कुछ मस्जिदों के इमामों और चंद पढ़े लिखे हल्को की तरफ से यह अपील जारी हुई है कि मुसलमान इस साल ईद के त्योहार और खुशियों से दूर रहें। सोशल मीडिया पर यह भी अपील पढ़ने को मिली कि ईद की नमाज काली पट्टी बांध कर पढ़ी जाए। इसमें कोई शक नहीं कि लगभग सारे भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यों के दिल उदास हैं। जाहिर है कि जब एक पूरे समुदाय के सिर पर बुलडोजर का खतरा मंडरा रहा हो तो फिर कैसी खुशी और कहां का त्योहार। लेकिन जिस समुदाय की नियति ही कठिन हालात भुगतना बन जाए तो उसके लिए तो त्योहारों की खुशी कुछ ज्यादा ही अहम हो जाती है।
सब बखूबी वाकिफ हैं कि मुस्लिम समुदाय की लगभग 90 फीसदी आबादी गरीब, मजदूर, कारीगर तबके से है। वह दिन रात मेहनत-मजदूरी कर अपनी जिंदगी गुजारता है। कभी रिक्शा चलाकर, तो कभी कोई ठेला लगाकर या पटरी पर बैठकर सामान बेचकर या फिर किसी हुनर को सीखकर घरों में बिजली, बढ़ई और इसी तरह के काम कर अपनी जिंदगी बसर करता है। उसकी जिंदगी की सुबह कब और शाम होती है, उसको यह भी पता नहीं होता है। वह सोता भी है तो आराम के लिए नहीं बल्कि फिर से काम पर जुट जाने की शक्ति संजोने के लिए। इस तबके की जिंदगी में महज एक त्योहार की खुशी आती है। वह इस मौके पर दिन रात और रोजमर्रा की जिंदगी से ब्रेक भी ले लेता है और त्योहार मनाकर खुश हो लेता है।
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ईद दरअसल इसी तबके का सबसे बड़ा त्योहार है। वह सख्त मेहनत के बावजूद ज्यादातर रोजे रखता है, जुमा अलविदा की नमाज बड़ी अकीदत (श्रद्धा) से पढ़ता है, फिर अपनी सख्त मेहनत से कमाई में से बचाए हुए चार पैसों से अपने और अपने घरबार के लिए नए कपड़े खरीदकर घर वालों, खानदार वालों, मिलने-जुलने वालों के साथ ईद की खुशी एक दिन नहीं बल्कि दो-चार दिन तक मनाता है। खुदा के वास्ते इस गरीब से ईद की खुशी मत छीनिए। ईद जरूर मनाइए और पूरे जोश और उत्साह के साथ मनाइए, लेकिन शांति और सद्भाव का दामन भी पकड़े रहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ईद या किसी अन्य मामले में मुस्लिम विद्वानों से गुजारिश है कि अपनी राय शरीया मामलों के अलावा अन्य मामलों पर न दें तो बेहतर होगा। ईद का चांद दिखा या नहीं, यह ऐलान उलेमा ही करें। उलेमा यह भी तय करें कि किस मस्जिद में नमाज़ कब होगी, लेकिन अगर उलेमा राजनीतिक और सामाजिक मामलों में दखल नहीं देंगे तो ये मुस्लिम समुदाय के हक में होगा
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मुस्लिम समुदाय को बाबरी मस्जिद के मामलों से सीख लेनी चाहिए। बाबरी मस्जिद के मामले में कितनी बार मुसलमानों ने उलेमा की सलाह पर काली पट्टी बांधकर ईद का बहिष्कार किया है। क्या नतीजा हुआ! जवाब में हिंदू, साधु और संत राम मंदिर के नाम पर खड़े हो गए। यदि मुसलमान राजनीतिक और सामाजिक मामलों में उलेमा की सलाह का पालन करते हैं, तो हिंदुओं, साधुओं और संतों को भी धर्म का पालन करने का अधिकार होगा। इसके परिणाम क्या होंगे, यह किसी को समझाने की जरूरत नहीं है।
मौजूदा हालात में अगर मुसलमान सामूहिक कदम उठाते हैं तो संघ हिंदू भी इसका व्यापक जवाब देगा. इसके दुष्परिणामों से आप भली-भांति परिचित हैं। इसलिए, कृपा करके उलेमा मुस्लिम समुदाय को कोई राजनीतिक सलाह न दें और हर किस्म के फतवों, मशविरों और टीवी डिबेट से दूर रहें। बेहतर होगा कि आप ईद को लेकर अपनी राय न दें।
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तीसरी बात यह है कि मुस्लिम अर्थव्यवस्था असंगठित क्षेत्र से जुड़ी होती है। जैसा कि कहा गया है कि 90 फीसदी मुस्लिम आबादी किसी भी संगठित रोजगार या व्यवसाय में शामिल नहीं है। ईद एक ऐसा त्योहार है कि जब एक मुसलमान खुद इस त्योहार का सामान बड़े पैमाने पर बेचकर दो पैसे कमाता है, अगर ईद का बहिष्कार किया जाता है तो उसकी आय भी खत्म हो जाती है। इसलिए उसके पेट पर लात मत मारो और ईद मनाओ।
लेकिन एक बात का ध्यान रहे। यह त्योहार सबको बहुत ही शांतिपूर्ण तरीके से मनाना चाहिए। ईद की नमाज में मौजूद इमामों को हर मस्जिद से लोगों को शांतिपूर्ण रहने का आह्वान करना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि कई जगहों पर मस्जिदों के सामने कुछ हरकतें हो सकती हैं। आपको बहुत धैर्य रखना होगा। आप धैर्य के उसी मार्ग का पालन करें जो पैगंबर मुहम्मद ने खुद मक्का में सभी कठिनाइयों के समय अपनाया था। जरा सोचिए कि यह आपके लिए मुश्किलों का समय है और इसमें पैगम्बर के बताए रास्ते पर चलें।
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