21 अगस्त 2016 को आगरा में आरएसएस के कुटुंब प्रभोदन द्वारा आयोजित युवा दंपत्ति सम्मेलन, जिसमें 2000 युवा जोड़े शामिल हुए थे, को संबोधित करते हुए आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने ‘हिंदू जनसंख्या में गिरावट’ पर चिंता जाहिर करते हुए ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए युवा हिंदू जोड़ों का आह्वान किया। उन्होंने पूछा, “कौन सा कानून कहता है कि हिंदुओं की जनसंख्या नहीं बढ़ सकती है? ऐसा कुछ नहीं है। जब दूसरों की जनसंख्या बढ़ रही है, तब उन्हें क्या चीज रोक रही है? यह मुद्दा व्यवस्था का नहीं है। इसकी वजह सामाजिक वातावरण का ऐसा होना है।”
जाहिर तौर पर इस दावे के पीछे 2011 के जनगणना आंकड़ों को वजह बताया जा रहा है, जिसके निष्कर्षों में कहा गया हैः पिछले दशक (2001-2011) में विभिन्न धर्मों के जनसंख्या विकास दर में कमी आयी है। हिंदू समुदाय की जनसंख्या दर पिछले दशक के 19.92% से गिरकर 16.76% पर पहुंच गई, जबकि मुसलमानों की वृद्धि दर में तेज गिरावट देखने को मिली, जो पिछले दशक में (1991-2001) 29.5% वृद्धि दर के मुकाबले गिरकर 24.60% रह गई। हालांकि, मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर में इस तरह की तेज गिरवाट पिछले 6 दशकों में नहीं हुई, लेकिन इसके बावजूद यह बात भागवत को खुश करने के लिए पर्याप्त नहीं थी? इस दौरान इसाई समुदाय की वृद्धि दर 15.5% रही और सिक्ख वृद्धि दर 8.4% पर रही। सबसे शिक्षित और संपन्न जैन समुदाय ने 2001-2011 के दौरान सबसे कम विकास दर दर्ज की, जो केवल 5.4% रहा। हालांकि, भागवत को इस बात से खुश होना चाहिए था कि जहां हिन्दुओं की वृद्धि दर में सिर्फ 3.16% की कमी आई, वहीं मुसलमानों में 4.92% के साथ तेज गिरावट दर्ज की गई। लेकिन स्पष्ट है कि वह खुश नहीं हैं।
यह सच है कि भारतीय मुसलमानों की जनसंख्या थोड़ी तेज गति से बढ़ रही है। 1991 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या में मुसलमान की संख्या 12.62% थे। 2001 की जनगणना में मुसलमान 13.80 करोड़ या 13.4% थे। लेकिन 2011 में यह आंकड़ा 14.23% या 17.20 करोड़ पहुंच गया। लेकिन अगर वे बढ़ भी रहे हैं, तो क्या यह चिंता का कारण है? दुर्भाग्यवश वर्तमान बहस में यह मूल प्रश्न विषय से बाहर है।
आश्चर्य की बात नहीं है कि आरएसएस और बीजेपी ने मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर बढ़त हासिल करने के बारे में डर फैलाने की कोशिश की है। बेशक मौजूदा प्रवृत्तियों को जारी रखने के लिए यह एक हास्यास्पद धारणा है। भारत में सभी समूहों की जनसंख्या वृद्धि इस सदी के अंत तक रुक जाएगी। इस बात का हिसाब लगाया गया है कि अगर मौजूदा रुझान जारी रहे तो भी भारतीय मुस्लिमों को हिंदुओं की संख्या के आंकड़ों को छूने में 247 साल लगेंगे। ऐसा नहीं है कि आरएसएस अपने गणित को सही करने में सक्षम नहीं है, लेकिन तर्क यहां मुद्दा नहीं है।
अधिकांश जनसांख्यिकीय विशेषज्ञों के अनुसार भारत की जनसंख्या वृद्धि 2060 तक गिर जाएगी। लेकिन बीमारू क्षेत्र में जनसंख्या का विकास 2091 तक जारी रहेगा। बीमारू क्षेत्र बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश का उचित संक्षेप रूप है। तब तक मुसलमानों की वृद्धि भी नीचे गिर जाएगी और उस समय तक वे भारत की जनसंख्या का 18.8% हो जाएंगे।
लेकिन चिंता का विषय इस बात के परिणाम का निहितार्थ होना चाहिए कि अगर बीमारू जनसंख्या सदी के अंत तक बढ़ना जारी रखती है, तो अन्य क्षेत्रों की आनुपातिक आबादी वास्तव में उसी संदर्भ में होगी। इसके गंभीर राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं। लेकिन यह संघ परिवार के लिए चिंता की बात नहीं है, जो सिर्फ मुस्लिम प्रजनन क्षमता को लेकर परेशान लगता है।
अति सूक्ष्म स्तर पर चीन और भारत दोनों में आर्थिक विकास के साथ आबादी का असाधारण विस्तार हुआ है। काफी स्पष्ट रूप है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में कोई रुकावट नहीं है। दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि आर्थिक विकास में जनसंख्या वृद्धि काफी योगदान करती है। यहां निर्भरता अनुपात महत्वपूर्ण कारक है, जो कि 15-64 वर्ष आयु वर्ग के उत्पादक लोगों के मुकाबले 0-14 और 65 से ऊपर की आयु के आश्रित लोगों का अनुपात है। निर्भरता अनुपात जितना कम होता है उतना बेहतर होता है।
