राहुल गांधी की छवि ऐसी बना दी गई थी, मानो वह एक उदासीन और अ-गंभीर नेता हों लेकिन भारत जोड़ो यात्रा ने इस तरह की भ्रांतियों को दूर कर दिया। जब 7 सितंबर को यात्रा शुरू हुई थी, तो लोग इसके भविष्य को लेकर अनिश्चितता जता रहे थे। यह दुविधा राहुल की शारीरिक क्षमता को लेकर नहीं बल्कि उनकी राजनीतिक दक्षता के बारे में थी लेकिन इस यात्रा का ऐसा असर हुआ है कि दूध का दूध और पानी का पानी हो गया।
यह देखना विस्मयजनक उत्साहजनक है कि सिविल सोसाइटी के जो कथित प्रतिनिधि नरेन्द्र मोदी के आभा मंडल से चमत्कृत थे, आज वे ही राहुल गांधी की सबसे बड़ी राजनीतिक पहल में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। राहुल ने जब यात्रा शुरू की थी, तब इन लोगों के सवालों को लेकर वह काफी हद तक सुरक्षात्मक नजर आए थे लेकिन दिल्ली तक पहुंचते-पहुंचते इस यात्रा के साथ-साथ राहुल के एक-एक कदम आत्मविश्वास से भरे दिख रहे हैं।
यात्रा ने जब दिल्ली में प्रवेश किया, मैं थोड़ी दूर के लिए इसमें शामिल हुआ। मैंने राहुल जी से कहा, ‘इस बड़े कदम के लिए बहुत-बहुत बधाई राहुल जी।’ इस पर कांग्रेस नेता ने फौरन कहा, ‘नहीं-नहीं, यह तो एक छोटा कदम है, हमें कहीं बड़े कदम उठाने हैं।’
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राहुल गांधी ने साफ शब्दों में बार-बार कहा है कि यह यात्रा राजनीतिक विचारों से प्रेरित नहीं है, इसका उद्देश्य 'प्रेम फैलाना' है। वह सही ही कह रहे हैं। ऐसे समय जब सियासी ताकतें अपने हितों को पूरा करने के लिए मीडिया के बड़े हिस्से की मदद से नफरत और उन्माद का माहौल बना रही हैं, 'प्रेम फैलाना' एक बहुत ही जरूरी नैतिक काम है। सवाल यह उठता है कि क्या इसका कोई राजनीतिक पहलू इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यह एक नैतिक काम है?
ऐतिहासिक रूप से बात करें तो किसी भी समाज में, खास तौर पर आज के जटिल समाजों में, प्रेम फैलाने का मतलब होता है लोगों का दिल जीतना, उनके सोच को प्रभावित करना। राजनीतिक संदर्भ में बात करें तो किसी भी गंभीर व्यक्ति या संगठन के लिए सत्ता अंतिम मुकाम नहीं बल्कि तय लक्ष्यों को पाने का एक जरिया मात्र है। लोकतंत्र में राजनीति का मतलब अपनी योजनाओं के प्रति स्वीकार्यता सुनिश्चित करना और लोगों को भरोसे में लेकर सत्ता हासिल करना है। बेशक सत्ता केन्द्रित राजनीति और आत्म-संतोष वाली नैतिकता एक-दूसरे से अलग दिखें लेकिन ऐसा नहीं है। नैतिकता का एक गंभीर राजनीतिक पहलू भी है क्योंकि बिना सत्ता आप किसी भी राजनीतिक दृष्टि को व्यवहार में नहीं उतार सकते।
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गुजरात जैसी स्थिति, जब सजायाफ्ता बलात्कारियों का जश्न मनाकर स्वागत करने वाली ताकत को जनता भारी बहुमत से सत्ता में लाती है, कोई प्रेम कैसे फैला सकता है? मुख्यधारा का मीडिया जिस तरह विषाक्त माहौल बना रहा है, उसके घातक प्रभावों के प्रति लोगों को जागरूक किए बिना उसका प्रतिकार कैसे किया जा सकता है? राहुल गांधी खुद भी मीडिया की अफसोसनाक भूमिका के बारे में बड़े मुखर रहे हैं और यह सही भी है लेकिन वह भारत जोड़ो यात्रा के समग्र राजनीतिक महत्व के बारे में विरोधाभासी संकेत क्यों देते हैं? यह तो सही है कि इस यात्रा को किसी संकीर्ण परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा देखा जाना चाहिए। वैसे भी, जो राजनीतिक है, वह संकीर्ण ही हो, जरूरी तो नहीं।
