बिहार के मुख्यमंत्री कई सुरों में गाने की कला के उस्ताद हो चुके हैं। जिस व्यक्ति ने अभी हाल तक अप्रैल 2016 में संघ-मुक्त भारत बनाने के लिए सारी गैर-बीजेपी पार्टियों को साथ आने की अपील की थी, वह अब कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने के सपने देखने वालों की धुन पर नाच रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि नेता परिस्थिति की मांग को देखते हुए अपने सुर बदल लेते हैं, लेकिन नीतीश कुमार जितनी तेजी से करते हैं उतनी भी जल्दी नहीं। 12 फरवरी को उन्होंने एक दिन पहले बिहार के मुजफ्फरपुर में संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा की गई टिप्पणी का बचाव करने की कोशिश की, जबकि उन्होंने जल्दबाजी में यह भी जोड़ दिया कि संघ प्रमुख की टिप्पणी की उन्हें पूरी जानकारी नहीं है।
अपने साप्ताहिक ‘लोक संवाद’ कार्यक्रम के बाद मीडियाकर्मियों से बात करते हुए नीतीश कुमार ने कहा, “अगर एक संगठन यह कहता है कि वह देश की सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए पूरी तरह से तैयार है तो इस पर मैं क्या टिप्पणी कर सकता हूं? अगर एक संगठन यह कहता है कि वह देश की सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए पूरी तरह से तैयार है तो इस पर विवाद क्या है?”
सबसे बड़ा सवाल यह है कि नीतीश कुमार को भागवत का बचाव करने की क्या इतनी जल्दबाजी क्यों थी अगर वह पूरी तरह नहीं जानते थे कि आरएसएस प्रमुख ने क्या कहा था? इससे जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि उन्हें राष्ट्रीय महत्व की इस टिप्पणी के बारे में अच्छी तरह से जानकारी क्यों नहीं थी, जबकि सूचना के विस्फोट के इस दौर में खबरें बिना कोई समय लिए कहीं भी पहुंच जाती हैं।
मीडियाकर्मियों की यह उम्मीद जायज थी कि एक दिन पहले ही राज्य में दिए भागवत के वक्तव्य से वे वाकिफ होंगे क्योंकि नीतीश कुमार सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं, जो बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार चलाती है।
जैसा कि खबरों में कहा गया भागवत ने 11 फरवरी को कहा था, “हम एक सैन्य संगठन नहीं हैं, लेकिन हमारा अनुशासन सेना जैसा ही है। अगर देश को जरूरत होगी और हमारा संविधान इसकी इजाजत देगा तो आरएसएस के कार्यकर्ता किसी भी युद्ध के लिए तीन दिनों में तैयार हो जाएंगे। उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारतीय सेना को युद्ध के लिए तैयार होने में महीनों लगते हैं।
नीतीश कुमार के बीजेपी और संघ से कभी प्यार और कभी नफरत के रिश्ते के बारे में सभी जानते हैं। उन्होंने भागवत और उनके पहले के संघ प्रमुख सुदर्शन के साथ भी मंच साझा किया है। फिर भी, उन्हीं नीतीश कुमार ने अक्टूबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार पीएम मोदी से मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए बयान की निंदा करने को कहा।
पटना जिले के अरवल में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने कहा था, “मोदी ने मोहन भागवत के वक्तव्य को खारिज क्यों नहीं किया? अगर वे दलितों और ओबीसी के आरक्षण के पक्ष में हैं तो मोदी को भागवत की टिप्पणी की सार्वजनिक निंदा करनी चाहिए।”
आज नीतीश कुमार कह सकते हैं कि उन्होंने यह बातें इसलिए कही थीं क्योंकि वे आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन 16 जून 2013 को भगवा पार्टी से अलग होने के बाद और मई 2014 में लोकसभा चुनाव में जबरदस्त हार का मुंह देखने तक उन्होंने बीजेपी और संघ के खिलाफ जो आग उगला था, उसके बारे में उनकी क्या राय है। उस समय तो वे किसी मजबूरी या दबाव में नहीं थे।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 12 जून 2010 को बीजेपी के बड़े नेताओं के लिए आयोजित रात्रिभोज को भी उन्होंने रद्द कर दिया था, जब वे लोग बिहार की राजधानी में दो दिनों तक अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कर रहे थे। एक सप्ताह बाद उन्होंने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार द्वारा 2008 की कोसी बाढ़ के बाद मुख्यमंत्री राहत कोश के लिए दिए गए 5 करोड़ के अनुदान को भी वापस कर दिया था।
अजीब बात है कि उन्होंने यह सबकुछ तब किया जब वे उसी बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार चला रहे थे। 8 साल बाद, नीतीश कुमार को लग रहा है कि उन्हें बहुत सारी चीजों का पश्चताप करना होगा अगर वे बीजेपी-आरएसएस की नजर में अच्छे बना रहना चाहते हैं। इसलिए भागवत की टिप्पणी को बिना पूरी तरह जाने उन्हें आरएसएस प्रमुख के समर्थन में कूदना सही लगा और वह भी तब जब एनडीए के कई और सहयोगियों ने इस मसले पर अपना मुंह तक नहीं खोला।
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