नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में हाल के देशव्यापी प्रदर्शनों की दिशा और स्वरूप और उससे निपटने की सरकारी/पुलिसिया शैली ने दो बातें स्पष्ट की हैं। एक बहुत चिंताजनक है तो दूसरी आश्वस्तिदायक।
आगे बढ़ने से पहले कह देना जरूरी है कि कई राज्यों में, विशेष रूप से बीजेपी-शासित राज्यों में प्रदर्शन के दौरान साजिशन उपद्रव करने के स्पष्ट संकेत हैं। प्रदर्शनकारियों का बर्बर दमन हुआ तो पुलिस पर भी हमले हुए। नागरिक समाज, सामाजिक संगठनों, छात्रों और राजनैतिक दलों की तरफ से शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन का आह्वान किया गया था। बीजेपी शासित राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में निषेधाज्ञा लगाकर प्रदर्शन रोकने के लिए पुलिस ने बल प्रयोग किया। सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 20 से ऊपर लोग मारे गए।
हालांकि ये तो ईमानदार जांच- पड़ताल में ही साफ हो सकेगा कि हिंसा की साजिश किसने और क्यों की। पुलिस बल के साथ सादे कपड़ों में देखे गए हथियारों से लैस लोग कौन थे? बीजेपी सरकारें प्रदर्शनकारियों को जिम्मेदार ठहरा रही हैं तो प्रदर्शनकारी आरोप लगा रहे हैं कि उन्हें उपद्रवी और सरकार-द्रोही साबित करने के लिए हिंसा राज्य-प्रायोजित थी।
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अब आते हैं उस चिंताजनक बात पर। प्रदर्शनकारियों के दमन के दौरान पुलिस का क्रूर साम्प्रदायिक चेहरा खुलकर सामने आया है। एक नहीं, कई दृष्टांत हैं, जिनमें पुलिस के बड़े अधिकारी तक आरएसएस या ‘ट्रोल आर्मी’ की भाषा बोलते देखे-सुने गए। एक वायरल वीडियो में मेरठ के एसपी सिटी मुस्लिम बहुल इलाके में काला-पीला फीता बांधे प्रदर्शनकारियों को धमकाते हुए कह रहे हैं कि ‘इस देश में नहीं रहना तो पाकिस्तान चले जाओ। खाते यहां का हो और गाते कहीं और का?’ कानपुर में पुलिस जवान मुस्लिम मोहल्लों में प्रदर्शनकारियों को खदेड़ते हुए उन्हें ऐसी गालियां दे रहे हैं, जिन्हें लिखा नहीं जा सकता।
एक और वीडियो में एक पुलिस अधिकारी मंच से मुसलमानों को लानत भेज रहे हैं कि तुम लोग कैसी औलादें पैदा करते हो जिनको काबू में नहीं रख सकते? मुस्लिम-बहुल मुहल्लों में घुसकर बाहर खड़ी गाड़ियां तोड़ते पुलिसकर्मियों के कई वीडियो सामने आए हैं। उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मेरठ, कानपुर और बिहार के पटना और औरंगाबाद आदि शहरों से गंभीर शिकायतें आई हैं कि पुलिस ने मुसलमानों के घरों में घुसकर मारपीट-तोड़फोड़ की, सामान लूटा और बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिए। बीजेपी नेता, मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी इन हरकतों का बचाव कर रहे हैं।
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इस दुष्प्रचार में पुलिस भी शामिल दिखती है कि नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध मुसलमान और उन्हें शह देने वाली राजनैतिक पार्टियां कर रहे हैं। इस बात की जानबूझकर अनदेखी की जा रही है कि यह विरोध इस देश के संवैधानिक मूल्यों और बहुलतावादी परंपरा में विश्वास करने वाली जनता का है। नागरिकता कानून और एनआरसी से सिर्फ मुसलमान प्रभावित नहीं होंगे, जैसा कि असम में साबित हो चुका है। इसलिए देश का व्यापक सचेत समुदाय विरोध में सड़कों पर आया है। बड़ी संख्या में सभी वर्गों-समुदायों के नौजवान विद्यार्थी, युवा और महिलाएं शांतिपूर्ण प्रदर्शन में शामिल हैं। उन्हें सिर्फ मुसलमानों और ‘अर्बन नक्सलों’ की उपद्रवी भीड़ प्रचारित करना मुसलमानों को निशाने पर रखना है।
इसी दुष्प्रचार की आड़ लेकर बीजेपी शासित राज्यों में ‘हिंसा फैलाने वालों’ के नाम पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों का दमन किया जा रहा है। पुलिस के निशाने पर मुसलमान और वे एक्टिविस्टहैं, जिन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहा गया है। मेरठ एसपी का ‘पाकिस्तान चले जाओ’ कहना और कानपुर में मुसलमानों के लिए घोर अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें मारना-पीटना साबित करता है कि पुलिस मुसलमानों के प्रति नफरत से भरी हुई है और उसका खुलेआम प्रदर्शन कर रही है।
