बिहार सरकार द्वारा किया गया जातियों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण ‘ऐतिहासिक’ है क्योंकि पिछली दो ऐसी रिपोर्टें कभी सार्वजनिक नहीं की गईं। 1941 की जनगणना में जातीय गणना भी शामिल थी लेकिन नतीजे कभी जारी नहीं किए गए और इसकी एक वजह द्वितीय विश्व युद्ध से जुड़ी व्यस्तता रही। 2011 की जनगणना के साथ भी इसी तरह का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया गया। लेकिन एक बार फिर नतीजों को रोक दिया गया, जाहिर तौर पर इसलिए कि इसमें बहुत सारी गड़बड़ियां थीं।
1931 की जनगणना वह आखिरी जनगणना है जिसके नतीजे सार्वजनिक किए गए थे और इसी आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 फीसद आरक्षण की मंडल आयोग की सिफारिशें आईं।
2023 में बिहार सरकार द्वारा कराया गया जाति सर्वेक्षण इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 2021 की जनगणना कोविड महामारी के कारण नहीं की गई थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सर्वेक्षण का सफल संचालन करते हुए आर्थिक आंकड़ों सहित पूरे आंकड़े अगले दो महीनों में जारी करने का वादा किया है।
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एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक प्रोफेसर डी.एम. दिवाकर ने सर्वेक्षण की सराहना की है। उनका कहना है कि इसने भविष्य की नीति के लिए महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है। उनका मानना है कि सबसे महत्वपूर्ण नतीजा यह है कि पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्गों की आबादी बढ़कर 63.5 फीसद हो गई है। अनुसूचित जाति (19 फीसद) और अनुसूचित जनजाति (1.4 फीसद) को मिलाकर, वे अब राज्य की आबादी का 84 फीसद हो गए हैं। उन्होंने कहा कि आंकड़ों से यह भी संकेत मिलता है कि राज्य में लिंगानुपात में सुधार हुआ है। सर्वेक्षण का और भी महत्वपूर्ण योगदान ऐसी असंख्य जातियों की गणना करना है जिनके बारे में कोई डेटा मौजूद नहीं था।
सर्वेक्षण में विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत 215 जातियों की गणना की गई। नाई, कुली, पान किसान, ताड़ी निकालने वाले आदि विशिष्ट सामाजिक समूह हैं लेकिन पहले बहुत छोटे होने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया था। प्रोफेसर दिवाकर ने बताया, ‘अभी हमारे पास कुछ प्रारंभिक डेटा है। जबकि आय, शिक्षा, व्यवसाय और रहने की स्थिति आदि पर अतिरिक्त डेटा का इंतजार है।’
अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का 36.01 फीसद आबादी के साथ सबसे बड़े समूह के रूप में उभरना जो ओबीसी (28 फीसद) से भी बड़ा है, सर्वेक्षण का एक और अहम नतीजा है; क्योंकि ओबीसी को सबसे बड़ा समूह माना जाता था। ईबीसी राज्य भर में बिखरे हुए हैं और इनमें लगभग 130 जातियां और उपजातियां शामिल हैं जिनमें साहनी, निषाद और केवट (मछुआरे), लोहार (लोहे का काम करने वाले), तेली (तेल निकालने वाले), नोनिया (जो नमक बनाने के काम में थे) और नाई शामिल हैं।
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सर्वेक्षण हिन्दुओं या मुसलमानों के एक समुदाय होने के विचार पर भी प्रहार करता है और इस पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देता है कि हिन्दू ‘एक’ हैं या मुसलमानों में कोई जाति नहीं होती। सर्वेक्षण में हिन्दू अगड़ी जातियों की संख्या आबादी का 11 फीसद और मुस्लिम अगड़ी जातियों की संख्या 4 फीसद बताई गई है। सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी अमिता पॉल कहती हैं: मुसलमानों में सैय्यद और शेख- उनमें से तथाकथित ‘ब्राह्मण’ (पूर्व आईपीएस अधिकारी और गवर्नर जूलियो रेबेरो और कोंकण में इसी तरह के ईसाई खुद को सारस्वत ईसाई कहते हैं!) को अल्पसंख्यक आरक्षण के लाभ की जरूरत नहीं है। पॉल ने अपने ब्लॉग में लिखा, ‘मुसलमानों में अजलाफ और अरजाल हैं जिन्हें क्रमशः पिछड़ा वर्ग और एससी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। इसी तरह कारगिल और लेह की मुस्लिम जनजातियों- गुज्जर, बक्करवाल, बाल्टि; असम, बंगाल और पूर्वोत्तर में रहने वाले लस्कर और भारतीय रोहिंग्याओं और लक्षद्वीप, राजस्थान और गुजरात की मुस्लिम जनजातियों को भी आरक्षण मिलना चाहिए।’
