला हो रहा है और संविधान खतरे में है, और यही कारण है कि अधिकांश लोग असुरक्षा के भाव में जी रहे हैं। अपने वार्षिक पेस्टोरल पत्र में उन्होंने ‘पादरियों, धर्मनिष्ठ लोगों, आम नागरिकों और सदइच्छा रखने वाले व्यक्तियों‘ को संबोधित करते हुए कैथोलिक धर्म के मानने वालों से यह अनुरोध किया कि वे ‘राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाएं‘ और ‘चापलूसी की राजनीति से तौबा करें।’ उन्होंने लिखा, “चूंकि आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं इसलिए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम हमारे संविधान को बेहतर ढंग से समझें और उसकी रक्षा के लिए अधिक मेहनत से काम करें।” उन्होंने यह भी लिखा कि ‘ऐसा प्रतीत होता है कि प्रजातंत्र खतरे में है।’

दोनों ही पत्र, धार्मिक अल्पसंख्यकों की पीड़ा की अभिव्यक्ति प्रतीत होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा की घटनाओं की भीषणता और संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। यद्यपि ईसाई-विरोधी हिंसा बहुत स्पष्ट दिखलाई नहीं देती और कई लोग तो यह भी कहते हैं कि वह हो ही नहीं रही है, परंतु तथ्य यह है कि छोटे पैमाने पर देश के अलग-अलग स्थानों में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा निरंतर जारी है और ऐसी अधिकांश घटनाओं की खबर राष्ट्रीय मीडिया में स्थान नहीं पाती। वर्ल्ड वॉच लिस्ट 2017, भारत को ईसाईयों की प्रताड़ना के संदर्भ में नीचे से 15वें स्थान पर रखता है। चार साल पहले भारत इस सूची में 31वें स्थान पर था।

इवेनजेलिकल फ़ेलोशिप ऑफ़ इंडिया के विजेश लाल के अनुसार, उन्होंने ‘पिछले वर्ष ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा और अन्य तरह की प्रताड़ना के 350 प्रकरणों का दस्तावेजीकरण किया है। बीजेपी के सत्ता में आने के पूर्व ऐसी घटनाओं की संख्या प्रतिवर्ष 140 थी। 2017 में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा की घटनाओं की संख्या, उड़ीसा में 2008 में हुई भयावह ईसाई-विरोधी हिंसा के बाद से सबसे अधिक है।’

2017 के क्रिसमस के आसपास, मध्यप्रदेश में केरोल गायकों पर हमला हुआ और धर्मांतरण करवाने के आरोप में उनके विरूद्ध प्रकरण भी दर्ज किया गया। ईसाई समुदाय के नेताओं का कहना है कि ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा में इसलिए बढ़ोत्तरी हो रही है क्योंकि जमीनी स्तर पर ऐसी हरकतें करने वालों को बड़े नेताओं की ओर से फटकारा नहीं जाता।

देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा की घटनाओं में भी 2017 में वृद्धि हुई। 2014 में इस तरह की 561 घटनाएं हुईं थीं, जिनमें 90 व्यक्ति मारे गए थे। इसके बाद के वर्षों में हिंसा की घटनाओं और उनमें मरने वालों की संख्या (कोष्ठक में) इस प्रकार थीं: 2015 - 650 (84), 2016 - 703 (83), 2017- 822 (111)। पवित्र गाय और बीफ भक्षण के मुद्दों पर पीट-पीटकर लोगों की हत्या करने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। इंडियास्पेन्ड द्वारा मीडिया में आई खबरों के आधार पर की गई विवेचना के अनुसार ‘गाय से जुड़े मुद्दों पर पिछले आठ वर्षों (2010-2017) में हुई हिंसा की घटनाओं में से 51 प्रतिशत के शिकार मुसलमान थे और 63 ऐसी घटनाओं में मरने वाले 28 भारतीयों में से 86 प्रतिशत मुसलमान थे। इन घटनाओं में से 97 प्रतिशत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मई 2014 में सत्ता में आने के बाद हुईं और गाय से संबंधित हिंसा में से आधी घटनाएं (63 में से 32) उन राज्यों में हुईं, जहां बीजेपी की सरकारें हैं।

विहिप के प्रवक्ता ने जो कहा लगभग उसी तरह की बात अन्य हिन्दू ‘राष्ट्रवादी‘ नेता भी कह रहे हैं। उनका तर्क है कि चर्च के नेता भला ऐसे वक्तव्य कैसे दे सकते हैं जिनके राजनैतिक निहितार्थ हों। वे ऐसे मुद्दों पर अपनी राय सार्वजनिक कैसे कर सकते हैं जिनसे चुनावों पर असर पड़ने की संभावना हो।

उड़ीसा के क्योंझार में 1999 में पास्टर ग्राहम स्टेन्स की हत्या के पहले तक, चर्च के नेता राजनैतिक टिप्पणियां करने से बचते थे। उसके बाद से कुछ पादरियों ने समुदाय की पीड़ा को व्यक्त किया। सामान्यतः चर्च के नेता चुपचाप अपनी प्रार्थना और सामुदायिक सेवा कार्यों में लगे रहते हैं। ईसाईयों के विरूद्ध तेजी से बढ़ती हिंसा की घटनाओं के बाद उनमें से कुछ ने इस विषय पर बोलना शुरू किया है।

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देश का वातावरण दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक असहिष्णु होता जा रहा है और मुसलमान और ईसाई दोनों इसका परिणाम भुगत रहे हैं। क्या धार्मिक नेताओं को राजनैतिक विषयों पर बोलना चाहिए? क्या यह सही नहीं है कि एक योगी को सत्ता में नहीं होना चाहिए? हमारे जैसे समाज, जो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष नहीं है, में पुरोहित वर्ग को दुनियावी विषयों पर बोलना ही होगा। हम देख रहे हैं कि किस तरह हिन्दू बाबाओं और साध्वियों की एक बड़ी भीड़ राजनीति में घुस आई है। विहिप, जिसके नेता ने आर्चबिशप के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, भी एक धार्मिक संगठन है, जिसका राजनैतिक एजेंडा है। हमारे देश में बड़ी संख्या में धार्मिक व्यक्तियों ने राजनीति और चुनावों को प्रभावित करने के प्रयास किए हैं। करपात्री महाराज ने हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था और 1966 में साधुओं ने गौ-वध पर प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर संसद तक यात्रा निकाली थी।

इन दिनों अनेक भगवाधारी राजनेता चुनाव लड़ रहे हैं और राजनीति कर रहे हैं। उमा भारती, साध्वी निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोग साधु-संत होने का दावा करते हैं और साथ में राजनीति में भी भाग लेते हैं। कई मौलानाओं ने राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण किया था जिनमें मौलाना आजाद भी शामिल थे। अतः आर्चबिशपों की मात्र इसलिए निंदा करना क्योंकि उन्होंने अपनी राय व्यक्त की, अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। आखिर वे भी इस देश के नागरिक हैं और उन्हें सामाजिक मुद्दों पर अपनी बात देश के सामने रखने का पूरा हक है।

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