नागरिकता कानून में संशोधन और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर भारतीय राजनय पर वैश्विक दबाव के बीच खबर यह आई है कि इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने कश्मीर पर विदेश मंत्रियों के विशेष सम्मेलन की योजना बनाई है। चूंकि ओआईसी मुख्यतः सऊदी अरब के प्रभाव वाला संगठन है, इसलिए माना जा रहा है कि इस सम्मेलन के कारण भारत और सऊदी अरब के प्रगाढ़ होते रिश्तों पर असर पड़ेगा। हर हाल में भारतीय विदेश नीति के नियंताओं के लिए यह बड़ी चुनौती साबित होगी।
यह सम्मेलन पाकिस्तान के अनुरोध पर बुलाया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए के निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है। मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में 19 से 21 दिसंबर के बीच कुछ महत्वपूर्ण इस्लामिक देशों का सम्मेलन हुआ था, जिसमें कश्मीर का मामला उठाने की बात थी। मलेशिया के राष्ट्रपति महातिर मोहम्मद ने यह सम्मेलन बुलाया था, जिसमें पाकिस्तान को भी आना था। 94 साल की उम्र में महातिर दुनिया के सबसे वयोवृद्ध प्रधानमंत्री हैं। उनका सम्मान है, पर वह विवाद में फंस गए हैं। अंतिम क्षणों में सऊदी अरब के दबाव में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपना क्वालालम्पुर कार्यक्रम स्थगित कर दिया, पर उन्होंने सऊदी अरब से यह आश्वासन ले लिया कि अब ओआईसी का सम्मेलन इस विषय पर यानी कश्मीर के मसले पर बुलाया जाएगा।
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क्वालालम्पुर सम्मेलन में तुर्की के राष्ट्रपति रजब एर्दोगान और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और कतर के अमीर शेख तमीम बिन हामिद अत-तानी भी शामिल हुए थे। सऊदी अरब को लगा कि क्वालालम्पुर सम्मेलन इस्लामिक देशों पर उसके वर्चस्व को चुनौती है। पिछले साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा के हाशिए पर इन नेताओं ने, जिनमें इमरान खान भी शामिल थे, इस्लामिक देशों के पक्ष में एकजुट होने का फैसला किया था। इसमें एक अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनल शुरू करने की बात भी थी। क्वालालम्पुर में जहां सहयोग की भावना बढ़ी, वहीं सऊदी अरब और इन देशों के बीच बदमजगी भी बढ़ी है। पाकिस्तान के लिए भी चुनौतियां हैं, क्योंकि वह दोनों पक्षों के बीच आ गया है। उसकी कोशिश दोनों पक्षों के बीच तादात्म्य बैठाने की है। सऊदी अरब ने यह सम्मेलन बुलाने की पेशकश जरूर की है, पर पाकिस्तान के मन में कई तरह के संदेह बाकी हैं। इसकी वजह है हाल के वर्षों में भारत और सऊदी अरब के बीच बेहतर होते रिश्ते। इन दोनों के साथ रिश्तों ने इस्लामिक देशों के संदर्भ में भारतीय विदेश नीति को नई परिभाषा दी है।
उधर, इस्लामिक देशों के बीच सऊदी अरब और यूएई एक तरफ और तुर्की, कतर तथा ईरान दूसरी तरफ नजर आ रहे हैं। क्या पाकिस्तान इनके बीच की दूरियों को कम कर पाएगा? तुर्की की मनोकामना अब इस्लामिक देशों का नेता बनने की है। तुर्की, ईरान और कतर के नेताओं के एक साथ क्वालालम्पुर में जमा होने से सऊदी शाह का माथा ठनका। उन्होंने महातिर से बात भी की, पर वह सम्मेलन टला नहीं। अलबत्ता पाकिस्तान और इंडोनेशिया ने अपने हाथ खींच लिए। क्वालालम्पुर सम्मेलन के संदर्भ में एर्दोगान ने अपने मीडिया से यह भी कहा कि दुर्भाग्य से सऊदी अरब ने पाकिस्तान पर दबाव डालकर उसे इस सम्मेलन से अलग करवा लिया। हालांकि, पाकिस्तान ने हाल में तुर्की के साथ रिश्ते बेहतर बनाए हैं, पर वह सऊदी अरब के एहसानों के बोझ तले दबा हुआ है। यही नहीं, चालीस लाख से ज्यादा पाकिस्तानी सऊदी अरब में काम करते हैं। सऊदीअरब धमकी देता रहता है कि पाकिस्तानियों को वापस भेजकर बांग्लादेशियों को बुला लेंगे।
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बहरहाल क्वालालम्पुर सम्मेलन में जहां एक तरफ मुसलमानों की वैश्विक एकता पर विचार हुआ, वहीं यह सम्मेलन इस एकता के सामने कुछ सवाल खड़े कर गया है। इस्लामिक विश्व समुदाय या उम्मा के बीच मतभेद साफ उभर कर सामने आए हैं। यह कहा गया कि इस्लामिक देशों के किसी नए ब्लॉक को बनाने की यह कोशिश है। हालांकि मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने क्वालालम्पुर सम्मेलन के एक दिन पहले कहा था कि उनकी सऊदी शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद से बात हुई है और उन्होंने उनसे कहा है कि हमारा इरादा न तो कोई नया ब्लॉक बनाने का है और न हमारी सामर्थ्य नया ब्लॉक बनाने की है। इस सम्मेलन का संदेश यही गया कि यह नया ब्लॉक बनाने की कोशिश है।
