जाने-माने आर्किटेक्ट सी.एस. झाबवाला ने कभी दिल्ली को एक ऐसा फीनिक्स पक्षी बताया था जो बार-बार जल मरता है, पर फिर अपनी ही राख से नया जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। बात सिरे से गलत भी नहीं। दिल्ली दुनिया की उन प्रसिद्ध लेकिन अभिशप्त नगरियों में से एक है जो कम-से-कम नौ बार बसी और उजड़ी है। अब मौजूदा सरकार बीसवीं सदी की शुरुआत में मुगलों की बनाई पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद से इतर दसवीं बार) लुटियन की रची ‘नई’ दिल्ली की पुनर्रचना को अकुला रही है। इतनी अधिक कि कोर्ट की आज्ञा से पहले ही वह प्रधानमंत्री के हाथों राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक फैले एक नए केंद्रीय विस्टा जोन के लिए भूमि पूजन करवा चुकी है। इसके बाद यदि अदालत उसे हरी झंडी दे देती है जिसका कई लोगों की राय में वह भूमि पूजन की स्वीकृति देकर संकेत दे चुकी है और सरकार 20,000 करोड़ की अनुमानित लागत का बहुप्रचारित प्लान जमीन पर उतारती है, तो लुटियन के बाद यह नगरी शायद 11वीं बार उजड़ कर नए निजाम की मंशा से बनी बिलकुल नई शक्ल अख्तियार कर लेगी।
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शायद नए की होड़ में पुरानी जन धरोहरों को बार-बार आततायियों या प्रतिस्पर्धी गुटों द्वारा क्रूरता से नष्ट होते देखना और फिर पछतावे के दौर से गुजरना इस शहर की नियति रही है। मान्यता है कि सबसे पहले यह नगरी बसी थी महाभारत काल में। धृतराष्ट्र ने राज्य के दो टुकड़े किए तो अपनों, यानी कौरवों को तो बेहतर हिस्सा दिया, पांडवों को दिया खांडवप्रस्थ का बंजर भाग। सौभाग्य से अर्जुन ने कभी उस जमाने के प्रसिद्ध स्थपतिमय दानव को आग से बचाया था। सो, उसे जा पकड़ा। उसने अर्जुन के कहने से पुराना ऋण चुकाने को चौदह महीनों के भीतर वहां पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ की जैसी दिव्यनगरी का निर्माण किया। कौरव किस तरह उसे देख कुढ़ गए और जभी महाभारत के बीज उनके मन में फूटे और फिर विनाशक युद्ध, यह सब ज्ञात है।
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आज जिस दिल्ली को हम जानते हैं और जिसे बीजेपी के भक्त ‘लुटियन की दिल्ली’ कह कर उसे उजड़ा दयार बनाने को अकुला रहे हैं, बरतानवी बादशाह एडवर्ड सप्तम के राज्या रोहण के समय मशहूर ब्रिटिश एडवार्डियन एडविन लुटियन से बनवाया गया विश्व प्रसिद्ध भवनों का धरोहरी इलाका है। अपने 55,000 सरकारी कर्मचारियों सहित आज यहां भाजपानीत केंद्रीय सरकार खुद विराजमान है और अब लुटियन की दिल्ली की जगह अपनी किस्म की नगरी रचने जा रही है। सच यह है कि यह नगरी भारत में राजकीय सत्ता की केंद्रीय नाभि थी और है। और दुर्योधन के बाद से आज तक दिल्ली की खिल्ली उड़ाने वालों तक नए-नकोर शासकों के मनों के भीतर कहीं-न-कहीं यहां की भव्यता तोड़कर अपना ठप्पा लगी नई इमारतें रचवाकर इतिहास में अमर हो जाने की कामना कुलबुलाती है। क्षेत्रीय नेता भी पीछे नहीं। कभी ठीक इसी तरह दक्षिण में जयललिता ने भी अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी करुणा निधि के नाम की सचिवालय इमारत को हस्पताल बनवाया और जगन रेड्डी ने चंद्रबाबू की स्वप्ननगरी अमरावती को ठंडे खाते में डाल दिया।
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आबादी चाहे जितनी फैली हो, राज-काज के सिलसिले में आजादी के बाद से सरकारी दिल्ली की विशाल बाबू शाही काफी हद तक औपनिवेशिक तर्ज पर ही काम करती रही है। अहंवादी राजनीति के करेले पर इस बाबू शाही की नीम चढ़ जाए तो उसकी नवनिर्माण कामना सर्व भक्षी बन जाती है। 1947 में तबके तमाम बड़े राजे-रजवाड़ों के शाही निजी आवास- पटियाला हाउस, कश्मीर हाउस, धौलपुर- बीकानेर हाउस, केरल हाउस, हैदराबाद हाउस, वगैरा, सब एक-एक कर सरकारी इमारतों के रूप में अधिगृहीत होते गए। इनके बाहरी घेरे में तीन मूर्ति भवन, विलिंगडन क्रीसेंट और राष्ट्रपति भवन के अहाते से सटा सरदार पटेल मार्ग का पॉश इलाका भी धीमे-धीमे सरकारी या अर्द्धसरकारी भवनों से भरता गया। फिर भी सरकारी लोगों में यहां बसने को मकान हमेशा कम पड़े। हर दल के सांसद और बड़े बाबू आज जो कहें, जब उनके लिए इनको ठियों को छोड़ने का समय आया तो जितनी देर तक चिपके रह सकते थे, रहे। शायर जौक तो पहले ही कह गए, कौन जाए ये दिल्ली की गलियां छोड़कर?
