अलविदा 2018, स्वागतम् 2019 !
जी हां, नवजीवन पर आप जब यह लेख पढ़ रहे हैं तो साल 2018 का सूर्य अस्त हो रहा है। उधर 2019 के नए वर्ष का जगमगाता सूर्य अपनी किरणें बिखेरता हुआ उभर रहा है। अंधेरा छट रहा है और रोशनी फैल रही है। अगर हम बीते साल पर एक निगाह डालें और फिर आने वाले साल में भविष्य को टटोलें तो ऐसा ही आभास होता है कि देश में छाया अंधेरा छट रहा है और भारतवर्ष में नये साल के उदय पर नई उम्मीद की किरण फूट रही है।
मेरे निजी विचार में पिछले चार साढ़े चार साल भारतीय इतिहास में अंधकार के साल गिने जाएंगे। साल 2014 में भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय ने देशवासियों में एक नई उम्मीद जगायी थी। ‘सब का साथ, सबका विकास’ जैसे नारे के साथ मोदी ने देश की एक बड़ी आबादी का मन छू लिया था। तभी तो साल 1989 के बाद से पहली बार कोई पार्टी पूर्ण बहुमत पर पहंच गई थी। भारतवासियों के मन में कहीं न कहीं यह विचार था कि मोदी जी देश और जनता के लिए कुछ अच्छा ही करेंगे। हालांकि देश का एक बड़ा वर्ग संघ और बीजेपी की विचारधारा के कारण मोदी उदय से विचलित था। लेकिन चुनावी प्रचार में जबरदस्त मीडिया मार्केटिंग और सोशल मीडिया प्रचार ने जनता को भ्रमित किया और बीजेपी मोदी के नेतृत्व में सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गई।
परन्तु ‘सबका साथ और सबका विकास’ का नारा देकर चुनाव जीतने वाले मोदी जी और उनके सहयोगी यह समझ बैठे कि देश ने उनको ‘हिंदुत्व’ विचारधारा लागू करने का जनादेश दे दिया। नतीजा यह हुआ कि जल्द ही देश में ‘गौ रक्षकों’ और विभिन्न प्रकार की हिंदु सेनाओं का आतंक फैलने लगा। क्या 21वीं सदी में गोहत्या की सजा दलितों को कोड़े मारकर देने की कल्पना हो सकती थी। लेकिन गुजरात में मोदी काल में ‘उना’ नाम की जगह पर ऐसा हुआ। इसी प्रकार अभी हाल में राजधानी दिल्ली के करीब बुलंदशहर में गौ रक्षकों ने एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या इसलिए कर दी कि उसने बलवाइयों को बलवा करने से रोका। इसी सरकार में भारतवर्ष में पहली बार ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी बर्बर घटनाओं का चलन हुआ। एक ओर सामाजिक आतंक तो दूसरी ओर संविधान और सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और आरबीआई जैसी संस्थानों पर सोच समझकर प्रहार हुए।
उधर देश की अर्थव्यवस्था मनमाने ढंग से चलाने का प्रयास हुआ। कभी नोटबंदी तो कभी सोचे समझे बिना जीएसटी जैसे बचकाने कदमों ने देश का व्यापार ठप कर दिया और साथ ही बेरोजगारी की महामारी फैला दी। फिर नीरव मोदी जैसों को बैंक लूट की खुली छूट दी गई तो राफैल सौदे में खुली धांधली हुई। आज देश की आर्थिक स्थिति यह है कि मोदी सरकार के पास केवल तनख्वाह बांटने के अलावा और पैसा नहीं बचा है। यही वजह है कि अब मोदी और जेटली रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की ‘रिजर्व पूंजी’ पर डाका डालकर सरकारी काम चलाने की घात में हैं।
