विचार

राम पुनियानी का लेखः अनुच्छेद 370 पर बीजेपी का प्रचार अभियान हमेशा की तरह सच से दूर

अनुच्छेद 370 आसमान से नहीं टपका था। वह संविधान सभा में हुई गहन चर्चा से जन्मा था। इस अनुच्छेद के निर्माण में सरदार पटेल, अंबेडकर, शेख अब्दुल्ला और मिर्जा बेग की भूमिका थी। अतः यह कहना कि अंबेडकर ने इसका विरोध किया था या पटेल इससे सहमत नहीं थे, सफेद झूठ है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने के बीजेपी सरकार के फैसले को सही ठहराने के लिए एक प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। अनुच्छेद 370 का उन्मूलन, लंबे समय से आरएसएस के एजेंडे में रहा है और यह राम मंदिर और समान नागरिक संहिता सहित हिन्दुत्व एजेंडे की त्रयी बनाता है। यह तर्क दिया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान के कारण बाहरी उद्योगपति वहां जमीनें नहीं खरीद पाए और इस कारण राज्य का विकास बाधित हुआ। यह भी कहा जा रहा है कि अनुच्छेद 370 के कारण इस क्षेत्र में पृथकतावाद को बढ़ावा मिला।

यह सब बीजेपी द्वारा चलाए जा रहे प्रचार अभियान का हिस्सा है। पार्टी के जनसंपर्क अभियान के अंतर्गत, राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 4 सितंबर 2019 को एक वीडियो जारी किया, जिसमें जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने और उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांटने को उचित बताया गया है। कुल 11 मिनट के वीडियो के अंत में प्रधानमंत्री मोदी को अपने एक भाषण में यह कहते हुए दिखाया गया है कि कश्मीर के मामले में नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी और पटेल के साथ अंबेडकर भी उनकी कश्मीर नीति के खिलाफ थे।

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वीडियो में कहा गया है कि पटेल ने 562 देसी रियासतों का सफलतापूर्वक भारत में विलय करवा दिया, परंतु कश्मीर मामले को नेहरू ने अपने हाथों में ले लिया और राज्य को विशेष दर्जा देने की ऐतिहासिक भूल की, जो कि अनेक विकट समस्याओं की जन्मदात्री बन गई। बीजेपी का यह प्रचार अभियान सत्य से कोसों दूर है। पार्टी यहां-वहां से कुछ तथ्य चुनकर अपने अतिराष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप उन्हें तोड़-मरोड़कर पेश कर रही है।

पहला सवाल यह है कि कश्मीर का मामला नेहरू को अपने हाथों में क्यों लेना पड़ा। पटेल ने जिन देसी रियासतों के मामले संभाले वे सभी भारत की भौगोलिक सीमाओं के अंदर थीं और उनमें से किसी पर भी विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था। चूंकि कश्मीर की सीमा, पाकिस्तान से मिलती थी इसलिए बतौर प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री नेहरू को इस मामले को संभालना पड़ा। भारत को कश्मीर के मामले में दखल इसलिए देना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान के कश्मीर पर हमले के बाद वहां के महाराजा हरिसिंह ने आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिए भारत सरकार से सेना भेजने का अनुरोध किया था।

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किसी भी अन्य रियासत में इस तरह की स्थिति नहीं थी। किसी भी अन्य रियासत में पाकिस्तान की सेना ने प्रवेश नहीं किया था। कश्मीर के मामले में पाकिस्तान, द्विराष्ट्र सिद्धांत का पालन करने का प्रयास कर रहा था। उसका तर्क था कि चूंकि कश्मीर मुस्लिम-बहुल इलाका है, इसलिए उसे पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। प्रख्यात पत्रकार दुर्गादास द्वारा संपादित दस खंडों के ‘सरदार पटेल्स करसपाडेंस’ से यह स्पष्ट होता है कि कश्मीर मामले से जुड़े सभी मुद्दों- विलय की संधि, अनुच्छेद 370, युद्धविराम की घोषणा और मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने के निर्णय- पर नेहरू और पटेल में कोई मतभेद नहीं था।

