भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चन्द्रशेखर आजाद का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है। उत्तर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सैन्य पक्ष को उन्होंने अंत तक कितने साहस से संभाला था, इसकी अनेक कहानियां प्रचलित हैं। पर इसके साथ समग्र मूल्यांकन के लिए यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उन्होंने साहस के साथ कितने संयम और आत्म-नियंत्रण का परिचय बार-बार दिया। उनका स्वभावगत झुकाव साहसी कार्यवाहियों की ओर था, पर योग्य सेनापति के रूप में उन्होंने अनेक बार कठिन स्थितियों की हकीकत को देखते हुए अव्यवहारिक कार्यवाहियों पर रोक भी लगाई।
किशोरावस्था में ही चंद्रशेखर ने देश को अपनी गहरी निष्ठा और हिम्मत का परिचय बहुत मार्मिक स्थितियों में दिया था। बनारस में अध्ययन कर रहे इस छात्र से एक सत्याग्रही पर एक पुलिसकर्मी का अत्याचार देखा न गया तो एक पत्थर फेंककर उसने सत्याग्रही को बचा कर पुलिसकर्मी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। बाद में पकड़े जाने पर छात्र ने सजा की परवाह न करते हुए अदालत में भी भारत माता की जय व महात्मा गांधी की जय के नारे लगाए। अपना व पिता का नाम पूछने पर नाम ‘आजाद’ व ‘स्वतंत्र’ बताया। घर का पता पूछने पर कहा ‘जेलखाना’। भयंकर बेंत की मार पड़ी तो भी इस किशोर ने और जोर से आजादी के नारे बुलंद किए। पुलिस की मार से घायल किशोर का स्वागत जनता ने बहुत जोर-शोर से किया और तभी से चन्द्रशेखर के साथ ‘आजाद’ का नाम भी जुड़ गया।
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असहयोग आंदोलन के अचानक रोक दिए जाने के बाद युवा वर्ग में जब निराशा फैली तो देशभक्त युवाओं ने नए संपर्क तलाशने आरंभ किए। आजाद ने भी उत्तर भारत के क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन व इसके नेता रामप्रसाद बिस्मिल से संपर्क साध लिया। आरंभिक जिम्मेदारियों को बहुत सावधानी व सूझ-बूझ से निभाने के कारण उन्हें संगठन में शीघ्र ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया।
संगठन के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए काकोरी नामक स्थान (लखनऊ के पास) पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटने का कार्यक्रम बनाया। क्रांतिकारी संगठन की आरंभिक स्थिति को देखते हुए इसके महत्त्वपूर्ण सदस्य अशफाकुल्ला खान ने पहले ही चेतावनी दी थी कि इतना बड़ा जोखिम अभी न लिया जाए। पर बहुमत इस प्रयास के पक्ष में था। अतः अशफाक ने भी साथियों की बात स्वीकार कर ली। अंत में हुआ वही जिसका अशफाक को डर था। ट्रेन का खजाना तो सफलतापूर्वक लूट लिया गया पर औपनिवेशिक सरकार ने इसे बड़ी चुनौती मानते हुए धर-पकड़ इतनी तेज कर दी कि संगठन के अधिकांश सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए। अशफाक व रामप्रसाद बिस्मिल सहित चार को फांसी दे दी गई व अनेक अन्य को अनेक वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया।
पर चन्द्रशेखर को पुलिस न पकड़ सकी। वे बच कर झांसी की ओर निकल गए जहां नए सिरे से क्रांतिकारी संगठन बनाया। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि नए साथियों के साथ मिलकर काकोरी के अभियुक्तों को जेल से छुड़ा लिया जाए, पर वह इस योजना की सफलता की बहुत कम संभावना को देखते हुए अंत में इसे बहुत भारी मन से त्याग दिया जाए।
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झांसी में पुलिस की नजरों में आने की संभावना के कारण आजाद पास के एक गांव में साधु के वेश में रहने लगे। उनकी कुटिया में क्रांतिकारी साथी आते-जाते थे। फिर स्थिति बेहतर होने पर आजाद फिर शहरों में आने-जाने लगे। आगामी दिनों में झांसी के अतिरिक्त कानपुर, आगरा और लाहौर में उनकी गतिविधियां अधिक रहीं।
