भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की कोलकाता रैली के बाद से बेहद परेशान है। 19 जनवरी के बाद से ही बीजेपी नेता कहते नहीं थक रहे कि इन दलों का एकमात्र मकसद नरेंद्र मोदी को हराना है। पीएम मोदी भी पीछे नहीं रहे, और तो और अमेरिका में इलाज कराने गए अरुण जेटली ने भी इस पर ब्लॉग लिख मारा।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर एनडीए भी तो 23 दलों का गठबंधन है, और बीजेपी को कौन रोक रहा है एक ही मंच पर सभी दलों के साथ महारैली के जरिए अपनी ताकत दिखाने से?
आखिर 2014 में बीजेपी ने ही देश के अलग-अलग राज्यों में तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों को एनडीए में शामिल किया था, इसके बाद ही उसकी जीत निश्चित हुई थी। कुछेक दलों को साथ मिलाने का तो बीजेपी के प्रादेशिक नेताओं ने ही विरोध तक किया था।
मसलन, बिहार में राम विलास पासवान की एलजेपी को सहयोगी बनाने का केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सी पी ठाकुर ने खुलकर विरोध किया था। दोनों सरेआम राम विलास पासवान को भ्रष्ट, जातिवादी और समाज के अपराधीकर का आरोपी बताया था। इसी विरोध के चलते गिरिराज सिंह, सी पी ठाकुर और बिहार के कई दूसरे नेताओँ ने नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर रैली का बहिष्कार तक किया था। इस रैली में पासवान पहली बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर थे।
अब यह अलग बात है कि चुनावी जीत के बाद पासवान और गिरिराज दोनों एक ही कैबिनेट का हिस्सा हैं। इतना ही नहीं हाल में जब तीन राज्यों में बीजेपी को शिकस्त का सामना करना पड़ा तो पासवान की एलजेपी ने एनडीए में बेचैनी के संकेत देने शुरु किए, जिसके बाद पूरी भगवा पार्टी उन्हें मनाने में जुटी नजर आई थी।
वैसे एलजेपी पहले भी एनडीए का हिस्सा रही है और पासवान अटल बिहार वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हैं। वहीं बीजेपी ने 2014 के चुनाव के बाद पूर्वोत्तर के कई ऐसे दलों से हाथ मिलाया है जिसे पूर्व में वह खुलकर राष्ट्र विरोधी कहती रही है।
इतना ही काफी नहीं था कि जम्मू-कश्मीर में इसने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, हालांकि सिर्फ आठ महीने में ही बीजेपी कहने लगी कि पीडीपी का संविधान में कोई विश्वास नहीं है और उसने महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
इसलिए बीजेपी का यह कहना कि गठबंधन सिर्फ विपक्ष का है, तथ्यात्मक रूप से गलत है।
मोटे तौर पर देखें तो कांग्रेस और आरजेडी के अलावा कोलकाता रैली में कई ऐसे दल मंच पर थे जो पूर्व में किसी न किसी समय बीजेपी के सहयोगी रहे हैं। इसके अलावा यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा भी बीजेपी के वरिष्ठ नेता और महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे हैं।
लेकिन बीजेपी को जो सवाल स्वंय से पूछना चाहिए कि आखिर उसके सहयोगी एक-एक कर साथ क्यों छोड़ रहे हैं। बीजेपी के भरोसेमंद सहयोगी टीडीपी ने पिछले साल नाता तोड़ लिया। शिवसेना एनडीए का हिस्सा होने के बावजूद विपक्षी दल की तरह व्यवहार करती है। वह न सिर्फ अमित शाह बल्कि पीएम मोदी तक पर निशाने साधती रहती है। ध्यान रहे कि शिवसेना और अकाली दल एनडीए में बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी हैं।
इतने सहयोगियों का साथ छूटने के बाद अगर किसी को लगता है कि बीजेपी लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने वाली है, तो गलतफहमी है। बीजेपी ने भी कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक दलों की लामबंदी कर रखी है।
लेकिन, भगवा पार्टी की समस्या यह है कि आज की तारीख में उसे अपने किसी सहयोगी दल पर भरोसा नहीं है। उसे चिंता करनी भी चाहिए क्योंकि हाल के दिनों तक जेडीयू, एलजेपी और दूसरे छोटे दल विपक्ष के संपर्क में रहे हैं।
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