कुछ राजनीतिक पंडितों ने यह कहते हुए इस यात्रा को खारिज किया है कि यह ऐसा सफर है जिसकी कोई 'मंजिल' नहीं। यह गलत है। इस यात्रा की 'मंजिल' एक समावेशी, लोकतांत्रिक भारतीय राजनीति और एक सहृदय समाज के विचार की प्रतिस्थापना है। राहुल गांधी का यह कहना बिल्कुल सही है कि बीजेपी को चुनौती देने में सक्षम कोई भी सार्थक विपक्षी एकता एक राजनीतिक दृष्टि के इर्द-गिर्द ही बनाई जा सकती है, किसी नेता के आभामंडल के इर्द-गिर्द नहीं।
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मीडिया की मदद से प्रधानमंत्री मोदी का एक आभामंडल तैयार करने के अलावा बीजेपी ने अपने आप को एक सशक्त और गौरवपूर्ण भारत के प्रति प्रतिबद्ध पार्टी के रूप में सफलतापूर्वक पेश किया है। मोदी को इस सपनीले लक्ष्य के शुभंकर के रूप में और कांग्रेस को इसके प्रति एक उदासीन पार्टी के रूप में पेश किया गया। इसे ही केन्द्र में रखकर बीजेपी ने ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत की कल्पना गढ़ी।
दुर्भाग्यवश बीते तकरीबन एक दशक के दौरान कांग्रेस नेतृत्व ने पार्टी में 'राजनीति' के प्रति एक तरह की विरक्ति का संदेश दिया है। उसने 'सुशासन' के अस्पष्ट-से विचार पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया और ‘समावेशी राष्ट्रवाद’ के उस स्थान को हाथ से फिसल जाने दिया जो उसकी राजनीतिक विरासत का केन्द्रीय भाव रहा है।
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हमारे समाज में पैर पसारती घृणा को रोकने और मध्यकालीन सोच और कट्टरता को आगे बढ़ाने वाली प्रक्रिया के पहिये को वापस घुमाने का काम समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद वाले उस राजनीतिक ढांचे में ही हो सकता है जिसका उद्देश्य शक्तिहीन और गरीबों को सशक्त बनाना हो। इस दिशा में भारत जोड़ो यात्रा एक बहुत ही आवश्यक कदम है। आखिरकार, 'राष्ट्र' का मतलब इसके लोग हैं, न कि कोरी बयानबाजी और काल्पनिक 'आंतरिक दुश्मनों' के खिलाफ लोगों को भड़काना।
संदेह नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा के नैतिक संदेश अहम हैं लेकिन इसका राजनीतिक परिणाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यात्रा की राजनीतिक संभावनाओं को न केवल बीजेपी की ट्रोल आर्मी बल्कि इसके बड़े नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है। राहुल गांधी और उनकी यह यात्रा जिस सहजता के साथ मीडिया के एक हिस्से के साथ बीजेपी समेत अन्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से दो-दो हाथ कर रही है, वह कांग्रेस में आई नई जान का संकेत है। अगली चुनौती इस उत्साह को पार्टी में एक मजबूत सांगठनिक संरचना में तब्दील करते हुए इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करना है। अगर राहुल के मन-मस्तिष्क में ‘बड़े कदम’ के तौर पर यही लक्ष्य है, तो नि:संदेह वह बिल्कुल सही रास्ते पर हैं।
(पुरुषोत्तम अग्रवाल चर्चित लेखक और आलोचक हैं)
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