विचार

बाबा साहेब की महान विरासत और हमारा वर्तमान राज-समाज

“ब्रिटिश लोगों ने लंबे समय तक हम पर हुकूमत की है, और उनके कुछ सुधारों, अवदानों को हम खुशी-खुशी मानते हैं। लेकिन मानना होगा कि… भारत के राज-समाज में दलितों के सदियों पुराने कड़वे सवाल को उन्होंने भी तमाम विकृतियों सहित जस का तस स्वीकार कर लिया...।”

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

1930 में लंदन की गोलमेज कॉन्फ्रेंस में यह खरी-खरी कहने का साहस रखने वाले बाबा साहेब आंबेडकर कोई सामान्य जननेता या चिंतक नहीं थे। समानतावादी लोकतंत्र में सबसे पहले अस्पृश्यता के सवाल पर उन्होंने अपने जीवनानुभव, भावना और तर्क- सबको मिलाकर लिखा और बोला। सवर्ण समाज में सदियों से ओझल रहा यह सवाल लोकतंत्र का एक बुनियादी सवाल बनता था। अंतहीन आलोचना और विरोध की परवाह नकरते हुए उन्होंने अपना काम जारी रखा और दलितों और अन्य हाशिये के समाजों के योजनाबद्ध तरीके से दमन और बंधुवाकरण के विरोध के लिए एक मजबूत ढांचा तैयार किया। देश के शीर्ष नेतृत्व और जनता- दोनों के बीच। उनकी सबसे बड़ी ताकत यह थी कि उनके लेखन में आक्रोश जरूर है लेकिन साथ ही एक गहरा न्यायबोध और संयमित करुणा भी मौजूद है। खुद उन्होंने आंसू भरी भावुकता से दलितों के लिए समता की याचना नहीं की, तर्क के ठोस आधार पर उनके लिए बराबरी की जगह और सदियों के शोषण से उपजी कमजोरियों को घटाने के लिए खास प्रावधानों की मांग की। उनकी इसी मानवीय ईमानदारी ने गांधी से लेकर संविधान निर्माताओं तक के सभी सदस्यों के सोच पर गहरा असर डाला। विशेषकर महिला सदस्यों के जिनको समाज ने दलितों की ही तरह सवर्ण समाज में शिक्षा, संचरण और सांपत्तिक हकों से वंचित कर पुरुषों से एक दर्जा नीचे बनी रहने को मजबूर किया हुआ था। यह आंबेडकर साहेब का ही जहूरा था कि नवगठित संविधान में कड़े बहसों और तर्क-वितर्क के बाद दलितों, आदिवासियों तथा महिलाओं के मानवाधिकारों की बहाली के वे विशेष प्रावधान शामिल किए गए जिनके सहारे इन तीनों वर्गों की, गांवों में तो बहुत नहीं लेकिन शहरी समुदायों में हर मोर्चे पर आवाज और मौजूदगी मजबूत हुई।

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1947 में नव स्वतंत्र भारत जब आधुनिकता से बिना बाहरी ओट के पहली बार टकराया तो उसका मनुवादी वर्णव्य वस्था की विसंगतियों से तकलीफदेह तरह से सामना हुआ। उसे पता चला कि किस तरह यह व्यवस्था जिसको भारतीय संस्कृति की रीढ़ माना जाता रहा, भीतर खाने लगातार एक पूरे समुदाय को समाज से बाहर रखकर उसे सभ्यराज-समाज की परिधि से दरबदर किए हुए है। पर इस अवमानना के बीच भी दलितों से उम्मीद की जाती रही कि वे अपनी दशा को अपना प्रारब्ध समझें और सर झुका कर उसके वे निकृष्ट काम करते चले जाएं, जो कि समाज का और कोई वर्ग न करना चाहता हो। यूरोप में भी मध्यकालीन चर्च ने लंबे समय तक इसी तरह की विभेदकारी मानसिकता से दासता की प्रथा स्वीकार की हुई थी। वहां भी कई सदियों तक चर्च और राजा, दोनों ने श्वेत जातियों की अश्वेतों पर विजय और हुकूमत तथा अश्वेतों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी दासता को उनकी सहज नियति माना। लेकिन यूरोप में श्वेत समाज के बीच से ही वाल्टेयर और कैल्विन सरीखे तर्क शास्त्री उपजे जिन्होंने धर्म और सामंतवाद- दोनों की रचना में इस परंपरा को अमानवीय कह कर उसे बनाए रखने का सफल विरोध किया। अमेरिका में इसी तरह लिंकन के नेतृत्व में दासता को चुनौती दी गई। इसको लेकर उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच भीषण गृह युद्ध हुआ और गुलामी मिट गई। यह भारत में क्यों नहीं हुआ? शायद इसलिए कि मुसलमान तथा ब्रिटिश- दोनों ही शासकों ने हिंदुओं के समाज का मनुवादी ढांचा जस-का-तस रहने दिया। मुसलमान समाज ने तो भारतीय समाज में लंबी आवाजाही के बाद शेख-सैयद प्रभुता अंगीकार की और खुद भी (शुरफा श्रेणी के तहत) सामाजिक श्रेणी करण काफी हद तक अपना लिया।