2020 में जब उत्पादकता और आर्थिक योगदान सबसे ऊच्च स्तर पर होगा, भारत में 15-35 आयु वर्ग में 27 करोड़ से ज्यादा लोग होंगे। अगर बचत दर में सुधार हो और 2020 में अपनी उत्पादक क्षमता के चरम पर होने के साथ हम अगर लोगों को शिक्षित और सशक्त बनाने में सक्षम होते हैं तो हमारे पास 2050 तक अपने देश को एक विकसित और समृद्ध अर्थव्यवस्था बनाने का एक बड़ा मौका होगा। ऐसा जनसांख्यिकीय नक्षत्र फिर कभी दिखाई नहीं देगा। यह बहुत बुरा है कि हमारे नेता देश के नहीं, बल्कि पहले से अपने व्यक्तिगत नक्षत्रों में डूबे हुए हैं।
इसके और दूसरे रुझान भी हैं, जिनमें से कुछ बेचैन करने वाले हैं, जो अब नजर भी आ रहे हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण कृषि मजदूरों की संख्या में तेज वृद्धि है। यह "गरीबों से भी गरीब" के लिए आरक्षित वर्गीकरण है। 2011 में 34.33 की दशकीय वृद्धि के साथ उनकी संख्या बढ़कर 14.4 करोड़ हो गई, जबकि इस दौरान भूमि के स्वामित्व वाले किसानों की संख्या में 90 लाख की कमी आई है। तथाकथित उदारीकरण के बाद के दशक में लागू की गई नीतियों का एक गंभीर कलंक है। पिछले दो दशकों के दौरान सभी राजनीतिक शक्तियों के हाथों में सत्ता रही है। स्वाभाविक तौर पर हम अंदर की ओर उठी कोई उंगली नहीं देखेंगे।
मुसलमान आमतौर पर हिन्दुओं से गरीब होते हैं। गरीब लोगों के अधिक बच्चे होते हैं। और स्पष्ट तौर पर जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करने वाले अन्य विभागीय कारक हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों में मुसलमानों की साक्षरता का स्तर हिन्दुओं से कम है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं।
शायद अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समान रूप से वंचित मुस्लिम महिलाओं की तुलना में नियोजित अशिक्षित हिंदू महिलाओं की संख्या उनसे दोगुनी से अधिक है - 18% की तुलना में 44%।
एनएसएसओ के अनुसार समुदायों की घरेलू आय का एक विस्तृत स्पेक्ट्रम है। सिक्ख और मुस्लिम दो अलग सिरों पर हैं। 2010 में एक सिक्ख परिवार का औसत मासिक प्रति व्यक्ति खर्च 1,659 रुपये था, जबकि एक मुस्लिम परिवार में यही खर्च 980 रुपये था। हिंदुओं और ईसाइयों का औसत व्यय 1,125 रुपये और 1543 रुपये था। वहीं ग्रामीण मुसलमानों और हिन्दुओं के मासिक प्रति व्यक्ति व्यय के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं है, जो क्रमशः 833 रुपये और 888 रुपये है।
लेकिन एक ऐसा क्षेत्र है जहां मुस्लिम बेहतर हैं। भारतीय आबादी के आधे से अधिक, लगभग 60 करोड़ से ज्यादा लोग शौचालय के उपयोग के बिना खुले में शौच करते हैं। खुले में शौच का प्रचलन हिंदुओं के बीच विशेष रूप से ज्यादा है। भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य और परिवार सर्वेक्षण के सबसे ताजा सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि 2005 तक 67% हिंदू परिवार खुले में यानी खेतों में, सड़कों के किनारे या झाड़ियों के पीछे शौच करते थे। जबकि इसकी तुलना में अपेक्षाकृत गरीब मुस्लिम परिवारों में से केवल 42% ही ऐसा करते हैं।
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यह जनसंख्या वृद्धि के परिणामों के बिना नहीं है। भारत में, हिंदू माता-पिता की तुलना में मुस्लिम माता-पिता के अधिक गरीब और कम शिक्षित होने के बावजूद मुस्लिम बच्चों के हिंदू बच्चों की तुलना में पांचवें जन्मदिन तक जीवित रहने की अधिक संभावना रहती है।
अच्छी तरह से दर्ज यह तथ्य बताता है कि 5 वर्ष की उम्र तक के बच्चों की मृत्यु दर मुसलमानों में हिंदुओं की तुलना में लगभग 18 प्रतिशत कम है। स्पष्ट रूप से अगर हिंदू शिशु मृत्यु दर में सुधार होता है, तो इसकी जनसंख्या वृद्धि दर मुसलमानों के करीब हो जाएगी।
ऐसा लगता है कि हिंदू जनसंख्या वृद्धि किस तरह आकार लेती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनमें से कितने अधिक लोग प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनाने और उनके उपयोग को प्रोत्साहित करने में शामिल हैं। आरएसएस ने अपना काम खत्म कर दिया है।
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