इतिहास का एक उपेक्षित पर बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि 1940 के दशक में देश के विभाजन का दृढ़ विरोध कांग्रेस के मुसलमान नेताओं ने किया था। कांग्रेस में अनेक वरिष्ठ मुसलमान नेता थे पर उनमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध थे बादशाह खान (फ्रण्टियर गांधी) और मौलाना आजाद। यह दोनों इस श्रेणी के नेता थे कि इतिहास में इनका नाम सदा के लिए दर्ज हो चुका है। यह दोनों ही नेता पार्टीशन के विरोधी थे और इन्होंने अपने विरोध को तब तक नहीं छोड़ा जब तक स्थितियां पूरी तरह उनके हाथ से बाहर नहीं निकल गई।
इन शीर्ष के कांग्रेस के मुसलमान नेताओं ने जब पार्टीशन का विरोध किया तो यह उन्होंने केवल अपने विचारों की अभिव्यक्ति नहीं की बल्कि उन्होंने बड़ी संख्या में अन्य भारतीय मुसलमानों की गहरी भावनाओं का प्रतिनिधित्व किया। इनके कार्य की दृष्टि से निष्पक्ष आधार पर देखा जाए तो सबसे प्रतिभाशाली व सबसे समर्पित मुसलमान नेता बादशाह खान और मौलाना आजाद ही थे। बादशाह खान तो सही अर्थों में लोगों के दिलों के बादशाह ही थे। सवाल उठता है कि इसके बावजूद मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग बहुत से मुसलमानों को भड़का कर पार्टीशन के लिए रजामंद करने में कैसे और क्यों सफल हुए।
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दरअसल इसकी मुख्य वजह यह है कि उस दौर में देश की सबसे बड़ी शक्ति तो औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार ही थी और उसने बहुत समय से ऐसी नीति अपनाई हुई थी कि जो विघटनकारी तत्त्व हैं, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना चाहते हैं, तरह-तरह से इन तत्त्वों को ही प्रोत्साहित किया जाए। यह नीति ब्रिटिश सरकार ने काफी समय से अपनाई हुई थी।
इतिहास गवाह है कि वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दुओं और मुसलमानों ने आपसी एकता स्थापित कर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैंकने का एक बहुत बड़ा प्रयास किया। इसके बाद अंग्रेजी शासन ने बहुत योजनाबद्ध ढंग से ऐसे कुप्रयास आरंभ किए जिनसे हिन्दू-मुस्लिम एकता में बाधा पड़े।
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सेक्रेटरी ऑफ स्टेट वुड ने लार्ड एल्गिन को मार्च 3, 1862 को लिखे एक पत्र में कहा, “हमने भारत में अपनी शक्ति एक हिस्से को दूसरे हिस्से से भिड़ाकर बनाए रखी है और हमें यही करते रहना चाहिए। अतः आप एक साझी भावना के विकास को रोकने के लिए जो भी कर सकते हैं करें।”
सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जार्ज फ्रांसिस हैमिल्टन ने 26 मार्च 1888 को कर्जन को पत्र लिखा जिसमें उसने कहा, “यदि हम शिक्षित भारतीयों को दो बहुत अलग विचार रखने वाले भागों में बांट सकें तो इस बंटवारे से हम अपनी स्थिति दृढ़ कर सकेंगे। हमें स्कूल शिक्षा की पाठ्य पुस्तकें ऐसी तैयार करनी चाहिए कि एक समुदाय और दूसरे समुदाय के अन्तर और बढ़ सकें।”
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क्रास ने गवर्नर जनरल डफरिन को 14 जनवरी 1887 को एक पत्र लिखा जिसमें उसने बधाईनुमा अन्दाज में कहा, “धार्मिक भावनाओं में विभाजन से हमें बहुत लाभ होता है तथा भारतीय शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों पर तुम्हारी जांच समिति के फलस्वरूप (इस दृष्टि से) कुछ अच्छा नतीजा निकलने की उम्मीद मुझे है।” दूसरे शब्दों में सीधे-सीधे कहा जा रहा है कि भड़काने और बांटने वाली पाठ्य पुस्तकें छापो।
जहां एक ओर अंग्रेज शासक ऐसे कुप्रयास कर रहे थे, वहां दूसरी ओर हिन्दू व मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन भी निरंतर द्वेष फैला कर विदेशी शासकों के कुप्रयासों को बढ़ावा दे रहे थे। कई बार तो ऐसा लगता था हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन एक दूसरे को सहायता पहुंचाने वाले कार्य कर रहे हैं क्योंकि एक के भड़काने वाले कार्यों से दूसरे के भड़काने वाले कार्यों को मदद मिलती थी।
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इतिहासकार विपिन पाल ने लिखा है, “दिलचस्प बात यह है कि हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायवादियों ने कांग्रेस के खिलाफ एक-दूसरे से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं किया। पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त, पंजाब, सिन्ध और बंगाल में हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लीग तथा दूसरे सांप्रदायिक संगठनों का मन्त्री मण्डल बनवाने में सहायता दी। (ब्रिटिश) सरकार समर्थक रवैया अपनाना भी तमाम सांप्रदायिक संगठनों की एक साझी विशेषता थी। यहां हम कह दें कि हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवाद की बात करने वाले किसी भी साम्प्रदायिक संगठन या दल ने विदेशी शासन विरोधी संघर्ष में कभी कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। दूसरे धर्मों की जनता तथा राष्ट्रवादी नेताओं को ही वे अपना वास्तविक शत्रु समझते थे।”
इनके वर्ग चरित्र को स्पष्ट करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने 1933 में लिखा था, “आज साम्प्रदायिकता का आधार राजनीतिक प्रतिक्रिया है और इसलिए हम देखते हैं कि सांप्रदायिक नेता बिना किसी अपवाद के राजनीतिक और आर्थिक मामलों में प्रतिक्रियावादी बन बैठते हैं। ऊंचे वर्गों के लोगों के संगठन यह दिखाकर कि वे धार्मिक अल्पसंख्यकों या बहुसंख्यकों की सामुदायिक मांगों के पक्षधर हैं अपने स्वयं के वर्गीय हितों को छिपाने के प्रयास करते हैं। हिन्दुओं मुसलमानों तथा दूसरों की ओर से रखी गई विभिन्न सामुदायिक भागों का आलोचनात्मक विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि इनका जनता से कुछ भी लेना-देना नहीं है।”
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कुल मिलाकर ‘बांटो और राज करो’ की नीति का परिणाम यह हुआ कि सबसे प्रबुद्ध वास्तविक जन-हितों को समर्पित बादशाह खान व मौलाना आजाद जैसे नेताओं से ऊपर भड़काने वाले मुस्लिम लीग के नेताओं की आवाज पहुंच गई।
भौगोलिक स्थितियां भी कुछ ऐसी थीं कि बादशाह खान की कठिनाईयां बढ़ती गईं और चाहे असंख्य लोग उन्हें गहरे दिल से प्यार और सम्मान करते थे पर उनकी पार्टीशन विरोधी आवाज बहुत असरदार नहीं हो सकी।
इसके बावजूद इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष को याद रखना और आज की पीढ़ी के बीच ले जाना बहुत जरूरी है कि बादशाह खान और मौलाना आजाद कैसा देश चाहते थे, कैसा मजहब चाहते थे और एकता के लिए कितने समर्पित थे।
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