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इस तरह आजादी के बाद भी वृहत्तर समाज के खाते- पीते लोगों के लिए जिनसे नया नेतृत्व उपजा, ब्राह्मणीय श्रेष्ठता और जातियों का मनुवादी विभाजन बनाए रखना उनके निजी हित स्वार्थों की दृष्टि से माकूल बैठता था। जो व्यवस्था पारंपरिक पुजारियों से लेकर छात्रों, बौद्धिकों, जमींदारों और वणिकों को दलितों, महिलाओं की आजादी तथा श्रम की कीमत पर शिक्षा से लेकर मुक्त व्यापार तक को अपने लिए हमेशा अधिक फायदेमंद साबित हुई हो, उसके खिलाफ लामबंद हो कर सवर्ण नेतृत्व आरक्षण और बराबरी का फलसफा कैसे स्वीकार करता? जिस तरह लिंगभेद के कारण पुरुष महिलाओं पर अतिरिक्त अधिकार स्थापित करने का हक समाज, संस्कृति और काफी हद तक राजकीय संस्थाओं से पाते रहे, उसी तरह 70-80 के दशक में नारीवाद के तहत महिलाओं और उनके पुरुष समर्थकों का लिंग आधारित गैरबराबरी को चुनौती देना भी तथा कथित शिष्ट समाज और सरकारों को अमान्य ही नहीं लगभग राजद्रोह प्रतीत हुआ।

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बाबा साहेब हमारे संविधान की निर्मल भेदभाव रहित आत्मा के निर्माता भी थे और पहरुए भी। इस बात का उनको पूरा श्रेय जाता है कि जातिमूलक और लैंगिक- दोनों तरह की गैरबराबरी को उन्होंने एक साथ रखा और तर्क मूलक नजरिए से उनकी व्याख्या की। दलितों ही नहीं, महिलाओं को भी इसीलिए बाबा साहेब का चिरॠणी होना चाहिए। अस्पृश्यता और लोकतांत्रिक हकों के प्रश्न पर अगर कोई अंग्रेज सरकार ही नहीं, खुद गांधी जी को भी तर्कसंगत चुनौती दे सकता था तो इसके लायक साहस और तर्क बाबा साहेब के ही पास था। इस बात पर बहुत कुछ अधकचरी समझ से लिखा गया है कि बाबा साहेब गांधी के विरोधी थे। पर उनका विरोध परस्पर एक जैसे दो संवेदनशील सुधारकों के बीच की असहमतियों से टकराते हुए आपसी सहमति बनाने का ईमानदार तरीका था। किसी तरह की कटु घृणा या विद्वेष उसमें नहीं था। 1943 में अपने एक पर्चे में बाबा साहेब ने लिखा कि सभी पिछड़े तथा दलित समूहों की जंजीरें तोड़ना सारी दुनिया का दायित्व है। मनुवादी अस्पृश्यता के आगे नीग्रो, गुलामों या यहूदियों की समस्याएं कमतर हैं। हिंदू इसके लिए दुनिया के आगे जवाबदेह हैं। गांधी भी इस विचार से सहमत हुए कि हिंदू मनुवाद साम्राज्यवाद का ही दूसरा पहलू है। इसीलिए 1924 में केरल राज्य में अस्पृश्यों को सड़क पर चलने का हक न देने पर अड़े वहां के ब्राह्मण समाज के खिलाफ सत्याग्रह का उन्होंने समर्थन किया था। उस पर उनका लोकल ब्राह्मणों से वैयक्कम में जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसके बाद गांधी जी ने सार्वजनिक सभा में स्वीकार किया कि ब्राह्मणों में जातिवाद की जड़ें इतनी गहरी थीं कि वह उनको समझाने में विफल रहे।

