विचार

‘बिहार में बीजेपी को अपनी धुन पर नाचने वाला साथी चाहिए, नीतीश इसीलिए गरिमा खोकर भी गोद में बैठे हैं’

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आखिर, ऐसा क्या था कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार को इस सीमा तक जाना पड़ा, जहां उन्होंने अरविंद केजरीवाल पर अचानक प्रहार कर दिया जबकि उनके साथ नीतीश के रिश्ते काफी बढ़िया रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कोई व्यक्ति सर्कस में नीचे सुरक्षा जाल न रहने पर रस्सी पर कुछ कलाबाजियां तो कर सकता है। लेकिन राजनीति की रंगभूमि में कोई अनंतकाल तक कलाबाजी नहीं दिखा सकता। एक-न-एक दिन उसका गिर पड़ना निश्चित है।

इस नतीजे पर पहुंचना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राजनीतिक पतन निश्चित है या नहीं। लेकिन अगर हाल तक राज्यसभा सदस्य रहे पवन वर्मा की बात पर यकीन करें, तो नीतीश ने अपना सम्मान तो खो ही दिया है। जनता दल (यूनाइटेड) में कभी उनके प्रशंसक रहे लोग भी अब व्यक्तिगत बातचीत में कहते हैं कि अपना पद बचाए रखने के लिए नीतीश ने काफी सारे समझौते कर लिए हैं।

सिर्फ एक ही बात है कि पवन वर्मा और निष्कासित किए जाने से पहले तक जेडीयू के उपाध्यक्ष रहे प्रशांत किशोर ने बोलने का साहस किया और इसलिए ही उन्हें पार्टी से बाहर भी कर दिया गया। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) पर नीतीश की सोच इतनी गड्डमड्ड है कि कोई नहीं जानता कि आखिर, वह कहना क्या चाहते हैं।

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इतना ही काफी नहीं था, तो अभी 2 फरवरी को ही उन्होंने दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ मंच भी साझा कर लिया जबकि यहां उनकी पार्टी- जेडीयू भी दो सीटों पर चुनाव लड़ रही है। उन्होंने अपनी पार्टी की इस स्थापित नीति को त्याग दिया है कि बीजेपी के साथ पार्टी का गठबंधन बिहार तक सीमित है। बगल के प्रदेश- झारखंड हों या उत्तर प्रदेश, या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश- गुजरात, की बात हो, जेडीयू ने बीजेपी से अलग रहकर ही चुनाव लड़े हैं। अरुणाचल प्रदेश में तो जेडीयू सत्तारूढ़ बीजेपी की मुख्य विपक्षी पार्टी है। तो, दिल्ली में, आखिर, ऐसा क्या था कि नीतीश को इस सीमा तक जाना पड़ा? यहां उन्होंने अरविंद केजरीवाल पर अचानक प्रहार कर दिया, जबकि उनके साथ नीतीश के रिश्ते हमेशा काफी बढ़िया रहे हैं।

उत्तर बहुत साफ हैः नीतीश ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में अपना रुतबा खो दिया है और अक्टूबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी द्वारा कठपुतली की तरह उनका इस्तेमाल किया जाना तय है। इसके साथ ही, बीजेपी दिल्ली चुनाव परिणामों को लेकर बहुत निश्चिंत नहीं है- तब ही तो उसने अकाली दल को किसी तरह मनाकर अपने साथ कर लिया और इसी कारण उसे जेडीयू और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी- लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के समर्थन की जरूरत थी।

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अभी कुछ ही दिन हुए, अमित शाह ने साफ किया था कि अगले बिहार चुनावों में नीतीश ही एनडीए का चेहरा होंगे। लेकिन चुनाव के बाद क्या होगा? अगर एनडीए की जीत होती है, तो क्या नीतीश को मुख्यमंत्री बनने दिया जाएगा? यह उस व्यक्ति की अवस्था है, जिसमें कुछ साल पहले तक लोगों को प्रधानमंत्री-मेटेरियल दिखता था।

नीतीश यू टर्न के मास्टर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव तो उन्हें पलटूराम ही कहते रहे हैं। वह यह भी कहते रहे हैं कि नीतीश के पेट में दांत हैं- कोई नहीं जानता कि उनके मन में क्या है। पिछले 25 साल का समय देखें, तो उनके सबसे करीबी लोगों को भी बिल्कुल अंतिम समय तक अंदाजा नहीं होता कि नीतीश का अगला कदम क्या होगा। इसी वजह से उन्होंने उपयोग के बाद अपने कई करीबी और विश्वसनीय साथियों को अपनी राह से हटा दिया है।

लेकिन ईमानदारी से कहें, तो जाति और समुदाय वाली राजनीति में नीतीश ने अपना कोई ऐसा आधार नहीं बनाया है कि वह अकेले ही चल सकें। इसीलिए, पटना- स्थित एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के मेंबर- सेक्रेट्री शैवाल गुप्ता के शब्द उधार लें तो, नीतीश को ’अतिवादी गठबंधन’ करने पड़ते हैं- सेकुलर जेडीयू का बीजेपी के साथ स्पष्ट तौर पर ऐसा ही गठबंधन है।

