हाल में पांच मुस्लिम बुद्धिजीवी एस वाय कुरैशी, नजीब जंग, जमीरुद्दीन शाह, शाहिद सिद्दीकी और सईद शेरवानी ने आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की। यह मुलाकात इन लोगों के आग्रह पर हुई थी। इसकी पृष्ठभूमि में था नुपूर शर्मा प्रकरण, जिसके कारण मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा का भाव और गहरा हो रहा था। इन लोगों का यह दावा नहीं है कि वे मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।
देश में बढ़ती हुई नफरत, मस्जिदों और मदरसों पर बुलडोजर चलाए जाने की घटनाओं से दुखी होकर उन्होंने भागवत को पत्र लिखा। इसके लगभग एक महीने बाद भागवत उनसे मिले। बातचीत में मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों को जिहादी और पाकिस्तानी कहे जाने पर पीड़ा जताई तो भागवत ने कहा कि हिन्दुओं को तब बुरा लगता है जब उन्हें काफिर बताया जाता है या वे गायों को कटता देखते हैं।
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मुस्लिम बुद्धिजीवी और भागवत दोनों ही सराहना के पात्र हैं क्योंकि किसी भी प्रकार के संवाद का स्वागत किया जाना चाहिए। किसी भी संवाद को सार्थक और अर्थपूर्ण तभी कहा सकता है जब दोनों पक्ष एक दूसरे के तर्कों को सुनें, उन पर विचार करें और अगर उन्हें वे तर्क उचित लगें तो उनके अनुरूप अपनी सोच में परिवर्तन करें। हमें उम्मीद है कि इस बैठक के भी ऐसे ही परिणाम होंगे। मुस्लिम बुद्धिजीवियों की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि हिंदुत्व की राजनीति, हिन्दू राष्ट्रवाद के केंद्र में आरएसएस और उसके मुखिया हैं। उनका यह भी कहना है कि उन्हें हिन्दू या 'मोहम्मदी हिन्दू' कहकर संबोधित नहीं किया जाना चाहिए। जहां तक काफिर शब्द का सवाल है, वे सही कह रहे हैं और मुस्लिम समुदाय को उनकी बात सुननी चाहिए।
मोहन भागवत ने गाय-बीफ के मुद्दे को उठाया। क्या वे बताएंगे कि यह केरल, गोवा और उत्तर-पूर्व में मुद्दा क्यों नहीं है? क्या कारण है कि केंद्रीय मंत्री किरण रिजुजू ने कहा कि वे बीफ खाते हैं और लोकसभा चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार श्रीप्रकाश जनता से यह वायदा करते हैं कि अगर उन्हें चुना गया तो वे बेहतर गुणवत्ता वाला बीफ उपलब्ध करवाएंगे
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इस मुलाकात में जिन प्रमुख मसलों को बातचीत में नहीं उठाया गया उनमें शामिल हैं मुसलमानों में बढ़ती असुरक्षा, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) और कई राज्यों में चल रही बुलडोजर राजनीति।
क्या बीजेपी के कुछ नेताओं ने यह तय कर लिया है कि मुसलमानों पर देश का कानून लागू नहीं होगा और उन्हें डराया-धमकाया जाता रहेगा? भागवत कहते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है और मुसलमानों के बगैर हिंदुत्व अधूरा है। क्या उनकी इस सोच को देखते हुए आरएसएस परिवार सावरकर के इस सिद्धांत से किनारा करेगा कि भारत सिर्फ उन लोगों का है जिनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों यहां हैं? क्या संघ इस धारणा का खंडन करेगा कि इस्लाम और ईसाईयत विदेशी धर्म हैं?
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मुसलमानों के खिलाफ लगातार हिंसा का कारण है उनके प्रति नफरत का भाव जो आरएसएस की शाखाओं के बौद्धिकों में स्वयंसेवकों के दिमाग में भरा जाता है। इनमें हिन्दू नायकों जैसे राणा प्रताप और शिवाजी को मुस्लिम-विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, हिन्दू राजाओं को महिमामंडित किया जाता है और मुस्लिम शासकों को दानव के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। राममंदिर के मुद्दे ने दोनों समुदायों के बीच की खाई को गहरा करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राममंदिर के बाद अब काशी और मथुरा का मसला भी उठाया जा रहा है।
संघ की मशीनरी अत्यंत सक्षम है। उसकी विचारधारा, समाज के विभिन्न तबकों में काम करने वाले उसके अनेक अनुषांगिक संगठनों से होती हुई लोगों तक पहुंचती है। इस प्रचार में समाज की सभी बुराईयों के लिए मुस्लिम आक्रांताओं को दोषी ठहराया जाता है। मंदिरों का ध्वंस, जबरदस्ती धर्म परिवर्तन इत्यादि को 'मुसलमानों से नफरत करो' अभियान का आधार बनाया जाता है। इससे ही देश उस स्थिति में पहुंच गया है जिसमें वह है।
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संवाद प्रक्रिया में यह साफ कर दिया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी के दिखाए हुए रास्ते और स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों ने भारत को एक राष्ट्र बनाया है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक राष्ट्र है जिसमें सभी धर्मों के मानने वालों को सम्मान और गरिमा के साथ जीने का हक है। संवैधानिक मूल्यों का हमें व्यावहारिक धरातल पर सम्मान करना होगा। उनके बारे में केवल बात करते रहने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।
आरएसएस ने समाज के विभिन्न वर्गों को अपने में आत्मसात करने के लिए अनेक संगठन बनाए हैं। ये संगठन अलग-अलग तरीकों से दलितों और आदिवासियों को लुभाने का प्रयास करते रहे हैं। इन संगठनों द्वारा संघ मार्का राष्ट्रवाद का पाठ इन वर्गों को पढ़ाया जा रहा है। हाल में संघ ने बड़े जोर-शोर से पसमांदा मुसलमानों के बारे में बात करना शुरू कर दिया है। यह अंग्रेज सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण है। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन को मजबूत करने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता को सबसे पहले समाप्त किया।
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आरएसएस एक अत्यंत विशाल संगठन है जिसका ताना-बाना राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैला हुआ है। संघ ने हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन के हर पक्ष में पैठ बना ली है। परंतु जरूरी यह है कि वह हर तबके को अपने में समाहित करने का प्रयास करने की बजाए उनके साथ जीना सीखे, उनके दुःखों और कष्टों को समझे। इससे ही समाज में शांति और न्याय की स्थापना हो सकती है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक श्रेष्ठतावादी मुसलमानों के अत्याचारों का शिकार हैं।
जो प्रतिष्ठित मुसलमान भागवत से मिले उनके इरादों पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। परंतु जरूरत इस बात की है कि वे भारत में मुसलमानों की पीड़ा के वास्तविक कारणों पर बात करें। वे यह बताएं और देखें कि उनके समुदाय के प्रति नफरत का भाव क्यों फैल रहा है और इसके पीछे कौन है। अगर वे संघ तक यह संदेश पहुंचा सकें कि मुसलमानों से नफरत करना लोगों को कौन सिखा रहा है तो इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती। आज संघ और बीजेपी की छवि एक हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन की बन गई है जो पहचान से जुड़े मुद्दों को आजीविका से संबद्ध मसलों से अधिक महत्व देता है और जो अल्पसंख्यकों को दबाकर रखना चाहता है। अगर आरएसएस सचमुच संवाद और मेलमिलाप करना चाहता है तो उसे गंभीर आत्मचिंतन करना चाहिए।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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