विचार

बीजेपी के अति-आश्वस्त होने में ही छिपी है उसकी हताशा

बीजेपी और नरेंद्र मोदी का जीत के प्रति अति-आत्मविश्वास के नैरेटिव को लोगों के दिमाग में भरने के प्रयास के रूप में देखने की जरूरत है कि चुनाव बाद उनके तरीके से अगर 400+ की घोषणा हो भी जाए तो लोग सवाल न उठाएं कि यह तो कहा ही जा रहा था।

फरवरी में हुए बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में हिस्सा लेने जाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा (फोटो : Getty Images)
फरवरी में हुए बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में हिस्सा लेने जाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा (फोटो : Getty Images) ARUN KUMAR

अब इसमें चकित होने की कोई बात नहीं कि हाल ही में प्रिय बने इजराइल के असर में रायसीना हिल्स अब माउंट सिनाई का दूसरा  संस्करण बन गया है, जहां के पीठासीन शंकराचार्य नियमित फतवे देते या घोषणाएं करते हैं। ताजा घोषणा यह है कि आगामी संसदीय चुनावों में बीजेपी 370 से ज्यादा सीटें जीतेगी और एनडीए को 400 से ज्यादा सीटें मिलेंगीं। अब क्या इसे मूसा की तरह आत्मविश्वास से लबरेज ग्यारहवां ‘हुक्मनामा’ माना जाए या आने वाले किसी अशुभ को पर्दे में छुपाने का एक तरीका? 

मुझे तो ऐसे किसी भी विश्वास के लिए कोई वैध औचित्य या आधार नहीं दिखता। 303 की अपनी मौजूदा संख्या के साथ बीजेपी पश्चिम और अपने गढ़ हिन्दी पट्टी में स्थिर हो चुकी है और यहां अपनी संख्या में बेहतरी की कोई उमीद नहीं कर सकती है। पूर्व और दक्षिण में भी इसकी संभावनाएं 2019 की तुलना में बेहतर नहीं हैं- वास्तव में, कर्नाटक, तेलंगाना और उत्तर-पूर्व को देखें तो पहले दो में कांग्रेस की जीत और बाद वाले में मणिपुर की आग के कारण उसकी स्थिति खराब हो चुकी है। अब अगर ऐसा है, फिर तो बीजेपी बड़ी संख्या में सीटें खोने जा रही है: अजय प्रकाश द्वारा संचालित डेटा क्रंचिंग साइट ‘व्हाट डज दिस डेटा से’ के अनुसार भी बीजेपी की कुल सीटों में कम-से-कम 40 सीट की कमी आने की संभावना है।

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हाल के कुछ घटनाक्रम भी बीजेपी के पक्ष में नहीं रहे हैं। इसका खेल झारखंड में खराब हो गया जहां ईडी और राजभवन की साजिशों के बावजूद जेएमएम (झारखंड मुक्ति मोर्चा) अपनी सरकार बरकरार रखने में सफल रहा। उधर, बिहार में नीतीश कुमार के फिर से पाला बदलने के बाद तेजस्वी यादव और मजबूत होकर उभरे नजर आ रहे हैं। चंडीगढ़ मेयर चुनाव में तो न सिर्फ इंडिया गठबंधन विजयी हुआ, प्रधानमंत्री की पार्टी पूरी तरह बेनकाब हो गई। चुनावी बॉन्ड रद्द करना सही मायने में तो बहुत कारगर नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस मामले में फैसला देने में सुप्रीम कोर्ट की देरी के कारण बीजेपी पहले ही 6,500 करोड़ रुपये अपनी जेब में डाल चुकी है लेकिन सरकार के लिए यह एक बड़ी नैतिक हार जरूर है जिसने एक बार फिर साबित किया कि चुनाव जीतने के लिए वह कैसे असंवैधानिक हथकंडे अपनाती है।