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14 अप्रैल को राजकीय स्तर पर आंबेडकर जयंती गांधी जयंती की ही तरह धूमधाम से लेकिन नितांत व्यावहारिक दुनियावी स्वार्थों के साये में मनाई जाती है। इसी तरह 6 दिसबंर को बाबा साहेब की पुण्यतिथि पर भी उन्हें याद किया जाता है। देश आज सिर्फ दो धरातलों पर जीने का आदी हो चला है। एक वह जो हमारा 33 कोटि देवी-देवताओं, टोने-टोट कों, संस्कृत के (लगभग सदा अशुद्ध हिज्जों वाले) ताख पर धरे धर्मग्रंथ इस-उस धर्मकथा का मनोविश्व हैं। दूसरा वह जो टीवी पर दिखता रहता है: क्षुद्र सांसारिक छवियों में जहां रामनामी चादरें, भगवा अंगोछे, और धार्मिक नारेबाजी का नाटक है। गांधी और आंबेडकर- दोनों ने इस पतित हालत की शर्म महसूस की और अपनी-अपनी तरह से जनता को उससे परिचित कराया। पर आज वे दोनों नहीं हैं। सिर्फ उनके कथित अनुयाई हैं जो इन दो महान आत्माओं की शर्म, उनकी सुधारवादी तड़प को भूल चुके हैं। राजनीति के आईने में दिख रहा है कि उनका मनोविश्व और भौतिक जीवन बहुत नहीं बदला। वे और उनके नेता आज भी सामंती भाषा, हिंदू धर्म के सतही रूढ़िवादी कर्मकांडों और वोट बैंक से जुड़ी पहचान से लैस हैं। दोनों के नाम का चलताऊ तरीके से उपयोग हुआ और उनके शिष्य राजनीति में जगह बना कर भी दूसरे राजनेताओं से फर्क या अधिक आदर्शवादी, निस्पृह या महिला हकों के समर्थक हुए नहीं नजर आते। उत्तर और दक्षिण- दोनों जगह उनके दलों के शासन के इतिहास पर भ्रष्टाचार और दलबदल की कल्मष है। दोनों जगह महिलाओं को राजनीति में उनकी संख्या और क्षमतानुसार जगह नहीं मिली है। मायावती-जैसी नेत्री एक अपवाद थीं और रहेंगी।

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बाबा साहेब जयंती पर नेताओं के फूलों से सजे कक्षों से उनका अभिनंदन और शत-शत नमन और उनकी पुण्यतिथि 6 दिसंबर पर उनके स्मरण सोच या व्यवहार में शब्द और कर्म के बीच की खाई पाट सकेंगे जो जनता हजारों आंखों से देख रही है, कहना कठिन है। मनुवाद, जैसा बाबा साहेब कह गए, एक हवा का, एक सदियों पुरानी परंपरा का, पूर्वाग्रहों के गुलदस्ते का नाम है। क्या आप पगलाई हवा की तोड़फोड़ के खिलाफ उस पर मुकदमा चलवा सकते हैं ? काश, यह देश बाबा साहेब के पुतले लगवाने, उनको रात के अंधेरे में तोड़ने, उनके बहाने दंगे करने और हर 14 अप्रैल और 6 दिसंबर को उन्हीं पुतलों को माल्यार्पण और शत-शत नमन करने की बजाय उनके लिखे को पढ़ता और आत्मसात करता।

(मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका हैं। यह लेख इससे पहले नवजीवन पर ही 11 अप्रैल 2021 को प्रकाशित हुआ था। आज बाबा साहेब की पुण्यतिथि पर हम इसे पुन: प्रकाशित कर रहे हैं)

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