पिछली 9 अगस्त को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल यानी इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जिसे आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप रिपोर्ट ऑन द फिजीकल साइंस बेसिस नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जैसी कि वर्तमान प्रवृत्ति है ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह जारी रहा तो 21 वीं सदी के मध्य में ही दुनिया के औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि-सीमा पार हो जाएगी। पिछले एक दशक में धरती का औसत तापमान उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के तापमान से 0.95 से 1.2 डिग्री सैल्शियस ज्यादा बढ़ा है। यह छठी रिपोर्ट है। इसके पहले 2013 में पेश की गई पाँचवीं रिपोर्ट की तुलना में यह वृद्धि 0.2 डिग्री ज्यादा है।
ऐसा लगता है कि अगले 20 वर्ष में वैश्विक तापमान-वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी। पिछला दशक बीते 1.25 लाख वर्षों के मुकाबले काफी गर्म था। खासतौर से 1850 से लेकर 1900 के बीच के मुकाबले 2011 से 2020 के दौरान 1.09 डिग्री तापमान अधिक दर्ज किया गया। सन 1850 के बाद से वैश्विक ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन 2,400 अरब टन हुआ है। इसमें हरेक 1000 अरब टन की वृद्धि से दुनिया के तापमान में 0.27 से 0.63 डिग्री सैल्शियस की वृद्धि होती है। इन अनुमानों में त्रुटियाँ सम्भव हैं, इसीलिए वैज्ञानिक इन अनुमानों को ज्यादा से ज्यादा अचूक बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
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ग्लोबल वॉर्मिंग की गति असाधारण रूप से बढ़ी है। पेरिस जलवायु समझौते का लक्ष्य दुनिया के तापमान में 2 डिग्री से ज्यादा की वृद्धि को नहीं होने देना और उसे 1.5 डिग्री पर ही रोक देना है। आईपीसीसी के अनुसार पिछला लक्ष्य पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। दुनिया के ज्यादातर देश उतनी गति से कार्बन उत्सर्जन को रोक नहीं कर पा रहे हैं, जिस गति की जरूरत है। तापमान में हरेक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि भारी बारिश की घटनाओं की तीव्रता को 7 फीसदी बढ़ा देगी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (कंसेंट्रेशन) 20 लाख वर्षों में सबसे अधिक है, समुद्री जलस्तर में वृद्धि 3,000 वर्षों में सबसे तेज है, आर्कटिक समुद्री बर्फ 1,000 वर्षों में सबसे कम है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को हम रोक भी दें, तब भी अगले 1,000 वर्षों तक बर्फ का पिघलना जारी रहेगा, महासागरों का गर्म होना जारी रहेगा, यह 1970 के दशक से 2 से 8 गुना बढ़ गया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के डॉ फ्राइडेरिक ओटो आईपीसीसी के लेखकों में एक हैं। उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन भविष्य की नहीं, आज की समस्या है और सारी दुनिया पर असर डाल रही है।
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कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि वे 2050 तक कार्बन न्यूट्रल हो जाएँगे। चीन ने इसके लिए 2060 की अंतिम तिथि तय कर दी है। पर्यावरणीय रसायन विज्ञान में कार्बन न्यूट्रल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कमी को उस स्तर तक लाने की अवधारणा है, जहाँ से ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा न्यूनतम कम होता हो। यानी जितनी हो सके कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती करना। यह काम कोयले के बजाय अक्षय-ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल से किया जा सकता है।
दुनिया के देश इस रिपोर्ट को अपने संदर्भों में देख रहे हैं। हमें भी इसे अपने दृष्टिकोण से देखना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 7.1 प्रतिशत है। पेरिस जलवायु समझौते के अपने वादे को भारत पूरा करने को संकल्प-बद्ध है। सन 2005 के बेस-स्तर के बरक्स भारत 2030 तक 33-35% कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। भारत को ‘शून्य कार्बन उत्सर्जन’ का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और इसे राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं (नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन-एनडीसी) का हिस्सा बनाना चाहिए। खासतौर से तब और जब धरती को संरक्षित करने की वैश्विक लड़ाई का वह अगुवा बनना चाहता है। पर भारत के सामने आर्थिक-संवृद्धि को तेज करने की चुनौती भी है। इस वजह से कार्बन न्यूट्रल बनने की तारीख़ या उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य निर्धारित करने में दिक्कतें हैं।
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दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट में भारत को जलवायु ख़तरे की 2019 की सूची में सातवें पायदान पर रखा गया है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की 2019 की वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन 17 देशों में से एक है, जहाँ पर पानी को लेकर बहुत अधिक दबाव है। पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीका के उन देशों के साथ भारत उस सूची में है, जहाँ जमीन के नीचे और सतह पर पानी समाप्त हो रहा है।
रिपोर्ट ने संकेत दिए हैं कि 21वीं सदी में दक्षिण एशिया में लू और गर्मी और भी ज़्यादा भयंकर होने वाली है। मॉनसून वर्षा समेत सालाना बारिश में तेज़ी आएगी। पूरे तिब्बती पठार और हिमालय में आर्द्रता और भारी वर्षा में वृद्धि होगी। मौसम की इस अटपटी चाल का प्रदर्शन 2019 में उत्तर भारत में देखने को मिला था। मौसम दफ्तर के अनुसार उस साल दक्षिण पश्चिम मॉनसून को उस साल 30 सितंबर को समाप्त हो जाना चाहिए था, बल्कि आधिकारिक तौर पर वह वापस चला गया। पर अक्तूबर के महीने में सामान्य के मुकाबले 110 प्रतिशत वर्षा के बावजूद बरसात जारी थी और मॉनसून की वापसी 10 अक्तूबर के बाद शुरू हुई।
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उस साल पिछले एक सौ वर्षों का सबसे लम्बा मॉनसून साबित हुआ। मौसम विभाग के निदेशक एम मोहपात्रा ने तब कहा था कि हमारा विभाग मॉनसून के महीने जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर मानता है। अब हम इसे मॉनसून-उत्तर (पोस्ट मॉनसून) वर्षा के रूप में दर्ज करेंगे। कहीं कम कहीं बहुत ज्यादा। कहीं बाढ़ और कहीं सूखा। मौसम का रुख तेजी से बदलता जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार जंगलों में आग लगने की घटनाएं हो रही हैं। हाल के वर्षों में उत्तराखंड के जंगलों में असाधारण आग लगने की घटनाएं हुई है। हाल में हिमाचल प्रदेश से भूस्खलन की खबरें आई हैं। इसके पहले चमोली में ग्लेशियर फटने की घटना हुई। भारी बारिश से बाढ़ और भूस्खलन, लू से जंगलों में आग और समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफ़ानों की घटनाएँ बढ़ रही हैं। भारत सरकार ने कहा है कि बीते दो दशकों में बाढ़-पीड़ित इलाकों की संख्या बढ़ी है।
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अंतरराष्ट्रीय चैरिटी ऑक्सफ़ैम के अनुसार, मौसम से जुड़ी आपदाओं के कारण हर साल दो करोड़ से अधिक लोगों को हर साल विस्थापित होना पड़ता है। इस तरह की आपदाएँ बीते 30 साल में तीन गुना हो गई हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ सन 2000 से सूखे, बाढ़ और जंगल में आग लगने के कारण 12.3 लाख लोगों की मौत हुई और 4.2 अरब लोग प्रभावित हुए।
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