30 अक्टूबर 1948 को बंबई में एक आम सभा को संबोधित करते हुए पटेल ने कश्मीर के मसले पर कहा था, ‘‘कुछ लोग यह मानते हैं कि मुस्लिम बहुसंख्या वाले इलाके को पाकिस्तान का ही हिस्सा होना चाहिए। वे पूछते हैं कि हम कश्मीर में क्यों हैं? इस प्रश्न का उत्तर बहुत सरल और सीधा है। हम कश्मीर में इसलिए हैं क्योंकि वहां के लोग ऐसा चाहते हैं। जिस क्षण हमें लगेगा कि कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि हम वहां रहें, उसके बाद हम एक मिनट भी वहां नहीं रूकेंगे... हम कश्मीर को धोखा नहीं दे सकते’ (द हिंदुस्तान टाईम्स, 31 अक्टूबर 1948)।

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‘पटेल्स करसपांडेंस’ से उद्धत करते हुए एजी नूरानी लिखते हैं कि आरएसएस के प्रचार के विपरीत, कश्मीर में युद्धविराम की घोषणा से पहले पटेल को विश्वास में लिया गया था। नूरानी लिखते हैं कि ‘‘पटेल्स करसपांडेंस के खंड-1 से स्पष्ट है कि पटेल को विश्वास में न लेने की बात गलत है। अगर ऐसा हुआ होता तो पटेल जैसा आदमी केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देता’’।

अनुच्छेद 370 आसमान से नहीं टपका था। वह संविधान सभा में हुई गहन चर्चा से जन्मा था। केवल इस अनुच्छेद का मसविदा तैयार करने के लिए शेख अब्दुल्ला और मिर्जा अफजल बेग को संविधान सभा का सदस्य बनाया गया था। इस अनुच्छेद के निर्माण में पटेल, अंबेडकर, शेख अब्दुल्ला और मिर्जा बेग की भूमिका थी। अतः यह कहना कि अंबेडकर ने इसका विरोध किया था या पटेल इससे सहमत नहीं थे, सफेद झूठ है। नूरानी यह भी लिखते हैं कि नेहरू के आधिकारिक यात्रा पर अमरीका में होने के कारण संविधान सभा में अनुच्छेद 370 के संबंध में प्रस्ताव पटेल ने प्रस्तुत किया था। पटेल द्वारा 25 फरवरी 1950 को नेहरू को लिखे पत्र से यह साफ है कि कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने के प्रश्न पर दोनों एकमत थे और दोनों मानते थे कि संयुक्त राष्ट्र संघ को इस मामले में निर्णय लेना चाहिए।

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जहां तक अंबेडकर का सवाल है, उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू और केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने अपने लेखों में अंबेडकर को उद्धत किया है। उनके अनुसार, अंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से चर्चा में कहा था कि ‘‘आप चाहते हैं कि भारत, कश्मीर की रक्षा करे, वहां के लोगों का पेट भरे। आप चाहते हैं कि कश्मीरियों को पूरे देश में अन्य नागरिकों के समान अधिकार मिलें। परंतु आप कश्मीर में भारत को कोई अधिकार देना नहीं चाहते।’’

सच ये है कि यह उद्धरण किसी आधिकारिक रिकार्ड का हिस्सा नहीं है। वह केवल भारतीय जनसंघ के बलराज मधोक के एक भाषण का हिस्सा था जिसे संघ के दो अखबारों ‘तरूण भारत’ और ‘आर्गनाईजर’ ने प्रकाशित किया था। अंबेडकर की राय तो यह थी कि कश्मीर का मुस्लिम-बहुल हिस्सा, पाकिस्तान में जाना चाहिए। अंबेडकर, जनमत संग्रह के पक्ष में थे और पटेल ने जूनागढ़ में जनमत संग्रह करवाया था।

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जहां तक विकास का प्रश्न है, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि विकास के सामाजिक सूचकांकों में कश्मीर, राष्ट्रीय औसत से कहीं आगे है। इस अर्थ में अनुच्छेद 370 कभी विकास की राह में रोड़ा नहीं बना। यह भी महत्वपूर्ण है कि जहां 370 को निशाना बनाया जा रहा है, वहीं 371, जिसमें उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए उसी तरह के प्रावधान हैं को संविधान का हिस्सा बनाए रखने का निर्णय लिया गया है - जैसा कि अमित शाह के ताजा बयान से जाहिर है।

बीजेपी का प्रचार इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के अतिरिक्त नेहरू को बदनाम करने पर भी केन्द्रित है। आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में नेहरू ने बहुवाद और वैज्ञानिक सोच जैसे मूल्यों की नींव रखी थी। संघ और बीजेपी इन दोनों ही मूल्यों के घोर विरोधी हैं।

(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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