कानपुर में कांग्रेस के महान नेता व प्रताप के संदापक गणेश शंकर विद्यार्थी क्रान्तिकारियों के लिए परम हितकारी मित्र थे। उनके माध्यम से अनेक क्रांतिकारी आपस में मिलते थे। जब चंद्रशेखर आजाद पंजाब के युवा क्रांतिकारी भगत सिंह से मिले तो दो महान प्रतिभाओं का मिलन हुआ। चंद्रशेखर की सैन्य नेतृत्व व नियोजन क्षमताओं का जब भगतसिंह की गहन अध्ययन आधारित समाजवादी सोच से मिलन हुआ तो उत्तर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को नई दिशा मिली। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में समाजवादी शब्द जुड़ गया और पंजाब व संयुक्त प्रान्त (वर्तमान में उत्तर प्रदेश) के अतिरिक्त राजस्थान व बिहार के कुछ क्रांतिकारी भी इस संगठन से जुड़ गए।
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चाहे लाला लाजपत राय की निर्मम लाठी चार्ज से मृत्यु का बदला लेने का मामला हो या अनेक अन्य अन्यायों का विरोध यह क्रांतिकारी संगठन अपने बहुत सीमित साधनों से ही आजादी की लड़ाई में नया उत्साह लाने व जन-शिक्षण की जिम्मेदारियों को निभाता रहा। भगतसिंह ने जोर दिया कि अपने क्रांतिकारी विचारों को लोगों में ले जाने के लिए एक बड़ा कदम लेना होगा। अतः उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ केंद्रीय असेंबली में अपने संगठन के प्रचार के पर्चे बांटते हुए गिरफ्तारी दी।
इसके बाद अनेक अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी हुई व उन्होंने अदालत व जेल से बहुत हिम्मत और समझ-बूझ से पूरे देश का ध्यान आजादी के उद्देश्य की ओर केन्द्रित किया। पर चंद्रशेखर आजाद को पुलिस इस समय भी न पकड़ सकी व वे क्रांतिकारी संगठन को सक्रिय बनाए रखने के अथक प्रयास करते रहे। चंद्रशेखर किशोरावस्था से ही अपने माता-पिता से बिछुड़ गए थे। अतः इन दिनों समय निकालकर वे तीन-चार दिनों के लिए अपने माता-पिता के निवास में जाकर चुपके से उन्हें भी मिल आए।
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कई प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच आजाद ने जेल से भगत सिंह को छुड़ाने की एक योजना पर गंभीरता से कार्य करना आरंभ किया। उनके नेतृत्व में एक दल लाहौर में जेल के फाटक पर उस समय पंहुच भी गया जब भगतसिंह को एक जेल से दूसरे जिले में भेजा जा रहा था। पर ऐन मौके पर कुछ स्थितियां प्रतिकूल हो जाने से आगे की कार्यवाही नहीं हो पाई।
फरवरी 1931 का महीना भी संगठन की आर्थिक व अन्य कठिनाईयों को दूर करने की उधेड़बुन में गुजरा। 27 फरवरी को वे इलाहबाद के एलफ्रेड पार्क में अपने एक साथी से मिलने जा रहे थे कि पुलिस को खबर मिल गई व उसने पार्क को घेर लिया। चन्द्रशेखर ने अपने साथी को तो पुलिस के घेरे से बचा लिया पर स्वयं अंतिम समय तक बहुत शौर्य से लड़ते हुए शहीद हुए। वीरगति प्राप्त करते समय उनकी आयु मात्र 25 वर्ष की थी व एक दशक से वे निरंतर आजादी की लड़ाई में पूरी निष्ठा से प्रयासरत थे।
क्रांतिकारी आंदोलन ने अनेक स्तरों पर आजादी के संघर्ष में नए उत्साह का संचार व आंदोलन की इस सफलता में चंद्रशेखर आजाद का अमूल्य योगदान था। लगभग एक दशक तक उनके पीछे लगे हुए पुलिस व गुप्तचर उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सके। ‘आजाद’ अंत तक आजाद ही रहे। इसकी एक वजह यह थी कि उन्होंने जनसाधारण से बहुत नजदीकी संपर्क बनाए व उनके साथ एक होकर जीवन जिया। अतः कभी साधु तो कभी मोटर मैकेनिक तो कभी किसी साधारण परिवार के मेहमान के रूप में अपने को अलग-अलग नाम से छिपा कर रखना, उनके लिए कभी कठिन नहीं रहा। जनसाधारण से अपने संपर्कों के आधार पर ही वे क्रांतिकारी संगठन ने प्रचार-प्रसार के बड़े कार्य आसानी से कर लेते थे। वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कुछ पुलिस अधिकारियों या गुप्तचरों को उन पर शक हो भी जाता था तो वे कभी भय से तो कभी सम्मान से बात को आगे नहीं बढ़ाते थे।
उनकी शौर्य कथाएं तो अनेक प्रचारित हैं पर समग्र रूप से उनकी देन इन छिटपुट घटनाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण व मूल्यवान है।
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