जी हां, मोदीराज में देश विकास के बजाय विनाश की दिशा में चल पड़ा। सामाजिक विषमता, बेरोजगारी, कारोबार ठप, साथ ही देश की राजनीतिक दिशा और दशा बदलने का प्रयास जैसी स्थिति ने भारत के लिए एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर दी। लेकिन भारत कोई पाकिस्तान नहीं है। यह सदियों से एक मध्यमार्गी देश है। यहां लोकतंत्र की प्रथा भी कोई नयी नहीं है। पीपल के पेड़ों और चौपालों में पंचायती फैसले हमारे डीएनए में हैं। फिर सौ वर्षों से अधिक स्वतंत्रता संग्राम और फिर स्वतंत्रता के पश्चात न जाने कितने आंदोलनों की परंपरा रही है। भला इस देश की जनता को एक मोदी जैसे लोग कब तक और कितना भटका और भ्रमित कर सकते हैं।
चार-साढ़े चार वर्षों में देश पर छाया अंधकार छटने लगा है। नोटबंदी की मार सहने के बाद बहुत सारे मोदी भक्तों की भी आंखें खुलने लगीं। इसीलिए तो 2019 आते-आते परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी। इसका सबसे पहला एहसास गुजरात चुनाव के समय हुआ। गुजरात को पिछले लगभग दो दशकों से ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ और मोदीगढ़ माना जाता था। गुजरात चुनाव बीजेपी हारते-हारते बच गई। जिग्नेश, अल्पेश और पटेल ने मोदी के खिलाफ जो गुजरात आंदोलन चलाया उस आंदोलन का चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नेतृत्व कर यह सिद्ध कर दिया कि मोदी अपराजित व्यक्तित्व नहीं हैं। बस फिर क्या था देखते-देखते कर्नाटक में राहुल और विपक्ष का तालमेल रंग लाया और 2018 में कर्नाटक की ओर बढ़ते बीजेपी के कदम रूक गए। इस तरह मोदी-शाह का दक्षिण फतह करने का सपना तो टूटा ही, साथ ही यह भी तय हो गया कि नरेंद्र मोदी को 2019 में पछाड़ा जा सकता है।
साल 2018 के पिछले 6 महीने में मोदी भारतीय क्षितिज पर अकेले नहीं थे। राफेल घोटाले और जनता में बढ़ते आक्रोश के साथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी साये की तरह नरेंद्र मोदी का पीछा कर रहे थे और 2018 का सूर्य अस्त होने से पूर्व राहुल गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि वह हिंदी पट्टी जिसने नरेंद्र मोदी को भारत का मुकुट पहनाया था, वही हिंदी पट्टी अब उन्हीं मोदी को सिंहासन से उतारने को तैयार है। अब 2018 की समाप्ति में केवल 2-3 दिन बचे हैं। लेकिन सत्ता के गलियारों में यह चर्चा है कि अगर बीजेपी केंद्र में अगली सरकार फिर बनाती है तो उसके प्रधानमंत्री मोदी होंगे या गडकरी। यानी 2018 के अंत तक मोदी जी घर के बचे ना घाट के। स्वयं बीजेपी में मोदी के खिलाफ आवाज उठने शुरू हो चुके हैं। फिर देश में मोदी के खिलाफ लहर के आसार दिखने लगे हैं। इस संदर्भ में 2018 का साल एक ऐसा साल है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि इस साल के अंत में देश में छाया अंधकार छटने लगा।
अब 2019 का सूर्य उदय होने वाला है। लेकिन राम मंदिर और अल्पसंख्यक विरोधी नफरत की राजनीति करने वाले मोदी और संघ देश को फिर नफरत की आग में झोंक सकते हैं। लेकिन 2019 कोई 2014 नहीं है कि जब कांग्रेस पार्टी एक दशक के शासन के बोझ से एक थकी-हारी पार्टी हो चुकी थी। आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस नयी उर्जा के साथ विपक्ष को साथ लेकर मोदी से लोहा लेने को तैयार खड़ी है। और 2018 के चुनावी नतीजे भी यही बता रहे हैं कि मोदी से भारत का मन भर चुका है और 2019 मोदी का भारत नहीं बल्कि सदियों पुराना वही भारत होगा जो सदा मध्यमार्गी था। यही भारत की पहचान थी और 2019 में भारत पुनः उसी ध्रुव पर लौट आएगा।
इसी आशा के साथ नवजीवन को पाठकों को नववर्ष की ढेरों शुभकामनाएं।
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