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इसकी वजह भी है। 1991 के बाद जनता दल के लगातार विभाजन के बाद नीतीश, लालू यादव की छाया से अलग अपनी पहचान बनाने को आतुर थे। दूसरी तरफ, बीजेपी को भी पिछड़े वर्ग के ऐसे नेता की जरूरत शुरू से थी जो लालू को चुनौती दे सके। बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी प्रभावशाली तो थे लेकिन उनका आधार शहरी रहा है और ग्रामीण राजनीति में उनकी ज्यादा वकत नहीं रही है। बीजेपी का आधार भी सब दिन शहरी ही रहा है। इसीलिए नीतीश के तौर पर बीजेपी को ऐसा नेता मिला जो लालू को गैरयादव पिछड़ों में चुनौती दे सके।

नीतीश ने दो महत्वपूर्ण जातियों- एक तो अपनी जाति कुर्मियों और दूसरी, कोयरियों, को अपने साथ लाने में सफलता पाई। लेकिन इन दोनों जातियों के संयुक्त वोट भी यादवों के बराबर नहीं थे। इसलिए उन्होंने जल्द ही अतिपिछड़ी जातियों (ईबीसी) के बीच अपनी जगह बनानी शुरू की। ये बिहार की आबादी के लगभग 25 फीसदी हैं। सरकार ने शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों में इनके लिए 20 फीसद आरक्षण की घोषणा की। नीतीश ने दलितों को भी लुभाने की कोशिश की और उनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर महादलित कमीशन बना दिया।

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इस तरह, लालू की पार्टी- राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का आधार तो खिसका लेकिन इससे नीतीश को भी फायदा नहीं मिला। इसकी वजह यह थी कि बीजेपी ने ईबीसी और दलितों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रखा था। साल 2013 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर उभरने के बाद इसमें तेजी आई। नीतीश को यह बात समझ में आ गई, इसलिए उन्होंने उसी साल जून में बीजेपी से अपना रिश्ता तोड़ लिया। उन्हें लगा कि इससे ईबीसी और दलितों के वोट उन्हें मिल जाएंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। इनके अधिकतर वोट बीजेपी में गए।

साल 2014 लोकसभा चुनावों में जेडीयू ने सीपीआई के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और उसे सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली। निराश नीतीश ने सत्ता की बागडोर जीतनराम मांझी को सौंप दी। मांझी का चुनाव उन्होंने सोच-समझकर ही किया था। मंशा यह थी कि इससे दलित वोट पार्टी की तरफ आएंगे। लेकिन फिर उन्हें यह भी लगने लगा कि मुख्यमंत्री- पद उन्हें दोबारा हासिल नहीं होगा इसलिए उन्होंने 2015 विधानसभा चुनावों से कई माह पहले आरजेडी के साथ हाथ मिला लिया। यह कुछ अस्वाभाविक-जैसा कदम था।

बिहार विधानसभा में सदस्यों की संख्या 243 है। साल 2015 के चुनाव में आरजेडी और जेडीयू ने 101-101 सीटों पर लड़ा, जबकि गठबंधन में शामिल तीसरी पार्टी- कांग्रेस, को चुनाव लड़ने के लिए 41 सीटें मिलीं। इस चुनाव में नीतीश ही चेहरा थे, लेकिन यह नीतीश के लिए झटका ही था कि उनकी पार्टी को आरजेडी से कम सीटें हासिल हुईं। आरजेडी को 80 जबकि जेडीयू को 71 सीटें मिलीं। कांग्रेस को 27 सीटें हासिल हुईं। और महागठबंधन को कुल 178 सीटें मिलीं, जबकि बीजेपी को महज 53 सीटें मिलीं।

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फिर भी चुनाव नतीजों से नीतीश को शर्मिंदा ही होना पड़ा। ऐसे में 2016 आते-आते नीतीश छटपटाने लगे। नरेंद्र मोदी से लड़ने से भी उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा था, क्योंकि मुख्यमंत्री पद संभालते हुए भी वह राष्ट्रीय राजनीति में कद-काठी में लालू के सामने अपने को बौना ही पाते थे। वह बीजेपी में वापसी को बेताब हो रहे थे। उधर, मोदी-शाह तो चारा डाले बैठे ही थे।

यह सच है कि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को लगता है कि बिहार में सत्ता का नेतृत्व उनकी पार्टी को ही करना चाहिए। लेकिन बिहार बीजेपी में ऐसा कोई नेता है ही नहीं। सुशील मोदी, नीतीश राज में उपमुख्यमंत्री भले ही हों, मोदी-शाह उन्हें उतना पसंद नहीं करते। गिरिराज सिंह या अन्य कोई भी ऐसा नहीं है, जिनपर पार्टी दांव लगा सके। इसलिए बीजेपी ने गठबंधन के ऐसे साथी के साथ काम करना मंजूर किया हुआ है जो उसकी धुनों पर नाच सके। नीतीश भी बीजेपी की गोद में बैठकर निश्चिंत हैं।

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