ऑल इंडिया पसमांदा महाज के अध्यक्ष और पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी ने संतोष जताते हुए कहा कि 72 फीसद मुसलमान ‘पिछड़े’ हैं लेकिन इससे पहले कोई भी इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। उन्होंने बिहार सरकार की पहल की सराहना करते हुए याद दिलाया कि जब उन्होंने 2009 में इस मुद्दे को राज्यसभा में उठाया था, तो किसी ने भी इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। 2010 में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव सहित कई सांसदों ने लोकसभा में यह मांग उठाई थी जिसे तब भाजपा सांसद गोपीनाथ मुंडे का समर्थन मिला था।
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तो क्या मान लिया जाए कि जाति सर्वेक्षण एक गेमचेंजर साबित होने जा रहा है और अगर ऐसा है तो अल्पावधि या दीर्घकालिक अवधि में इसका क्या असर होने वाला है? और क्या यह राम मंदिर और ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ नैरेटिव के इर्द-गिर्द की राजनीति को उलट देगा? ये वे सवाल हैं जो लगातार पूछे जा रहे हैं। मुख्यधारा के मीडिया द्वारा उठाया गया एक और भी गंभीर सवाल यह है कि क्या इसका निकट भविष्य में चुनावों पर कोई असर पड़ने जा रहा है? इसका कोई आसान जवाब तो नहीं है लेकिन जो बात पहले से ही स्पष्ट है, वह है इन सवालों पर भारतीय जनता पार्टी में भ्रम और बेचैनी।
सर्वेक्षण में जो स्पष्ट पैटर्न दिख रहा है, उसके उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में भी दोहराए जाने की संभावना है। उत्तर प्रदेश में अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और निषाद पार्टी जैसे भाजपा के सहयोगी पहले ही इसी तरह के जाति सर्वेक्षण की मांग कर चुके हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस तरह के किसी भी सर्वेक्षण को दृढ़ता के साथ खारिज करते रहे हैं। हालांकि कई अन्य राज्यों की तरह यूपी ने भी स्थानीय निकायों में अपना प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए अनिच्छा से केवल ओबीसी का सर्वेक्षण किया है। हालांकि यह मांग अब राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि इसमें आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर आनुपातिक संसाधन आवंटन की मांग भी शामिल हो जाएगी।
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कहा जा सकता है कि भाजपा इस मामले में बुरी फंसी है क्योंकि 2019 में उसने जल्दबाजी में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसद आरक्षण लागू कर दिया था जो वैसे आरक्षण के लिए पात्र नहीं थे। व्यावहारिक रूप से इसका मतलब सामान्य वर्ग या अगड़ी जातियों के लिए अतिरिक्त 10 प्रतिशत आरक्षण था जो कि उन्हें पहले से प्राप्त 50 फीसद आरक्षण से अधिक था। अब जब बिहार में अगड़ी जातियां आबादी का केवल 15 फीसद हैं जिनमें 4 फीसद अगड़े मुसलमान भी शामिल हैं, तो उनके लिए 60 फीसद नौकरियां और सीटें अलग रखने का औचित्य तर्कसंगत नहीं रहेगा।
भाजपा के अंदरखाने पसरा हुआ भ्रम साफ दिख रहा है। बिहार में भाजपा के नेताओं ने अलग-अलग सुर में बात की है। सुशील कुमार मोदी ने दावा किया है कि जाति सर्वेक्षण कराने का फैसला राज्य सरकार द्वारा लिया गया था जिसमें भाजपा भागीदार थी। दरअसल, 2019 में सुशील मोदी ने घोषणा की थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार जाति सर्वेक्षण के साथ-साथ 2021 की जनगणना भी कराएगी। भले ही सुशील मोदी सर्वेक्षण का कुछ श्रेय लेने की कोशिश कर रहे थे, अन्य भाजपा नेता और यहां तक कि प्रधानमंत्री भी असहज और चिढ़े हुए लग रहे थे।
प्रधानमंत्री ने सबसे पहले विपक्ष पर समाज को जातियों में बांटकर ‘पाप’ करने का आरोप लगाया। इसके जवाब में कि समाज तो पहले से ही विभाजित है और अगर इसकी झलक देखना चाहते हैं तो विवाह संबंधी आए दिन छपने वाले विज्ञापनों को ही देख लें, प्रधानमंत्री ने बेहतरीन जवाब दिया कि आबादी का सबसे बड़ा वर्ग गरीब है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी शायद ही कभी यह बताने का कोई मौका जाया जाने देते हैं कि वह अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं। उन्होंने चुनावी रैलियों में कहा कि वह केवल एक ही जाति को जानते हैं और वह है गरीब।
