देश में जो आवाजें उठ रही हैं, वे बताती हैं कि संविधान पर खतरा लोगों को दिख रहा है और यह कोई गैरवाजिब नहीं है। जिस तरह के निर्णय हो रहे हैं, जिस तरह की कार्रवाइयां हो रही हैं, वे साफ-साफ संविधान पर खतरे का संकेत दे रही हैं।
यह कहते हुए एक बात साफ करना जरूरी है कि मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन गांधीवादी होने, सोशल एक्टिविस्ट होने के नाते मुझे अपनी बात साफ कहनी होगी। जब से बीजेपी की सरकार आई है, वह राज्य की अपनी अवधारणा को लागू करने के लिए संविधान का इस्तेमाल तो करना चाहती है लेकिन लोक सहमति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ना चाहती। पीछे जो कुछ निर्णय लिए गए हैं, उनमें संसद में भी जो लोग इनसे भिन्न राय रखते हैं, उनके साथ संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखाई देती।
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बातें सिलसिलेवार समझनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के लिए जिस तरह रातों-रात किसी षड्यंत्र की तरह फैसला ले लिया गया। सरकार को पहले जम्मू-कश्मीर के लोगों के सामने यह प्रस्ताव रखना चाहिए था, उन्हें बताना चाहिए था कि हम ये करना चाहते हैं। अगर वहां की जनता इसे स्वीकार करती, तो ठीक है। अगर लोग अपनी इच्छा से अपने हाथों में बेड़ियां पहनना चाहते हैं, तब कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन जबरदस्ती आप एक पूरे राज्य को जेल में नहीं बदल सकते। बीजेपी ने वही किया। यह साफ दिखाई दे रहा है कि आपके मन में, सत्ता में आने के लिए संविधान जरूरी था लेकिन सत्ता में आने के बाद इसका कोई मूल्य नहीं है। यह सरासर गलत है।
संशोधित नागरिकता कानून पर अभी जो जनविद्रोह दिखाई पड़ रहा है, वह अचानक शुरू नहीं हुआ है। दबाव बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंचा है, एक विस्फोटक स्थिति आ गई है। अब लोग अपने अस्तित्व, उसकी रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। इसे ठीक से समझना जरूरी है। जब संविधान समिति बनी, संविधान बनने की प्रक्रिया केवल तब ही शुरू नहीं हुई। गांधी जी ने जब स्वराज आंदोलन को जन भागीदारी वाला आंदोलन बनाया और समाज ने अपने अंदर की कमियों को दूर करने और एक नए भारत के निर्माण की अवधारणा वाले कार्यक्रम चलाए, तब ही कई चीजें तय हो गईं। यानी, तब ही तय हो गया कि आजाद भारत कुछ विशिष्ट लोगों का देश नहीं बल्कि समग्र जनता का भारत होगा। 1942 में असहयोग आंदोलन में स्पष्ट रूप से लाइन दी गई कि ये जो आजादी होगी, वह केवल कांग्रेस की आजादी नहीं है- ये जनता की आजादी होगी। लेकिन अब ऐसा हो रहा है, जैसे वोट पाए हुए जो थोड़े-से लोग हैं, वही राष्ट्र हैं, वही भारत हैं। यह गलत अवधारणा बना ली गई है।
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हमारे लोकतंत्र में एक तो वोट के समय सहमति हासिल की जाती है लेकिन इसके अलावा जब आप नीतिगत बुनियादी बदलाव करने जा रहे होते हैं तो उस समय भी आपको जनता की सहमति लेनी होगी। नहीं सहमति लेंगे तो असहमति के हाथ उसी तरह उठेंगे जो आज शाहीन बाग से लेकर पूरे देश में उठ रहे हैं। असहमति में हाथ उठना लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए है। और यह भी साफ है कि अगर इस सरकार ने त्यान मन चौक जैसा कोई एडवेंचर किया तो इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। शाहीन बाग के साथ कोई भी छेड़छाड़ सरकार के लिए महंगी पड़ेगी।
