चंद्रशेखर जी जब प्रधानमंत्री बने तब हम 10 साल के थे। यानी चीजों को दृश्य के स्तर पर समझने की उम्र में दाख़िल हो ही रहे थे। अगले डेढ़ दशक तक हमारी तरह बलिया के बहुत सारे लोगों के चेतन-अवचेतन को प्रभावित-परिभाषित उन्होंने ही किया। उस दौर की स्मृतियों में सबसे ज्यादा जो तस्वीर उभरती है, वो चित्तू पांडे चौराहे से रेलवे स्टेशन तक टीवी की दुकानों के बाहर संसद के अंदर उनके भाषणों को सुनने के लिए उमड़ने वाली भीड़ की है। पूरा सन्नाटा छाया रहता था।
दरअसल वो वैचारिक पक्षधरता की राजनीति का निर्णायक दौर था। इसके बाद भारत को बदल जाना था। संसदीय बहसों में नेहरू के भारत की परिकल्पना को बचाने में जिन गैर कांग्रेसी नेताओं ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, उनमें चंद्रशेखर अग्रणी थे और वो ही अंत तक इस प्रतिबद्धता पर टिके भी रहे। यहां तक कि अपने एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिराकर इस प्रतिबद्धता को साबित भी किया।
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
वहीं, तब लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में रेकॉर्ड तोड़ लम्बे-लम्बे भाषण देने वाले रामविलास पासवान, जार्ज फर्नांडिज, शरद यादव, चौधरी अजीत सिंह जैसे लोग इस निर्णायक दौर के बाद धीरे-धीरे भारत की नेहरुवादी परिकल्पना के विरोधी खेमे में चले गए।
इसकी वजह शायद यह रही कि बाकी लोगों के उलट चंद्रशेखर जी की राजनीति का वैचारिक आधार गैर कांग्रेसवाद जैसी भ्रामक और हल्की बुनियाद पर नहीं टिका था। और इसीलिए वो इस धारा के एक और महत्वपूर्ण अवगुण व्यक्तिवाद से भी दूर थे, जो बाकियों में कूट-कूट कर भरा था। दरअसल व्यक्तिवाद लोहियावादी नेताओं की मुख्य संचालक शक्ति रही है।
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
ये भी चंद्रशेखर जी जैसी वैचारिक स्पष्टता रखने वाले के ही बूते की बात हो सकती थी कि खुद लोहिया जी के अंदर व्यक्तिवाद की इस कमजोरी को भी उनके जीते जी उन्होंने ही चिंहित किया था। वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय को दिये साक्षातकार (रहबरी के सवाल, चंद्रशेखर के साक्षात्कारों पर आधारित पुस्तक) में उन्होंने लोहिया जी का साथ छोड़ने की वजह लोहिया का व्यक्तिवाद ही बताया था और पहले ही अंदेशा जाहिर कर दिया था कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जिसके मुखिया खुद लोहिया जी थे, अपनी पार्टी को खुद ही इस व्यक्तिवाद के कारण छोड़ देंगे या समाप्त कर देंगे।
दरअसल लोहिया जी की अतार्किक और कुंठा की हद तक की नेहरू विरोध की नकारात्मक राजनीति जो गैर कांग्रेसवाद की आड़ में चलाई गई, उसका हिस्सा होने के बावजूद चंद्रशेखर जी अपनी इसी वैचारिक ताकत के कारण कभी उसके शिकार नहीं हुए। यहां तक कि बागी बलिया के ही गैर कांग्रेसवाद के एक और बड़े नेता जय प्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में उस दौर में कांग्रेस के खिलाफ राजनीति करने के बावजूद भी नहीं। जबकि लालू को छोड़ जेपी के बाकी चले संघम शरणम् हो गए।
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चंद्रशेखर जी का यही वैचारिक संस्कार उनसे अपने ही 75वें जन्मदिन पर 17 अप्रैल 2002 को दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से गुजरात के मुसलमानों के जनसंहार के वक्त देश के प्रधानमंत्री के बजाए संघ के प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करने और अपना राजधर्म नहीं निभा पाने के कारण इस्तीफा मंगवाता है।