इस सम्मेलन में ओआईसी के सभी 57 देशों को निमंत्रित किया गया था। इनमें से 20 ने अपनी स्वीकृति दी थी और शामिल होने वाले चार ही थे। ओआईसी की ओर से भी मलेशिया को यह चेतावनी दी गई कि इससे इस्लाम कमजोर होगा। ओआईसी के महासचिव युसुफ अल-ओतेमीन ने कहा कि यह सम्मेलन मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी करेगा। ओआईसी के बाहर इस किस्म के सम्मेलन करना, वह भी इस दौर में जब दुनिया में कई किस्म के टकराव चल रहे हैं, इस्लामिक देशों के हित में नहीं है।
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क्वालालम्पुर सम्मेलन में कश्मीर का मसला उठा नहीं, क्योंकि पाकिस्तान वहां था नहीं। मुस्लिम देशों की शिक्षा, खाद्य सुरक्षा और आपसी व्यापार की बातें हुईं। यह भी कहा गया कि हमें डॉलर के बजाय अपनी मुद्राओं, स्वर्ण या बार्टर माध्यम से व्यापार करना चाहिए। मुस्लिम देशों की एक क्रिप्टो करेंसी बनाने की बात भी की गई। रोहिंग्या मुसलमानों, चीन के वीगुरों और कश्मीर के अनुच्छेद 370 का मामला उठ नहीं पाया। हालांकि, महातिर इसके पहले और बाद में भी कश्मीर को लेकर बयान देते रहे हैं, पर वे चीन के वीगुरों के बारे में कुछ बोलने से कतराते हैं, क्योंकि आर्थिक मामलों में मलेशिया चीन से दबता है।
संवाददाता सम्मेलन में जब किसी ने उनसे वीगुरों को लेकर सवाल किया, तो उन्होंने कहा कि हमें संबद्ध देश की बात भी सुननी होगी और शिकायत करने वालों से पूछना होगा कि उन्हें किस बात की शिकायत है। महातिर ने ईरान और कतर की इस बात के लिए तारीफ की कि ये दोनों देश आर्थिक प्रतिबंधों का बहादुरी से सामना कर रहे हैं।
भारत की इस सम्मेलन पर नजर थी, क्योंकि उसके आयोजन के पीछे कश्मीर का सवाल था। फौरी तौर पर वह बात टल गई, पर अब ओआईसी के सम्मेलन से भारत किस तरह निपटेगा, इसे समझना होगा। पाकिस्तान को एक तरफ चीन का सहारा है और दूसरी तरफ इस्लामिक देशों का। हालांकि, वह खुद कई तरह के अंतर्विरोधों से घिरा है, पर पहले कश्मीर और फिर नागरिकता संशोधन कानून के कारण भारत पर भी चौतरफा दबाव है। अब परीक्षा इस बात की है कि सऊदी अरब और यूएई के साथ हमारे रिश्तों की मजबूती कितनी है। पाकिस्तानी अखबार ‘डॉन’ ने इस बात को अपने संपादकीय में स्वीकार किया है। अखबार ने लिखा है, ‘दुनिया ने पाकिस्तान की गुहार पर वैसी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जिसकी उम्मीद थी, बल्कि अमेरिका और यूएई ने तो भारत की इस बात को माना है कि यह उसका आंतरिक मामला है।’
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अगस्त महीने की शुरुआत में पाकिस्तान के गृह मंत्री ब्रिगेडियर एजाज अहमद शाह ने भी स्वीकार किया था कि पाकिस्तान, कश्मीर मुद्दे पर अपने रुख को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन पाने में विफल रहा है। मंत्री एजाज शाह ने कहा था कि लोग हम पर विश्वास नहीं करते हैं, लेकिन वे उन पर (भारत) भरोसा करते हैं। पुलवामा कांड के बाद के घटनाक्रम में पाकिस्तान को इस्लामी देशों से जो उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई। खासतौर से इस्लामिक देशों के संगठन के सम्मेलन में तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को निमंत्रण दिए जाने के बाद इन रिश्तों में और खटास आई है।
पिछले साल फरवरी-मार्च में दोनों देशों के तनाव के बीच सऊदी अरब के शहजादे मोहम्मद बिन सलमान पाकिस्तान और भारत की यात्रा पर आए। उस यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का परंपराओं को तोड़कर स्वागत करने के लिए हवाई अड्डे जाना सुर्खियों में था। उसके पहले सऊदी अरब की यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत किया गया। पिछले साल भारत से इसरायल की सीधी विमान सेवा सऊदी अरब के सहयोग से ही शुरू हो पाई। दोनों देशों की सेनाओं के बीच समन्वय और सहयोग की खबरें भी हैं। अब इस गर्मजोशी की परीक्षा की घड़ी है।
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