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प्रादेशिक पुलिस बलों का सांप्रदायिक चेहरा पहले भी सामने आया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात समेत कई अन्य राज्यों में दंगों के समय पुलिस सांप्रदायिक भूमिका में रही है लेकिन इस बार हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं हो रहे। जनता नागरिकता कानून का लोकतांत्रिक विरोध कर रही है। प्रदर्शनकारी कोई समुदाय-विशेष के नहीं हैं। वे असहमत जनता का एक बड़ा हिस्सा हैं। शासन-प्रशासन का उसे हिंदू-मुस्लिम नजर से देखकर एक वर्ग-विशेष का नफरत के साथ दमन करना घोर निंदनीय और चिंताजनक है।
सवाल स्वाभाविक है कि क्या बीजेपी शासित राज्यों में पुलिस को ‘ऊपर से’ ऐसा करने के लिए शह मिल रही है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लखनऊ के एक कार्यक्रम में प्रदर्शनकारियों की निंदा करते हुए पुलिस पर हुए हमलों की चर्चा की और ‘बहादुर सिपाहियों’ से सहानुभूति जताई, लेकिन पुलिस की बर्बरता की शिकायतों के बारे में एक शब्द नहीं कहा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ भी पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई के समर्थन में ही बोलते रहे हैं।
इन सबके बीच आश्वस्तिदायक तथ्य यह है कि जामिया मिलिया एवं अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रदर्शन हों या मुंबई-लखनऊ के, सभी जगह तिरंगे झंडे और संविधान की प्रतियां लहराते दिख रहे हैं। हरे झंडे, जिन्हें आसानी से पाकिस्तानी झंडे कहकर प्रचारित कर दिया जाता है, इन विरोध-प्रदर्शनों से गायब हैं। बीजेपी-संघ ने जितना ही इन्हें ‘देशद्रोही मुसलमानों द्वारा आयोजित विरोध’ साबित करने की कोशिश की, प्रदर्शनकारियों ने इसे संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ का मुद्दा बनाकर उस दुष्प्रचार को विफल किया है। प्रदर्शनकारियों ने कई जगह भारतीय संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों का पाठ किया, बाबा साहेब आम्बेडकर की फोटो और तिरंगे झंडे लहराए।
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और सबसे अच्छी बात यह हुई कि आंदोलन कट्टरपंथियों या राजनैतिक दलों के हाथ में नहीं जाने दिया गया। इसका कोई निश्चित दलीय नेतृत्व नहीं है। यही इस समय इसकी ताकत बनी है। सभी धर्मों के लोग प्रदर्शन में साथ-साथ शामिल हैं। इसे स्वत:स्फूर्त आंदोलन कहना चाहिए। ‘मैं एक हिंदू हूं और सीएए का विरोध करती हूं’ - कई जगह ऐसे नारे लिखी तख्तियां हाथों में लिए लड़कियां दिखाई दीं। भाजपाई दुष्प्रचार से निपटने की यह सायास कोशिश थी। इस कारण ये प्रदर्शन भारतीय जनता के अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए आंदोलन के रूप में सामने आए और इनकी स्वीकार्यता बढ़ी।
कश्मीर से अनुछेद 370 हटाने के मोदी सरकार के फैसले को शेष देश में व्यापक समर्थन मिला था। जो संगठन या पार्टियां उसके विरोध में थे वे भी अलोकप्रिय हो जाने के डर से अधिक मुखर नहीं हुए। देश के एक मात्र मुस्लिम-बहुल राज्य की पहचान एक झटके से खत्म कर दिए जाने से देश का मुसलिम तबका निश्चित ही आहत हुआ था लेकिन उस वक्त उसे विरोध व्यक्त करने का उचित अवसर नहीं मिला। उसके विरोध को देश-विरोधी समझ लिए जाने का पूरा खतरा था। इसलिए तब वह चुप ही रहा। सीएए और एनआरसी ने उसके इस आक्रोश को भी व्यक्त करने का मौका दे दिया। यह विरोध चूंकि संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रता तथा अधिकारों के संरक्षण के लिए है और चूंकि इसमें सभी वर्गों की जनता शामिल है, इसलिए मुसलमानों को भी अपनी संविधान-सम्मत आवाज उठाने का अवसर मिला है, जिनका इस देश पर बराबर का अधिकार है।
ये प्रदर्शन पिछले कुछ समय से अलग-थलग पड़ते मुस्लिम समुदाय के साथ देश की मुख्यधारा के खड़े होने का अच्छा अवसर लेकर आए। इसकी बहुत जरूरत थी। मोदी सरकार के पिछले साढ़े पांच साल के कार्यकाल में मुसलमान अपने को उपेक्षित और लगातार हाशिए की तरफ धकेला जाता महसूस करता आया है। उसकी देशभक्ति पर बार-बार सवाल उठाए गए हैं। उसे बहुत आसानी से पाकिस्तान परस्त और आतंकवादी करार दिया जाता है। सरकार के किसी भी फैसले के विरोध में उसकी आवाज राष्ट्रद्रोह बता दी जाती है। संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों की इस दिशा ने उसे संविधान और देश के बहुलतावाद के पक्ष में खुलकर सामने आने का मौका दिया है। यह तथ्य आज के दौर की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में नोट किया जाना चाहिए क्योंकि इससे नफरती साजिशों का पर्दाफाश करने में मदद मिली है।
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