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यह सब अपनी जगह, फिर भी समझना कठिन है कि जब देश नोटबंदी, तालाबंदी, मंदी और छंटनियों से कराह रहा है, कुपोषित बच्चों और बेरोजगार नौजवानों की तादाद इतिहास में सबसे अधिक हो गई है, उसी समय देश पर एकछत्र शासन करती बीजेपी और उसके मित्रों को अचानक धौलपुर के गुलाबी पत्थर से बनी लुटियन की बनाई सरकारी बसासत इतनी काहे खटकने लगी कि बिना जनता या विपक्ष की सुने, सिल्वेनिया लक्ष्मण के पुराने इश्तहार के शब्दों में, ‘पूरे घर को बदल डालूंगा’ नुमा घोषणा कर दी गई। उसे भी अब्भी के अब्भी कार्यान्वित करने की ऐसी उतावली? यह तो लचर-सा तर्क है कि देश की आबादी के अनुपात में जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाकर 888 करना जरूरी है। लेकिन इतना बड़ा निर्माण कार्यचार दिन में तो होगा नहीं, बरसों लग जाएंगे। आर्किटेक्ट राज रेवाल (जिन्होंने संसद की लाइब्रेरी एनेक्सकी भव्य बिल्डिंग बनाई) तथा उनके अन्य जाने-माने स्थापत्यविद् एके जे मेननका कहना है कि इमारतों में नई तकनीकी और अधिक जगह बनाने की बात वाजिब है लेकिन इन खूबसूरत राष्ट्रीय धरोहर इमारतों में भीतर ही भीतर तरमीम करने से जगह तथा नई तकनीकी- दोनों समाहित की जा सकती हैं। कौन कहता है कि तनिक फेरबदल से 888 लोग मौजूदा लोकसभा भवन में नहीं अंट सकते? उनका बाहरी रूप तो बना रहे, भीतर का भाग कम समय में व्यवस्थित और नए समय के अनुकूल बनाना संभव है।
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पर ताजा जानकारियों के अनुसार, सरकार की इच्छा सिर्फ कला परक नहीं, भू-अधिग्रहण से भी जुड़ी है। इस इलाके में अब एक नए प्रधानमंत्री आवास, उपराष्ट्रपति आवास, दोनों के ऑफिस सहित विशेष सुरक्षाबल कर्मियों के लिए भी आवास बनाना प्रस्तावित है। बताया जाता है कि पुरानी इमारतों को अजायबघर बना दिया जाएगा। यह सोच कुतर्कसंगत है, अन्याय पर कभी। मूल नक्शे में जनता द्वारा तथा सरकारी भवनों द्वारा इस्तेमाल करने वाली जमीन का परिमाण था कि पर्यावरण संरक्षण तथा जनता की तादाद में बढ़ोतरी के मद्देनजर 60 प्रतिशत जगह जनता के लिए छोड़कर कुल 40 प्रतिशत को सरकारी इमारतों से भरा जाए। जनता के लिए उसके हिस्से की जमीन में खुले पार्क तथा नहर, जंतर-मंतर सरीखे मैदान आदि की व्यवस्था की गई जिनका बहुत बड़े पैमाने पर आज भी जनसंकुल होती जा रही दिल्ली के आम नागरिक हर रोज प्रयोग करते हैं। नई योजना की तहत जनता के लिए अब कुल 5 प्रतिशत जगह बचेगी जबकि सरकार को 95 प्रतिशत जमीन पर कब्जा मिलेगा। जाहिर है, जब खुली जगह बेहद सिमट जाएगी तो जनता की आवाजाही सीमित होगी, पर्यावरण बिगड़ेगा, सो अलग।
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दूसरा सवाल यह कि नए स्कीम की तहत विश्व धरोहर की मान्यता पाने के लिए लुटियन निर्मित दिल्ली के कुछ महत्वपूर्ण भवनों के नाम की पेशकश यूएन को भेजी जा चुकी है। उनकी रक्षा कैसे होगी? क्योंकि नए प्रस्तावित तोड़-फोड़ की तहत वह सारा इलाका आने जा रहा है जिस पर कम-से-कम तीन ऐसी बेशकीमती धरोहरों से भरी राष्ट्रीय इमारतें- नेशनल म्यूजियम, नेशनल आर्काइव्स तथा नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स खड़ी हैं। 1952 से अब तक यहां देश की नायाब कला संस्कृति की पुरातात्विक महत्ववाली धरोहरें जिनमें शिल्पकला से लेकर चित्र नक्शे, आभूषण, सिक्के, पोशाकें, हथियार और प्राचीनतम युगों के मृद्भांडतक शामिल हैं, विशेषज्ञों के द्वारा रचे गए खास कक्षों-तह खानों में सुरक्षित हैं। अब से नई इमारतें बनने तक वे राष्ट्रीय धरोहरें किस तरह कहां सुरक्षित रखी जा सकेंगी?
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एक बात साफ है। अधिकतर जो दिक्कतें उभर रही हैं, कहीं-न-कहीं दिल्ली सरकार सर्वोपरि है, जनता नहीं, की अहंकारी भावना से जुड़ी हैं। शताब्दियों पुराना अपने नाम को अजर-अमर बनाने का यह अहंवादी राजनीतिक मर्ज चुटकी बजाते जाएगा नहीं। उसके लिए लंबे धीरज भरे इलाज की जरूरत है। पर लोहिया जी कहते थे, जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। एक हद से अधिक कोंचा जाए तो कीड़ा भी पलटवार करता है। पंजाब से उत्तर प्रदेश तक फैलता किसान आंदोलन क्या जनता की आस-निरास होने के बड़े तूफान की पूर्व चेतावनी तो नहीं?
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