यह विरोध व्यापक होने की भी वजह है। लगभग पूरे देश की युवा पीढ़ी में एक किस्म की आंतरिक ऊर्जा प्रकट हो रही है। जिनका आज की व्यवस्था में ‘वेस्टेड इंटरेस्ट’ है, उनको छोड़कर बाकी जितने हैं, उन सबके अंदर यह फीलिंग है कि हमें फिर से गुलाम बनाने की कोशिश हो रही है। किसी को चुना गया है, तो इसलिए नहीं कि वह हमें गुलाम बनाए। हमने चुना इसलिए है कि आप हमारी व्यवस्था कीजिएः बेरोजगारी बढ़ रही है, उसकी व्यवस्था आप कर नहीं रहे; आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो रही है, इसे आप सुधार नहीं रहे; सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि आप समाज में आपस में लोगों को लड़ाने की योजना बना रहे हैं। लेकिन इस देश की जनता इसे स्वीकार करने वाली नहीं है।
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ऐसा नहीं है कि सिर्फ कुछ लोग इस सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे हैं। लोकतंत्र और हमारा संविधान खतरे में है इसलिए इस बार गांधी विचार के जितने भी केंद्र हैं, सेवा केंद्र हैं, वहां कोशिश यह है कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने का काम कोई दलित, कोई महिला या कोई अल्पसंख्यक करे और उस दिन यह संकल्प दोहराया जाए कि हम सब संविधान की सुरक्षा के लिए संकल्पित हों। साथ ही संविधान की प्रस्तावना दोहराई जाए। हमारा लोकतंत्र संविधान की बुनियाद पर टिका है। संविधान की प्रस्तावना में ही कहा गया है, हम भारत के लोग भारत को...। तो जब भी लोक पर खतरा दिखाई देगा तो संविधान पर खतरा दिखाई देगा। लोकतंत्र को गांधीजनों की दृष्टि से देखें, तो राजनीतिक क्षेत्र में यह आध्यात्मिक प्रयोग भी माना जाता हैः आध्यात्मिक प्रयोग इस अर्थ में कि ऊंच-नीच, छुआछूत और तरह-तरह के भेद हमारे समाज में रहे हैं लेकिन पहली बार राज्य की अवधारणा के निर्माण में सबसे ऊपर और सबसे अंतिम आदमी के वोट का मूल्य एक है। यानी प्रधानमंत्री के वोट का मूल्य और समाज में अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम आदमी के वोट का मूल्य बराबर है।
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पिछले 70 सालों में लोगों ने यह महसूस किया है कि लोकतंत्र का मतलब क्या होता है, नागरिक जीवन में लोकतंत्र का मूल्य क्या होता है। हम इस दौर से गुजरे हैं। अब अगर किसी को गलतफहमी हो कि हमारे पास संगठन की इतनी बड़ी शक्ति है जिसमें झूठ, पाखंड, धन और तकनीक का प्रयोग करके हम 130 करोड़ लोगों को मूर्ख बना देंगे तो यह संभव नहीं होगा। सबसे बुनियादी फर्क इनकी सोच में, इनके नजरिये में, उसके क्रियान्वयन में यह दिखाई देती है कि आपसे जो असहमत हैं, उसका इनके लिए कोई मूल्य ही नहीं है। अंतिम वोटों का मूल्य भले ही एक हो, बीजेपी के लिए अब उनका कोई मूल्य नहीं रहा है। वे यह भूल रहे हैं कि यह कोई राजशाही या सामंती व्यवस्था नहीं है। यह अगले चुनावों में बदल भी सकती है। गांधीजी हमेशा सत्य, अहिंसा और लोक पर विश्वास करते थे, यही उनकी आस्था का केंद्र थे। यही हमारी आस्था का केंद्र है। इसलिए हमारा विश्वास है कि इस देश में लोकतंत्र को कोई खत्म नहीं कर सकता।
(लेखक केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष हैं। यह लेख सुधांशु गुप्त से बातचीत के आधार पर है)
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