सन् 2024 में बदलाव जरूरी है। इसकी संभावना है और यह हकीकत भी साबित हो सकता है।
लोकतंत्र में लोक ही अंततः बदलाव लाता है और वही लोक आज बदलाव की जरूरत को शिद्दत के साथ महसूस कर रहा है। भारतीय राजनीति पर निगाह रखने वालों को बदलाव की संभावना नजर आने लगी है और वे फिलहाल इसे निजी बातचीत में ही व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे ही एक विश्लेषक इंडिया टुडे के सर्वे में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के एक साल में 66 से घटकर 24 फीसदी रह जाने पर कहते हैं, ‘अगर पत्रिका ने 24 फीसदी छापा है तो हमें वास्तविक संख्या उसका आधा मानना चाहिए।
ऐसा इसलिए कि आज के माहौल में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो इस तरह के सर्वे में बेशक कह दें कि वे मोदी को पसंद करते हैं लेकिन हकीकत में वे चाहते हैं कि मोदी जाएं।’ भारत के तमाम दिग्गज नेता महसूस कर रहे हैं कि यह बदलाव जरूर होने जा रहा है और ऐसा मानने वालों में बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेता भी हैं।
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2024 में बदलाव की संभावनाओं ने विपक्षी एकता की कोशिशों में नई जान डाल दी है। इनमें सबसे अहम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अंतरिम अक्ष्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा 20 अगस्त को बुलाई आभासी बैठक थी। इसमें 18 बड़े दलों के नेताओं ने भाग लिया। इसी के समांतर राजनीतिक दलों के बाहर भी विपक्षी एकता की कोशिशें की जा रही हैं। उदाहरण के लिए, अटल सरकार में मंत्री रहे यशवंत सिन्हा द्वारा गठित राष्ट्र मंच ने 22 जून को शरद पवार के नई दिल्ली स्थित आवास पर एक सफल बैठक बुलाई। इसमें गैर-बीजेपी दलों और देश-विदेश के जन संगठनों से अपील की गई कि मोदी शासन में आम लोगों की बढ़ती तकलीफ को आवाज देने के लिए वे एकजुट हों।
कोविड संबंधी पाबंदियों में ढील तो दी गई है लेकिन आने-जाने, मिलने-मिलाने में सहजता नहीं आई है और जनसभा, विरोध प्रदर्शन वगैरह के लिए माहौल सुरक्षित नहीं। ऐसे में दिल्ली के चारों ओर बहादुरी के साथ अपने अहिंसक प्रदर्शन को जारी रखे किसान भाइयों का तहेदिल से समर्थन करना चाहिए। मानकर चलिए कि जैसे ही पाबंदियां खत्म होंगी, देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन देखने को मिलेंगे। ये प्रदर्शन उन्हीं मुद्दों पर होंगे जिनकी वजह से मोदी की लोकप्रियता में इतनी तेज गिरावट आई है। ये मुद्दे जगजाहिर हैं- कोविड के दौरान कुप्रबंधन, अर्थव्यवस्था का बुरा हाल, तेज मूल्य वृद्धि जिसने न केवल गरीबों बल्कि मध्य वर्ग का भी जीना मुहाल कर दिया है, बढ़ती बेरोजगारी वगैरह। इनकी वजह से लोगों को लगने लगा है कि मोदी ने उनके साथ धोखा किया है।
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बीजेपी सरकार का लोकतांत्रिक संस्थानों और लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला, संविधान की उपेक्षा और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने समाज के सोचने-समझने वाले वर्ग को चिंतित कर दिया है। इन्हीं सब वजहों से कोविड बाद के समय में जनाक्रोश उभरने वाला है। आने वाले दो साल में बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शनों के साथ बड़े विपक्षी नेताओं और एक्टिविस्ट्स की गिरफ्तारी की स्थितियां बनने वाली हैं। सरकार और सत्तारूढ़ दल अपनी दमनकारी गतिविधियों को राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा की गलत व्याख्या के आधार पर वाजिब ठहराने की कोशिश करेंगे। लेकिन याद रखें, बीजेपी झूठ की बलुआई बुनियाद पर टिकी अपनी कमजोर होती राजनीतिक ताकत को जितना मजबूत करने की कोशिश करेगी, 2024 के संसदीय चुनाव में बदलाव समर्थक, जन समर्थक वैकल्पिक राजनीति के उभरने की संभावनाएं उतनी ही बेहतर होंगी।
