विचार

वोटर को मुफ्तखोर न कहे बीजेपी, लोकतंत्र कमजोर होता है और तानाशाही को बल मिलता है

सच है कि फ्री सामान बांटने से जनता को स्थायी लाभ नहीं होता, बल्कि ऐसी योजनाएं भ्रष्टाचार का केंद्र बनती हैं। पर दक्षिणी राज्यों में फ्री या सस्ती शिक्षा, इलाज, बिजली और अनाज देने का असर वहां सामाजिक स्तर पर पड़ा है, जिसकी पुष्टी सामाजिक-आर्थिक संकेतक करते हैं।

प्रतीकात्मक फोटो
प्रतीकात्मक फोटो 

दिल्ली चुनाव परिणाम को बीजेपी नेता और उनके कट्टर समर्थक ऐसे दिखा-बता रहे हैं, मानो राजधानी के लोग मुफ्तखोर हैं और इसी वजह से बीजेपी को हार मिली है। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने तो साफ-साफ कहा कि दिल्ली चुनाव में मुद्दे हार गए और मुफ्तखोरी जीत गई। ऐसी ही बात गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने कही। उनका कहना था कि चुनाव पूर्व केजरीवाल सरकार की मुफ्त सुविधाओं की घोषणा के झांसे में दिल्ली के मतदाता फंस गए।

लेकिन बीजेपी समर्थक और नेता अपनी पार्टी के घोषणापत्रों और चुनाव पूर्व के फैसलों को तनिक याद कर लेते, तो यह सब कहने की हिमाकत वे कभी नहीं करते। दिल्ली चुनाव में बीजेपी के घोषणा पत्र में भी तमाम सुविधाओं को मुफ्त देने का वादा किया गया था। प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने केजरीवाल सरकार से पांच गुना फ्री पानी और बिजली देने का भी जुमला छोड़ा था। इसके साथ ही 9वीं के छात्रों को फ्री साइकिल, कॉलेज जाने वाली गरीब छात्राओं को फ्री स्कूटी, गरीबों को दो रुपये प्रति किलो आटा देने आदि के तमाम वादे भी इस घोषणा पत्र में किए गए थे। इससे पहले हरियाणा के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले बीजेपी की खट्टर सरकार ने भी करीब 4,800 करोड़ रुपये के किसान कर्ज माफ किए थे।

Published: undefined

दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने फ्री पानी, बिजली और महिलाओं की फ्री बस यात्रा पर करीब 2200 करोड़ रुपये ही खर्च किए हैं और हरियाणा की तरह दिल्ली में राजस्व का कोई टोटा नहीं है। 2018 में तेलंगाना विधानसभा चुनाव के समय भी बीजेपी घोषणा पत्र में मुफ्त सुविधाएं और सामान बांटने के ताबड़तोड़ वादे किए गए थे। अब तो चुनाव से पहले किसानों की कर्जमाफी का ऐलान एक रिवाज सा बन गया है।

पिछले कुछ सालों में चुनाव पूर्व वादे के चलते कर्नाटक (44,000 करोड़ रुपये), मध्य प्रदेश (36,500 करोड़ रुपये), महाराष्ट्र (34,000 करोड़ रुपये), आंध्र प्रदेश (24,000 करोड़ रुपये), राजस्थान (18,000 करोड़ रुपये), तेलंगाना (17,000 करोड़ रुपये), पंजाब (10,000 करोड़ रुपये), छत्तीसगढ़ (61,000 करोड़ रुपये) और तमिलनाडु (करीब 5,300 करोड़ रुपये) में किसानों के कर्ज माफ किए गए या इस तरह के प्रस्ताव किए गए।

