विचार

अगले लोकसभा चुनाव से पहले जातीय जनगणना का राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर उभरने की संभावना! जानें आखिर ये जरूरी क्यों?

इस बार आम चुनाव में इसके राष्ट्रीय मुद्दा बनने के आसार है। कोर्ट पर निगाह क्योंकि इसके आदेश से आगे की दिशा तय होगी। कल्याणकारी योजनाएं लागू करने के लिए ये आंकड़े जरूरी है।

आखिर जातीय जनगणना क्यों जरूरी है? (फोटो: Getty Images)
आखिर जातीय जनगणना क्यों जरूरी है? (फोटो: Getty Images) 

इस साल जनवरी में बिहार सरकार ने 'जातीय जनगणना' शुरू करवाई। इस पर इस महीने महत्वपूर्ण कानूनी तकरीरें हुईंं। जातीय जनगणना को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुनने से जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मना कर दिया। न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट तौर पर पूछा कि सरकार कैसे फैसले कर सकती है कि कितनी सीटों और नौकरियों आदि को आरक्षित किया जा सकता है। पीठ ने याचिकाकर्ताओं से उच्च न्यायालय जाने को कहा।

याचिकाकर्ता अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट लौट आए। इस बार न्यायमूर्ति एम.आर. शाह और न्यायमूर्ति परीदवाला की पीठ ने पटना उच्च न्यायालय को याचिका यह कहते हुए वापस कर दी कि वह योग्यता के आधार पर और याचिका सुनवाई के लिए लाए जाने पर तीन दिनों के अंदर सुनवाई करे। मई में रिटायर हो जाने वाले न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि 'वहां इतना अधिक जातिवाद नहीं है।' उन्होंने यह भी कहा कि पीठ योग्यता के आधार पर अपनी राय नहीं दे रही है। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या जनगणना 'चुनावों' की वजह से कराई जा रही है।

पटना उच्च न्यायालय ने छह दिनों बाद 'जातीय जनगणना' पर यह कहते हुए अंतरिम रोक लगा दी कि प्रथम दृष्ट्या वह इस मत का है कि राज्य के पास जातीय जनगणना कराने का अधिकार नहीं है, कि जनगणना कराने का विशिष्ट अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है। इसने इस बात पर भी आश्चर्य किया कि बिहार सरकार की योजना अन्य राजनीतिक दलों के साथ आंकड़े साझा करने की है। उसने 'गोपनीयता' का मुद्दा उठाते हुए राज्य सरकार को जनगणना की कार्यवाही रोकने और आंकड़े को सुरक्षित करने का निर्देश देते हुए मामले की सुनवाई जुलाई के पहले हफ्ते तक रोक दी।

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जब राज्य सरकार अंतरिम रोक हटाने के अनुरोध के साथ हाई कोर्ट में दोबारा गई, तो हाई कोर्ट ने इस पर सुनवाई से मना कर दिया; लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर कहा कि इसने 'पूरी जनगणना' पर रोक नहीं लगाई है। राज्य सरकार ने कहा था कि 80 प्रतिशत जमीनी काम पूरे किए जा चुके हैं, संसाधन खर्च किए जा चुके हैं, पिछले चार माह से जमीन पर लोगों को लगाया जा चुका है। तर्क दिया कि इस हालत में किसी तरह की रुकावट से संसाधन और समय- दोनों की हानि होगी। जब राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय गई, तो उसने इस आधार पर हस्तक्षेप से मना कर दिया कि हाई कोर्ट सुनवाई की अगली तारीख 3 जुलाई पहले से ही तय कर चुकी है।

सवाल उठता है कि जनगणना क्या सर्वेक्षण है? जनगणना से सर्वेक्षण किस तरह अलग है? और क्या राज्य सरकार को सर्वेक्षण कराने का अधिकार है? सुप्रीम कोर्ट के सामने यह तर्क दिया गया है कि मूलभूत अंतर यह है कि जनगणना में शामिल होने से कोई व्यक्ति मना नहीं कर सकता क्योंकि यह आपराधिक कृत्य होगा। दूसरी तरफ, सर्वेक्षण पर जवाब देना ऐच्छिक है और इससे अलग रहने पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है। बिहार सरकार ने गोपनीयता को लेकर भ्रम को यह कहते हुए दूर करने की कोशिश की कि आंकड़ा क्लाउड पर नहीं बल्कि राज्य सरकार के सर्वर पर रखा जाएगा।

यह बात ध्यान में रखने की है कि पहले कई राज्य सरकारों ने जाति-आधारित सर्वेक्षण कराए हैं। 2015 में कर्नाटक हाई कोर्ट समेत कई हाई कोर्ट 'बेहतर योजना बनाने' के लिए जाति-आधारित आंकड़ा संग्रहण पर रोक लगाने से मना कर चुकी है। विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट- दोनों ही अनुभवजन्य अध्ययनों और विभिन्न जाति समूहों के लिए स्थानीय निकायों में सीटों के आरक्षण के काम के लिए सर्वेक्षण तथा विश्वसनीय आंकड़ा संग्रहण के आदेश जारी कर चुके हैं।