आज की जो स्थिति है, ज्यादातर लोग बदलाव चाहते हैं। लेकिन विकल्प कहां है? इसलिए जरूरी है कि गैर-बीजेपीई दल पूरी स्पष्टता के साथ तय करें कि विपक्षी एकता के लिए समझ-बूझ कैसे विकसित करनी है और जनता का विश्वास कैसे जीतना है। इसके पांच सूत्र हैं।
यह तय है कि कांग्रेस के केंद्र में रहे बिना विपक्षी एकता संभव नहीं। कमजोर हो जाने के बाद भी कांग्रेस अकेली गैर-बीजेपीई राष्ट्रीय पार्टी रह गई है। गौर करने वाली बात है कि बिना किसी राष्ट्रीय पार्टी को केंद्र में रखे बीजेपी का मजबूत विकल्प तैयार नहीं हो सकता। बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी रखने के सिद्धांत पर बना तीसरा मोर्चा कभी कायदे से व्यवहार में उतरा ही नहीं। इसलिए गैर-बीजेपी दलों को एक साथ लाने के लिए खास तौर पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अपने प्रयास दूने करने होंगे।
अगर उम्मीदों के मुताबिक कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से बराबरी के साथ पेश आती है तो उसे इन दलों का भरोसा जीतने में मदद मिलेगी और विपक्षी एकता मजबूत होगी। जहां जरूरी हो, कांग्रेस को कुछ समय के लिए पीछे होकर बीजेपी को हराने में अपने सहयोगियों या संभावित सहयोगियों की मदद करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश ऐसा ही राज्य है जहां अगले साल के शुरू में चुनाव होने हैं।
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सुशासन, जन-समर्थक विकास, अहम सामाजिक मुद्दों, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के बारे में समान वैकल्पिक दृष्टि के प्रति दृढ़ संकल्प के बिना विपक्षी एकता न तो मजबूत हो सकती है और न ही विश्वसनीय। ऐसा लगता है कि इस वैकल्पिक दृष्टि को विकसित करने पर विपक्षी नेताओं में बहुत कम बात हुई है। केवल मोदी सरकार की बुराई करने से जनमत एकमुश्त पक्ष में आने से रहा। आम आदमी को भरोसा होना चाहिए कि विपक्ष के पास देश को चलाने का बेहतर तरीका है। किसानों, कामगारों, बेरोजगारों, कलाकारों, एमएसएमई इत्यादि को संकट के इस दौर से निकालने का ठोस एजेंडा है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने में बुद्धिजीवियों, ऐक्टिविस्टों, अनुभवी अफसरों, जजों, राजनयिकों और सैन्य अधिकारियों की सेवाएं ली जानी चाहिए।
जब तक विपक्ष की वैकल्पिक दृष्टि के बारे में समाज के सभी वर्गों को जागरूक नहीं किया जाता, 2024 में बीजेपी को निर्णायक शिकस्त नहीं दी जा सकती। इसके लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बारे में सभी नेताओं को एक सुर में बोलना होगा। जब नेता एक सुर में बोलेंगे तो उनके कार्यकर्ता भी उसी तरह बोलेंगे और इस तरह देश में संदेश अच्छी तरह फैलेगा।
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अगले साल देश आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहा होगा। महात्मा गांधी समेत स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के सपनों का भारत बनाने के लिए लोगों को एकजुट करने का साल भर चलने वाला राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करने का विपक्ष के लिए यह अच्छा मौका होगा। मोदी सरकार के विभाजनकारी एजेंडे की काट के लिए विपक्ष को विविधता में एकता के सिद्धांत पर आधारित सच्ची देशभक्ति के उसी भाव को जिंदा करना होगा। यह मौका होगा जब विपक्ष अपने वादे को भी विश्वसनीय तरीके से लोगों तक पहुंचा सकता है।
मुझे पूरा भरोसा है कि विपक्षी एकता के ये पांच सूत्री मंत्र 2024 में बदलाव की जरूरत और संभावना को हकीकत में बदल सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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