Published: undefined

इन कर्जमाफी से किसानों को फौरी राहत अवश्य मिलती है, लेकिन उनकी आर्थिक खस्ता हालत में कोई सुधार नहीं होता है क्योंकि जिन कारणों से किसानों की आर्थिक हालत दिनों-दिन बदतर होती जा रही है, उनका निदान करने में सरकारें विफल रही हैं। असल में किसानों के वोट पाने के लिए ही कर्जमाफी की घोषणा चुनावों के ठीक पहले की जाती है। और तो छोड़िए, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की घोषणा का मकसद वोट पाना ही था। इसलिए इससे किसानों की माली हालत सुधरने में कोई मदद नहीं मिली है, न ही सभी लाभार्थी किसानों को इसकी पूरी रकम अब तक मिली है।

चुनावों से पहले फ्री सामान और सुविधाएं देने का वादा करने का इतिहास काफी पुराना है। वैसे, इसकी शुरुआत चुनाव जीतने के लिए शुरू नहीं हुई थी। 1954 से 1963 तक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे के. कामराज ने 1955-56 में फ्री खाद्यान्न और फ्री शिक्षा उपलब्ध कराने का नीतिगत फैसला लिया था। इसे ही बाद में एमजी रामचंद्रन, करुणानिधि और जयललिता ने चुनावी औजार के रूप में बदल दिया और अब यह तमिलनाडु की राजनीति का स्थायी फीचर बन गया है।

Published: undefined

इसका दक्षिणी राज्यों- आंध्र, कर्नाटक, केरल आदि पर गहरा असर पड़ा, पर अब कोई राज्य इससे अछूता नहीं रहा है। फ्री खाद्यान्न, सस्ती थाली, फ्री या सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य, कलर टीवी, गैस स्टोव, साइकिल, चश्मे, साड़ी-धोती, मिक्सर-ग्राइंडर, चप्पल, झोपड़पट्टी में फ्री बिजली, मातृत्व के समय नकद सहायता, लैपटाॅप, घड़ियां, शादी के समय सोना देना दक्षिणी राज्यों में चुनावी घोषणाओं में आम हैं।

साल 2018 के आंध्र और तेलंगाना चुनावों में वहां लगभग सभी राजनीतिक दलों ने सस्ती या फ्री सार्वजनिक सुविधाओं और फ्री सामान बांटने की होड़ ने नया कीर्तिमान बना दिया। बाकी देश में आज किसी सरकार या राजनीतिक दल को फ्री सामान या सुविधा देने की घोषणा करनी होती है तो वह दक्षिणी राज्यों की तरफ ताकता है।

यह बहुत बड़ा आरोप है कि राजनीतिक दलों ने फ्री-सुविधाएं और सामान बांटकर मतदाताओं को भ्रष्ट कर दिया है। पर यह भी सत्य है कि यदि देश में चुनाव न हों, तो देश के गरीब और वंचितों की याद भी राजनीतिक दलों को कभी न आए। यह सच है कि फ्री सामान बांटने से जनता को स्थायी लाभ नहीं होता है बल्कि ऐसी योजनाएं भ्रष्टाचार का केंद्र बन गई हैं। पर दक्षिणी राज्यों में फ्री या सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और खाद्यान्न देने का बड़ा असर वहां सामाजिक स्तर और आय पर पड़ा है जिसकी तस्दीक देश के सामाजिक-आर्थिक संकेतक करते हैं।

Published: undefined

मसलन देश में 2015 में राष्ट्रीय शिशु मृत्यु दर 37 थी। पर केरल, तमिलनाडु, और कर्नाटक में यह दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम- क्रमशः 12, 19 और 28 थी जो 2016 में घटकर क्रमशः 10, 17 और 24 रह गई। यह इन राज्यों में मजबूत स्वास्थ्य तंत्र और पोषण-व्यवस्था को बताने के लिए पर्याप्त है। इस लिहाज से बड़े हिंदी प्रदेशों की स्थिति बदतर है, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण व्यवस्था की बेहतरी के लिए कोई पर्याप्त काम नहीं हुआ है।

साल 2011-13 में राष्ट्रीय मातृ मृत्यु अनुपात 167 था। इसका मतलब है कि एक लाख मातृत्व काल में कितनी महिलाओं का अकाल निधन हो जाता है। पर केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में यह अनुपात 60, 79 और 133 था, जो राष्ट्रीयऔसत से काफी कम है। पर यह अनुपात उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्रमशः 285, 244 और 221 था जो फिर इन राज्यों के कमजोर स्वास्थ्य और सुविधाओं को उजागर करता है।