अपने सार्वजनिक मूल्यों की रक्षा के लिए निजी अवसरों पर भी इस तेवर से कोई डटा रहे, ऐसा इस देश ने कितनी बार देखा है। इसीलिए हम देखते हैं कि जिस गैर कांग्रेसवाद को समाजवादी धारा का नाम दिया गया, उसमें सिर्फ एक चंद्रशेखर जी ही रहे, जिनका जीते जी कभी दूर-दूर तक इस्तेमाल संघ-जनसंघ-बीजेपी नहीं कर पाई। उनके साथ आप सिर्फ मधु लिमये, मधु दंडवते, रबी राय, किशन पटनायक, सुरेंद्र मोहन का ही नाम ले सकते हैं।
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
क्या ये महज इत्तेफाक है कि समाजवादी धारा से जुड़े ये तमाम नाम जो कांग्रेस के विरोधी होते हुए भी संघ के हाथों कभी इस्तेमाल नहीं हुए, अपने मूल में नेहरू के भारत की परिकल्पना (Idea of India) में अटूट आस्था रखने वाले थे। दूसरे शब्दों में, संघ की नजर में भी संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने में वही गैर भाजपाई नेता और दल इस्तेमाल हो सकते हैं जो अपने मूल में नेहरू के भारत की परिकल्पना के विरोधी हों।
खैर, आज चंद्रशेखर जी के न रहने पर जैसी दुर्गति उनकी हो रही है, वो एक ट्रैजेडी लगती है। उनके अपने बेटे अब उसी बीजेपी में हैं, जिसका विरोध वो जिंदगी भर करते रहे। आजमगढ़ के एक टुटपूंजिया छात्र नेता ने उनके नाम पर एक ट्रस्ट बना रखा है और उसी आधार पर पहले समाजवादी पार्टी से एमएलसी हुए और अब बीजेपी से हैं। चंद्रशेखर जी के एक करीबी पत्रकार द्वारा संकलित उनके भाषणों को चुरा कर अपने द्वारा संपादित किताब के बतौर छपवा के योगी जी से विमोचन करा चुके हैं।
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
मुख्यमंत्री जो ठाकुर जाति से आते हैं, उन्हें अपनी जाति का नेता साबित करने के लिए काफी मेहनत कर रहे हैं। उनके अपने जिला-ज्वार के बीजेपी से जुड़े ठाकुर लड़के बैनरों पर उनको भगवा में लपेट चुके हैं, जबकि इस जमात के वो तमाम लड़के जो मेरे साथ स्कूल में पढ़ते थे, उनके बीजेपी विरोधी होने के कारण उनके विरोधी होते थे।
कई बार अपने छत से उनके घर (जब तक चंद्रशेखर जी सक्रिय रहे, बलिया के चंद्रशेखरनगर स्थित उनका घर बतौर झोपड़ी ही जाना जाता था, जो फूस और नारंगी रंग की ट्राली से छाई गयी थी। अब उनके बेटे ने उसे एक आलिशान मकान में तब्दील कर दिया है) पर फहराते भगवा झंडे को देखता हूं, तो उसे लगाने वाले पर गुस्से से ज्यादा दया आती है। सोचता हूं, एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री जो आज भी जनमानस में अपनी छवि विपक्ष के नेता की ही रखते हों, उनके घर पर सत्ताधारी दल का झंडा लगा कर क्या उनको कोई अपने समीकरण में फिट कर सकता है?
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
चंद्रशेखर न व्यक्ति थे न विचार थे, जो कहीं थक कर रुक जाएं या कुंद पड़ जाएं। वो हमारे संवैधानिक मूल्यों के रास्ते पर निरंतर चलते रहने वाले एक महान यात्री थे। देश और समाज ऐसी ही यात्राओं से बनते और संवरते हैं। चंद्रशेखर चलते रहने को प्रेरित करते हैं। जड़ लोगों के वारिस परिजन होते हैं, चलते रहने वालों के वारिस चलते रहने वाले होते हैं। मैं ऐसे हजारों यात्रियों को जानता हूं, जो इस रास्ते पर निरंतर चल रहे हैं और चलने को तैयार हो रहे हैं। सबसे अहम कि इनमें से अधिकतर ऐसे हैं जो चंद्रशेखर को नहीं जानते और न जानना ही चाहते हैं और कुछ तो सबके चितरंजन भाई जैसे भी हैं जो उनके चहेते तो थे लेकिन उनकी मानते नहीं थे। लेकिन चल सब रहे हैं, उसी महान यात्रा पर- निर्भीक, निडर, तेवर के साथ। चंद्रशेखर की तरह।
(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष हैं)
Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST
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Published: 19 Apr 2021, 5:11 PM IST