इस फैसले ने पार्टी के कान किस तरह खड़े कर दिए हैं, यह प्रधानमंत्री की उन उपहासपूर्ण टिप्पणियों से भी स्पष्ट है कि आज अगर सुदामा कृष्ण को कुछ चावल भी दे दें, तो कोई जनहित याचिका दायर कर देगा और अदालत इसे रद्द कर देगी! यहां तक ​​कि दो दिन बाद ही कांग्रेस के बैंक खातों को ब्लॉक करने की बेशर्म जवाबी कार्रवाई को आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने थोड़े ही समय में रद्द कर दिया। 

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इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के बीच सीटों का बंटवारा कोई असफलता नहीं है, जैसा बिकाऊ मीडिया फैलाना चाहता है: यह तेजी से आगे बढ़ रहा है और यूपी, दिल्ली और महाराष्ट्र में तो झटका दे ही चुका है, हरियाणा और गोवा में भी ऐसी ही संभावना दिख रही है। बंगाल और पंजाब में अलग-अलग रास्ते लेने का निर्णय रणनीतिक रूप से समझ में आने वाला है क्योंकि इससे सत्ता विरोधी बंटेंगे। एनडीटीवी और इंडिया टुडे के कवरेज और ‘मूड ऑफ द नेशन’ जैसे सर्वेक्षणों से अन्यथा आश्वस्त होने की जरूरत नहीं- वे आम जनता की तुलना में अडानी और अरुण पुरी के मन-मिजाज को ज्यादा प्रतिबिंबित करते हैं।

किसानों का फिर से जी उठा आंदोलन भी सत्ताधारी पार्टी के लिए बुरी खबर है और जैसा कि संभव है, अगर इसमें हिंसा घुसी तो यह और भी बदतर हो जाएगी क्योंकि साफ दिख रहा है कि सरकार ने 2021 के आंदोलन से कोई सबक नहीं सीखा है। किसी भी विरोध प्रदर्शन के लिए क्रूर बल पर निर्भरता,  रामबाण औषधि की तरह हमेशा कारगर नहीं हो सकती है और लोग अब इसे अत्याचारी शासन के रूप में देखने लगे हैं।

इस बार किसानों के प्रति सहानुभूति भी ज्यादा व्यापक है, शायद दिल्ली के लाड़-प्यार वाले अभिजात्य वर्ग को छोड़कर जिन्हें एमएसपी और एमआरपी का अंतर भी नहीं पता और जब तक उनकी जोमैटो डिलीवरी समय पर आ रही, उन्हें चिंता होने वाली भी नहीं।

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पिछले कुछ महीनों में सामने आई सरकार की कमजोर कार्रवाइयां भी यही बता रहीं कि उसका आत्मविश्वास पहले जैसा नहीं रहा बल्कि इसके विपरीत उसमें एक खास तरह की हताशा और घबराहट दिखाई देती है।

सच तो यह है कि किसी भी तरह के लोगों से दल बदल कराकर अपने साथ लाने के प्रयास ने बीजेपी को वॉशिंग मशीन से कूड़ेदान में तब्दील कर दिया है;  अब यह अन्य पार्टियों से हर प्रकार का कचरा इकट्ठा कर रही है- अजीत पवार और अशोक चव्हाण जैसे लोगों को भी जिन्हें वह बार-बार भ्रष्ट करार देती रही। सिलसिला ऐसा ही चला तो बहुत जल्द, अन्य दलों से सारा कचरा इकट्ठा करके, यह अपना मजबूत वैचारिक चरित्र खो देगी और अवसरवादियों के चीथड़ों से सजी रजाई बनकर रह जाएगी।

डिजिटल प्लेटफॉर्म- नॉकिंग न्यूज़ के एक विश्लेषण के अनुसार, पार्टी के 303 सांसदों में से सिर्फ 134 ही मूल रूप से भाजपाई नस्ल के हैं, बाकी सभी अन्य दलों से आयातित हैं। यह तेजी से “कांग्रेस युक्त” पार्टी बनती जा रही है।