2011 की जनगणना के अनुसार, साक्षरता के लिहाज से भी दक्षिणी राज्य बेहतर हैं। केरल में 100 फीसदी बच्चों को प्राइमरी शिक्षा उपलब्ध है। आर्थिक संकेतकों की दृष्टि से दक्षिणी राज्य अपेक्षाकृत मजबूत स्थिति में हैं। निर्धनता पर बनी तेंदुलकर समिति की गणना के हिसाब से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी दक्षिणी राज्यों में राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। देश में 2011 में करीब 22 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं।

Published: undefined

पर तमिलनाडु और केरल में 7.1 और 11.3 फीसदी आबादी ही गरीबी रेखा से नीचे बसर करती है जो उन्नत और औद्योगिक राज्य महाराष्ट्र (17.4) और गुजरात (16.63) से भी बेहतर है। हिंदी प्रदेशों की स्थिति इस दृष्टि से चिंतनीय है। नेट राज्य घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति में भी तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना की स्थिति बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान से बहुत बेहतर है। साल 2011-12 की कीमतों पर 2017 में केरल में 1.47 लाख, तमिलनाडु में 1.53 लाख और तेलंगाना में 1.55 लाख रुपये नेट राज्य घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति था।

ये सब सामाजिक-आर्थिक आंकड़े मुफ्तखोरी के आरोप को आईना दिखाते हैं। सिंचाई के लिए फ्री या सस्ती बिजली मुहैया कराने के कारण ही देश आज खाद्यान्न के मामले में अपने पैर पर खड़ा हुआ है। गरीबों और वंचितों को आर्थिक सहायता या सुविधा मुहैया कराने का ठोस आर्थिक पहलू भी है। इन कदमों से उनकी क्रय शक्ति बढ़ती है जो अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करता है, यानी आर्थिक सहायता के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, यातायात के खर्च में कमी आती है। इससे उनकी जो बचत होती है, उसे वे अपनी अन्य जरूरतों पर खर्च करते हैं जिससे मांग, व्यापार, रोजगार आदि में इजाफा तो होता ही है और सरकारों का राजस्व भी बढ़ता है।

आर्थिक सहायता से बढ़ती आर्थिक विषमता को भी दूर करने में मदद मिलती है। बढ़ती आर्थिक विषमता देश के लिए नासूर है जो देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में सबसे बड़ा अवरोध बना हुआ है। मजबूर जनता को मुफ्तखोर कहने की प्रवृत्ति से लोकतंत्र भी कमजोर होता है और तानाशाही को बल मिलता है। देश की मौजूदा राजनीति में इसका अक्स साफ देखा जा सकता है।

(लेखक अमर उजाला के पूर्व कार्यकारी संपादक हैं)

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined

  • छत्तीसगढ़: मेहनत हमने की और पीठ ये थपथपा रहे हैं, पूर्व सीएम भूपेश बघेल का सरकार पर निशाना

  • ,
  • महाकुम्भ में टेंट में हीटर, ब्लोवर और इमर्सन रॉड के उपयोग पर लगा पूर्ण प्रतिबंध, सुरक्षित बनाने के लिए फैसला

  • ,
  • बड़ी खबर LIVE: राहुल गांधी ने मोदी-अडानी संबंध पर फिर हमला किया, कहा- यह भ्रष्टाचार का बेहद खतरनाक खेल

  • ,
  • विधानसभा चुनाव के नतीजों से पहले कांग्रेस ने महाराष्ट्र और झारखंड में नियुक्त किए पर्यवेक्षक, किसको मिली जिम्मेदारी?

  • ,
  • दुनियाः लेबनान में इजरायली हवाई हमलों में 47 की मौत, 22 घायल और ट्रंप ने पाम बॉन्डी को अटॉर्नी जनरल नामित किया