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मार्च, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि स्थानीय निकायों में जाति-आधारित राजनीतिक आरक्षण के लिए राज्य सरकारों को राज्य के अंदर सर्वेक्षण कराने के लिए समर्पित आयोग बनाने चाहिए और उन्हें सिफारिश करनी चाहिए कि किस तुलना में जाति समूहों का प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए और उसकी वजह क्या है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा और जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सहमति जताई, कि सिर्फ लोगों की संख्या आरक्षण का आधार नहीं हो सकती- संबंधित समुदाय में पिछड़ेपन का स्तर भी एक मुद्दा होना चाहिए। इसी तरह की बातें महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और बिहार के हाई कोर्ट ने भी कही हैं।

इस किस्म के सर्वेक्षण, आंकड़ा संग्रहण या जनगणना के बिना ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को जिस तरह की जल्दबाजी में समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को दस प्रतिशत आरक्षण देने की अनुमति दी, उसे देखते हुए जातीय जनगणना पर न्यायालयों का वाक् छल खास तौर पर बेचैन करने वाला है।

भारतीय समाज में जाति वास्तविकता है, इस पर कोई सवाल नहीं है। भारतीय जनता पार्टी जो कहती है कि वह जातिवादी नहीं है या कम-से-कम दूसरों की तुलना में कम जातिवादी है, उसके-जैसे राजनीतिक दल भी अपने मंत्रियों, विधायकों और प्रत्याशियों के जातिगत विवरण जारी करने से अपने को रोक नहीं पाते। यह भी तथ्य है कि 2011 जनगणना के परिणाम लोगों या संसद के सामने नहीं लाए गए हैं और सिर्फ इसमें ही सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण को शामिल किया गया, इसे छोड़कर 1931 के बाद से कोई जातीय जनगणना कभी नहीं की गई। मंडल आयोग की सिफारिशें भी 1931 की पुरानी जनगणना के आधार पर थीं। यह भी कोई सरकारी रहस्य नहीं है कि जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा खूब हो रही है और संख्या बल कम होने के बावजूद तथाकथित उच्च जातियां नौकरियों में और निर्वाचित पदों पर तुलनात्मक तौर पर अधिक हैं।

सकारात्मक कार्रवाई, शिक्षा के फैलने और खुशहाली बढ़ने के बावजूद स्थिति काफी हद तक बदली नहीं है। विडंबना यह है कि भारत में न्यायालय जाति और जातिवाद के मामले में शुतुरमुर्ग वाला रवैया अपना रहे हैं जबकि अमेरिका में शहर, विश्वविद्यालय और कॉरपोरेशन कैंपस और वर्कप्लेस में जाति भेदभाव को तेजी के साथ स्वीकार कर रहे हैं। यह अधिक ध्यान देने योग्य है कि जो सकारात्मक कार्रवाई के हक में सक्रिय हैं, उन्हें तिरस्कार भी झेलना पड़ रहा है। जाति को भेदभावपूर्ण व्यवहार के तौर पर शामिल किए जाने वाले बिल को पेश करने वाली कैलिफोर्निया सीनेट की सदस्य आएशा वहाब को धमकी दी गई और उन्हें अपमानित किया गया। इससे साबित होता है कि प्रवासियों के बीच पूर्वाग्रह कितना गहरा है। इस किस्म के विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के समूह में विदेशी भूमि में जब इतनी अधिक घृणा है, भारत में इस किस्म के पूर्वाग्रह के स्तर की कल्पना करना क्या कठिन है?

यह स्वागतयोग्य चिह्न है कि कांग्रेस जातीय जनगणना के पक्ष में खड़ी हुई है। पार्टी संख्या के आधार पर धन और संसाधनों के पुनर्वितरण के लिए जिस तरह बोल रही है, वह अच्छी बात है। 'जिसकी जितनी आबादी, उसका उतना हक' का राहुल गांधी का आह्वान सुस्पष्ट है, हालांकि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब उसने जातीय जनगणना कराई होती, तो इसकी ज्यादा विश्वसनीयता होती। यह सच है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया था; लेकिन इसके परिणाम जारी न करना संभवतः गलती थी।

संशय इसलिए भी है कि 2013 और 2018 के बीच कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने तब जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया था जब सिद्दारमैया मुख्यमंत्री थे। लेकिन न तो उनकी सरकार, न बाद में कांग्रेस-जनता दल (सेकुलर) सरकार ने आंकड़े जारी किए।

लाचारी में, हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि न्यायालय फैसले को किस तरह प्रभावित करते हैं। अगले आम चुनाव से पहले जातीय जनगणना के प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर उभरने की संभावना है। इस मसले पर दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता से काम लिया जाएगा, ऐसी उम्मीद है।

(संजीव चंदन महाराष्ट्र में वर्धा से प्रकाशित स्त्रीकालः स्त्री का समय और सच के संपादक हैं।)

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