हारने का डर ही इसे जल्दबाजी में तमाम कामों के लिए प्रेरित कर रहा है: राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा-2 को लगातार निशाना बनाना (जो भारत जोड़ो यात्रा-1 में नहीं था), उन पर और उनके परिवार पर व्यक्तिगत हमले फिर से शुरू करना, हलद्वानी में ध्रुवीकृत हिंसा के नए प्रयास, बीजेपी शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने की आपाधापी, गृह मंत्री द्वारा सीएए और एनआरसी का मुद्दा फिर से उठाना, आधार कार्ड को निष्क्रिय करने की रिपोर्ट जैसा कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है, दिवंगत महापुरुषों की स्मृति भुनाने के लिए थोक में ‘भारत रत्न’ बांटना, भले ही पार्टी ने वैसी हर चीज ठुकरा दीं जिसके लिए वे खड़े थे।

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सूची लंबी है लेकिन यह कम-से-कम एक बात का संकेत तो है ही, जैसा कि निश्चित रूप से चंडीगढ़ मेयर के चुनावों ने वोटों की बेशर्मी से धांधली का संकेत दिया: कि ये उस पार्टी की हरकतें तो नहीं ही हैं जो न सिर्फ जीत के प्रति आश्वस्त है, बल्कि दो-तिहाई बहुमत के प्रति भी आश्वस्त है! जाहिर है, बीजेपी हकीकत से वाकिफ है और यही कारण है कि वह एक के बाद एक गलतियां कर रही है। आपाधापी वाले ऐसे हर कदम से इसकी छवि और भी खराब हो रही है।

इस बार का इसका चुनावी आख्यान निश्चित रूप से खोखला और किसी भी सारतत्व से दूर लगता है; इसमें तीन ‘एम’- मंदिर, मस्जिद और मुस्लिम के अलावा कुछ भी नहीं है और जो बुरी तरह घिसा-पिटा और दोहरावपूर्ण लगने लगा है। वास्तविक आर्थिक सुधार ने देश की 90% आबादी को पीछे छोड़ दिया है और यह लगभग हर मानव विकास मैट्रिक्स में दिखता है। तथाकथित मोदी की गारंटी कॉस्मेटिक प्लास्टिक सर्जरी के बाद बदनाम जुमलों के अलावा और कुछ नहीं हैं। तो, हम इस लेख की शुरुआत में उठाए गए सवाल पर लौटते हैं कि इतने सारे  प्रतिकूल संकेतों के बावजूद भाजपा को भारी जीत का इतना भरोसा क्यों है?

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इसके सूत्र शायद उस तरीके से मिल सकते हैं जिस तरह से जमीन तैयार की जा रही है, यानी- 400 से अधिक सीटों की लगातार उम्मीद, इन अनुमानों का समर्थन करने वाले पूर्वाग्रही चुनाव पूर्व सर्वेक्षण और एक उपकृत मीडिया द्वारा इन और ऐसी भविष्यवाणियों का प्रचार। ताकि जब मतदान के बाद 400+ की घोषणा हो, तो लोग इस पर सवाल न उठाएं क्योंकि उन्हें तो पहले से ही इसकी उम्मीद करने की आदत लगा दी गई थी! क्या यह संभव है कि बीजेपी के पास ताश की गड्डी में छुपा कोई जोकर हो? शायद ईवीएम? या फिर चुनाव आयोग की कृपादृष्टि से चंडीगढ़ मेयर मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा?

मैं वाकई नहीं जानता। लेकिन मुझे आर्थर कॉनन डॉयल का वह दिलचस्प उद्धरण याद आ रहा है: “जब आप वह सब खत्म कर चुके हैं जो असंभव है, तो जो कुछ भी बचता है, चाहे वह कितना भी असंभव क्यों न हो, सत्य होना चाहिए।”

इसके बारे में सोचिए और चिंता कीजिए।

(अभय शुक्ला हिमाचल कैडर के रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है।)

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