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हालांकि इस तरह के कुतर्क लोगों को, खासकर अति पिछड़ी जातियों को ज्यादा पसंद नहीं आ रहे हैं। संख्यात्मक रूप से छोटे, यहां तक कि बहुत ही छोटे, ईबीसी अब तक राजनीति, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में अपने उचित हिस्से से वंचित रहे हैं। कहा जाता है कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा को 44 फीसदी ओबीसी का समर्थन मिला, खासकर उत्तर प्रदेश में; लेकिन विश्लेषक भी इस बात से सहमत हैं, जैसा कि सीएसडीएस के संजय कुमार ने कहा है, कि जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया, वे ‘ओबीसी में अगड़े’ थे।
जब 2021 में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की और देश भर में जाति जनगणना कराने का आग्रह किया, तो उन्होंने इस बारे में कोई वादा नहीं किया। अब तक भाजपा और प्रधानमंत्री जनादेश पाने के लिए राम मंदिर पर भरोसा कर रहे थे जिसका उद्घाटन अगले साल आम चुनाव से ठीक पहले होने वाला है। इसी वजह से केन्द्र सरकार ने इस साल सुप्रीम कोर्ट में बिहार में जाति सर्वेक्षण को रोकने की भरसक कोशिश की। भारत के सॉलिसिटर जनरल ने केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए तर्क दिया कि इस तरह का सर्वेक्षण निजता का उल्लंघन होगा।
यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार और भाजपा देशव्यापी जाति जनगणना और नई आरक्षण नीति के लिए नए सिरे से मच रहे शोर पर क्या रुख अख्तियार करती है। चूंकि भाजपा एक सुसंगत प्रतिक्रिया और उपयुक्त नैरेटिव तैयार करने के लिए संघर्ष कर रही है, प्रधानमंत्री को पिछड़े मुसलमानों के बढ़ते दबाव का भी सामना करना पड़ेगा। आखिरकार, पसमांदा (पिछड़े) मुसलमानों तक भाजपा की पहुंच खोखली ही लगेगी जब तक कि वह उन्हें कुछ नए सौगात का वादा करने में सक्षम नहीं हो जाती।
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नए समीकरण बनने के साथ नए तरह की सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल की संभावना दिख रही है। आनुपातिक आरक्षण की मांग को नजरअंदाज करना कठिन हो जाएगा क्योंकि पुराना युद्ध घोष फिर से गूंजने लगा है- ‘जिसकी जितनी संख्या भारी/उसकी उतनी भागीदारी’। कोटे के भीतर कोटे की मांग भी उठेगी। यहां तक कि निजी क्षेत्र जो अब तक ‘आरक्षण बहस’ से बाहर रहा है, के लिए भी आरक्षण उपलब्ध कराने की बात बेशक न हो लेकिन और पारदर्शिता की मांग का विरोध करना मुश्किल होगा।
गौरतलब है कि आरएसएस ने 1983 में ही दलित जातियों तक पहुंचने के लिए सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की थी और कथित तौर पर इसने समरसता तक पहुंचने से पहले समता शब्द के उपयोग पर परिचर्चा की थी। उत्तरी राज्यों में राजनीति सद्भाव, समानता, एकता और न्याय के बीच घूमती है। हिन्दू एकता के नारों ने भाजपा को बढ़त दिलाई और ‘सामाजिक न्याय’ के नारों ने क्षेत्रीय जाति-आधारित पार्टियों को।
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भाजपा और आरएसएस- दोनों ने समय के अनुरूप खुद को ढाल लिया है और वे जरूरत के मुताबिक अपने सुर बदल लेते हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत जिन्होंने 2015 में बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले आरक्षण की समीक्षा करने की बात कही थी जिससे भाजपा बुरी तरह हार गई थी, उसके बाद से उन्होंने यू-टर्न ले लिया है। हाल ही में उन्होंने कहा, ‘हमने अपने ही साथी इंसानों को सामाजिक व्यवस्था में पीछे रखा। हमने उनकी परवाह नहीं की और यह 2,000 वर्षों तक चलता रहा... जब तक हम उन्हें समानता प्रदान नहीं करते, तब तक कुछ विशेष उपाय करने होंगे, और आरक्षण उन्हीं उपायों में से एक है...।’
उनके और प्रधानमंत्री मोदी के तरकश में और भी तीर हो सकते हैं क्योंकि दोनों को पता होगा कि चुनाव से पहले जाति सर्वेक्षण के नतीजे सामने आएंगे; लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनावों में या अल्पावधि में क्या होता है, मध्यम और दीर्घकाल में ‘समानता’ और ‘न्याय’ शब्दों के इर्द-गिर्द राजनीति के एक नए व्याकरण का आकार लेना तय है। पहली बार ऐसा लग रहा है कि वर्ग जाति पर हावी है और धार्मिक पहचान आधारित राजनीति को नुकसान पहुंचा रहा है।
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